एक बार मैं रेलगाडी मैं एक गेरुए वस्त्र धारी व्यक्ति से मिला, कुछ बात आगे बढी तो मैंने इस तरह डिब्बे में उसके घुस आने पर रोष जताया तो जो जवाब मिला वह पूरा नेतानुमा था .वह यह कि वह बिना टिकट के चारो धाम की यात्रा कर चुका है और किसी टिकट की जरूरत नहीं रहती।
एक बार मैं रेलगाडी मैं एक गेरुए वस्त्र धारी व्यक्ति से मिला, कुछ बात आगे बढी तो मैंने इस तरह डिब्बे में उसके घुस आने पर रोष जताया तो जो जवाब मिला वह पूरा नेतानुमा था .वह यह कि वह बिना टिकट के चारो धाम की यात्रा कर चुका है और किसी टिकट की जरूरत नहीं रहती। फिर भी जेल ले जाना है तो ले जाएं, हमारे इष्ट देव भी जेल में जन्मे थे। एसे न जाने और शौकीन कितने हैं। राजनीति में तो कई टियर की यह व्यवस्था पनपी हुई है। कहते हैं कि नेता, उद्भूत हो या प्रक्षेपित या पुश्तेनी हो, सब जानता है। सब विषयों की जानकारी उसे होती है .वह किसी की नौकरी (लोक सेवा) नहीं करता। सब, जी हां, सब उसकी नौकरी करते हैं। या ये कहें कि वह सब को एसे ही देखता है .नेता अचार वाले से मिलकर भी उसे न पहचानने की बात कह सकता है और आसन से सीधे तिहाड भी जा सकता है, कौन वो सिंहासन बत्तीसी था?
यशवंत व्यास का "नमस्कार", आवधिक कालम इन के बखान करता है। अंग्रेजों ने मातहती की कल्पना जो डाली थी उसका जितना स्वतंत्र भारत में दुरुपयोग होना था हुआ। नौकर शाहों का जमकर इस्तेमाल हुआ। कुछ अपने केरियर बनाने के लिए बिछ गए तो कुछ खरीद लिए गए। कुछ रास्ते से हटा भी दिए गए। यह बात बताए गई कि तुम हमारे "साथ" नहीं, "नीचे" काम करते हो .जो घुटन थी वह अब प्रोमिला शंकर की किताब 'गाड आफ करप्सन "में देखने को मिल रही है। अनुराग ठाकुर जिस नेताओं की स्वागत सलामी परेड पर रोष कर रहे हैं उस पर बहुत पहले श्री प्रकाश सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक बोल चुके हैं, लेकिन अफसोस कि "काम चल तो रहा है", और क्या चाहिए? .चाहे रूबी चोधरी हो या बडे घोटाले, निकलने का रास्ता यहां सब खोज लेते हैं, इंदोर के चंद्रसेन विराट जी की पद्य याद आती है कि, जब बडी मछली को पकडने के लिए जाल डाला तो उसने जाल ही तोड डाला। " और साफ करूं, याद आया रोनेन सेन का कथन 'हेडलेस चिकेन' और महाराष्ट्र के चुनाव आयुक्त नंद लाल जी की वह चिट्ठी कि वे "संवेधानिक काम किए हैं" माननीयों को रास नहीं आई थी। माननीय हैं ये। कलकत्ता में जस्टिस लाला के साथ जो हुआ, वह समीकरण याद रखने की जरूरत होती है। इसलिए बच के रहना भी आना चाहिए। ...
इन का मान सम्मान "विशेषाधिकारित है। रक्षित है। सुरक्षित है। ये जनता में से हैं, लेकिन जनता नहीं हैं। ये दिल्ली में अपने सामने किसान को फांसी पर झूलता देख सकते हैं, ये इंटर्फेरेंस और इंटर वेंसन का फर्क बता सकते हैं, माननीय हैं ये। ये महाराजा हैं तो इनके आका लोगों की हैसियत इन से तो ज़्यादा ही होगी। आर के महापात्रा का लेख कि एक जज देर से न्यायालय पहुंचने की आदी हैं और उस पर दिल्ली के समाचार पत्र में जवाबी बयान।
कुछ उलटे फंदे बुनने के बाद सीधी बुनाई शुरू कर देते हैं जैसे स्वेटर को बुनते हैं।कूट्नीतिक नज़र से राजदूत सुरेंद्र कुमार की लिखी किताब पढने लायक है। इधर सुधीर कुमार भी नेता बाबू विवाद में हैं जैसे कि जय राम रमेश भी नाखुश हुए थे यह कहकर कि "मंत्री का काम नीति बनाना है, नौकरशाह का काम उस पर अमल करना है" अमल तो लोग अपने धर्म के वचन पर भी नहीं करते। परस्पर अविश्वास एवं "न जीओ एवं न जीने दो" जैसे विचार लेकर जीने वाले लोग समाज के हितकारी नहीं हैं। जो भी हो परस्पर विश्वास के बिना काम आगे बढेगा नहीं।नौकरी सरकारी हो अथवा गैर सरकारी, जन मानस करता है। निष्ठापूर्वक किया काम कभी यर्थ नहीं जाता। समाचारपत्र में काम कर रहे व्यक्ति जानते हें कि वेतन वहां बहुत अधिक नहीं होता।इस समय कुछ संगठन के प्रमुख पद सुनते हैं काफी समय से खाली हैं जैसे सी आई सी आदि ये पद एसे हैं जो लम्बे समय तक रिक्त नहीं रहने चाहिए।
यशवंत व्यास का "नमस्कार", आवधिक कालम इन के बखान करता है। अंग्रेजों ने मातहती की कल्पना जो डाली थी उसका जितना स्वतंत्र भारत में दुरुपयोग होना था हुआ। नौकर शाहों का जमकर इस्तेमाल हुआ। कुछ अपने केरियर बनाने के लिए बिछ गए तो कुछ खरीद लिए गए। कुछ रास्ते से हटा भी दिए गए। यह बात बताए गई कि तुम हमारे "साथ" नहीं, "नीचे" काम करते हो .जो घुटन थी वह अब प्रोमिला शंकर की किताब 'गाड आफ करप्सन "में देखने को मिल रही है। अनुराग ठाकुर जिस नेताओं की स्वागत सलामी परेड पर रोष कर रहे हैं उस पर बहुत पहले श्री प्रकाश सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक बोल चुके हैं, लेकिन अफसोस कि "काम चल तो रहा है", और क्या चाहिए? .चाहे रूबी चोधरी हो या बडे घोटाले, निकलने का रास्ता यहां सब खोज लेते हैं, इंदोर के चंद्रसेन विराट जी की पद्य याद आती है कि, जब बडी मछली को पकडने के लिए जाल डाला तो उसने जाल ही तोड डाला। " और साफ करूं, याद आया रोनेन सेन का कथन 'हेडलेस चिकेन' और महाराष्ट्र के चुनाव आयुक्त नंद लाल जी की वह चिट्ठी कि वे "संवेधानिक काम किए हैं" माननीयों को रास नहीं आई थी। माननीय हैं ये। कलकत्ता में जस्टिस लाला के साथ जो हुआ, वह समीकरण याद रखने की जरूरत होती है। इसलिए बच के रहना भी आना चाहिए। ...
इन का मान सम्मान "विशेषाधिकारित है। रक्षित है। सुरक्षित है। ये जनता में से हैं, लेकिन जनता नहीं हैं। ये दिल्ली में अपने सामने किसान को फांसी पर झूलता देख सकते हैं, ये इंटर्फेरेंस और इंटर वेंसन का फर्क बता सकते हैं, माननीय हैं ये। ये महाराजा हैं तो इनके आका लोगों की हैसियत इन से तो ज़्यादा ही होगी। आर के महापात्रा का लेख कि एक जज देर से न्यायालय पहुंचने की आदी हैं और उस पर दिल्ली के समाचार पत्र में जवाबी बयान।
कुछ उलटे फंदे बुनने के बाद सीधी बुनाई शुरू कर देते हैं जैसे स्वेटर को बुनते हैं।कूट्नीतिक नज़र से राजदूत सुरेंद्र कुमार की लिखी किताब पढने लायक है। इधर सुधीर कुमार भी नेता बाबू विवाद में हैं जैसे कि जय राम रमेश भी नाखुश हुए थे यह कहकर कि "मंत्री का काम नीति बनाना है, नौकरशाह का काम उस पर अमल करना है" अमल तो लोग अपने धर्म के वचन पर भी नहीं करते। परस्पर अविश्वास एवं "न जीओ एवं न जीने दो" जैसे विचार लेकर जीने वाले लोग समाज के हितकारी नहीं हैं। जो भी हो परस्पर विश्वास के बिना काम आगे बढेगा नहीं।नौकरी सरकारी हो अथवा गैर सरकारी, जन मानस करता है। निष्ठापूर्वक किया काम कभी यर्थ नहीं जाता। समाचारपत्र में काम कर रहे व्यक्ति जानते हें कि वेतन वहां बहुत अधिक नहीं होता।इस समय कुछ संगठन के प्रमुख पद सुनते हैं काफी समय से खाली हैं जैसे सी आई सी आदि ये पद एसे हैं जो लम्बे समय तक रिक्त नहीं रहने चाहिए।
यह रचना क्षेत्रपाल शर्मा जी, द्वारा लिखी गयी है। आप एक कवि व अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाएँ विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी कोलकाता, मद्रास तथा पुणे से भी आपके आलेख प्रसारित हो चुके है .
बहुत बढ़िया ! आपका नया आर्टिकल बहुत अच्छा लगा www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !
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