जीवन -- ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे अद्भुत उपहार है। यह उपहार जन्मते ही मिलता है और मनुष्य की अंतिम साँस तक किस्तों में मिलता रहता है।
जीवन - ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे अद्भुद उपहार
जीवन -- ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे अद्भुत उपहार है। यह उपहार जन्मते ही मिलता है और मनुष्य की अंतिम साँस तक किस्तों में मिलता रहता है। ये किश्तें एक माला में पिरोये मोती की तरह निरंतरता को परिभाषित करती हैं। हरेक मोती चौबीस घंटे का समय कहलाता है और यह एक स्फटिक की तरह स्वच्छ व सुन्दर, बेदाग, दमकता हुआ -- अपना प्रकाश ऊगते सूरज की रश्मियों के साथ अपने चारों ओर बिखरे संसार को दमकाता हुआ होता है। चूंकि यह उपहार बिन माँगे -- बिना प्रतीक्षा किये --नियमित रूप से मिलता रहता है, इसलिये मनुष्य में इस उपहार पाने की न तो उमंग होती है -- न ही उसकी प्राप्ति उल्लास जगाती है -- न ही मनुष्य को उपहार देनेवाले के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने की चाह पनपाती है। कभी कभी तो आँखें मूँदें सोते रह जाने पर भी यह उपहार सिराहने रखा मिल जाता है -- बंद खिड़कियों व दरवाजों के बावजूद साँसों को चलते रहने के लिये मिल जाता है। यह उपहार देनेवाला यह नहीं देखता कि पानेवाला राजा है या रंक। वह तो सबको मात्र चौबीस घंटे देता है। वह यह भी नहीं देखता कि कल दिये गये चौबीस घंटे का उपयोग किस तरह से किया गया है। वह कोई कटौती नहीं करता। हर रोज सुबह की पवित्र लाल रश्मियों के रिबिन से बँधा चौबीस घंटे का नया तोहफा पूर्व में मिले तोहफे के समान होता है, एकदम पूर्ण सौन्दर्य से परिपूर्ण। हरेक को निर्धारित मात्रा में मिला यह उपहार सबके लिये एक समान अखंड़ प्रेम, अनंत आशीर्वाद, असंख्य शुभकामनाओं व अनेकानेक संभावनाओं भरा हुआ होता है।
ईश्वर उपहार देते समय अमीरी-गरीबी के बीच की खाईयों का माप नहीं करता, मनुष्य की योग्यता-अयोग्यता का हिसाब नहीं करता, मनुष्य की सजगता-सुप्तावस्था की ओर ध्यान नहीं देता और न ही उसके ज्ञान-अज्ञान का, सत्गुण-दुर्गुण का, पाप-पुण्य का गणित करता है। हरेक को प्राप्त इस उपहार में एकरूपता होती है। इस उपहार के साथ वह सबको एकसा वरदान भी दे जाता है और वह है इस उपहार के उपयोग करने की स्वतंत्रता। मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार इस उपहार से लाभ लेने के लिये पूर्ण स्वतंत्र है। वह चाहे तो उस चौबीस घंटे के उपहार को यूँ ही गँवा दे -- चाहे तो उन्हें सद्विचार व सत्कर्म से सजा ले या फिर दुर्विचार व दुष्कर्मों से दूषित करता चले। लेकिन हरेक की साँसें चलती रहेंगी और समय बीतता जावेगा। मनुष्य चाहे तो इस पूरे समय अपनी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को सजग रखकर जनकल्याण में व्यस्त रहे या फिर पथभ्रष्ट पिशाच की तरह विश्व के सर्वनाश की ओर उन्मुख बना रहे।
स्पष्ट है कि यह उपहार अद्वितीय है क्योंकि इससे सब कुछ हासिल किया जा सकता है और सब कुछ गँवाया भी जा सकता है। समय सबसे मुल्यवान निधि है और जब यह हमें ईश्वर से उपहार स्वरूप मिलता है, तो वह बस हमारा ही होता है -- कोई इसे हमसे छीन नहीं सकता। समयरूपी इस उपहार की खुबसूरती यह भी है कि यह एक एक कर मिलता है इसलिये आनेवाले कल में मिलनेवाले उपहार को पहले से ही बर्बाद करने की गुँजाईश नहीं रहती।
सज्जन व ज्ञानी लोग इस समय का उपयोग धन कमाने व शोहरत पाने के अलावा आनंद पाने, अंतरात्मा को जाग्रत करने और चरित्र निर्माण के लिये करते हैं। लेकिन अधिकांश लोग ऐसे समय को भी व्यसनों में लिप्त होकर स्वयं के चरित्र का हनन करने का दुस्साहस करते हैं। उनके चौबीस घंटे दुष्कर्म करने की योजना बनाने और पापकर्म करने में ही बीत जाते हैं। यदि उनकी आत्मा उन्हें कभी झकझोरने भी लगे तो उनके पास उपहार में मिला समय पश्चाताप करने में ही गुजर जाता है।
किसी के दिये उपहार की इज्जत करना, देनेवाले का सम्मान करने जैसा होता है। अतः जो ईश्वर के इस चौबीस घंटे के उपहार का उपयोग ज्ञान अर्जनकर बुद्धि को परिमार्जित करने और अन्य तरीके से जीवन के सौन्दर्य को निखारने में लगा देते हैं, वे ईश्वर का सम्मान करते हैं। इसके विपरीत चौबीस घंटे मौज-मस्ती वा गुलछर्रे में व्यतीत कर जीवन को किलबिलाते कीड़ों की तरह बनानेवाले ईश्वर के उपहार की अवमानना करते हैं। कुछ तो अज्ञानतावश इस उपहार में मिले समय में ही जीवन को नष्ट करने का उपक्रम कर जाते हैं। आत्महत्या कर वे ईश्वर के उस अमूल्य उपहार पाने का सैभाग्य ही सदा के लिये गँवा देते हैं।
ऐसे भी लोग होते हैं जो अतीत की यादों में डूबे समय बर्बाद करने में नहीं हिचकते। पश्चाताप व प्रतिशोध की सोचवाले भी इसी श्रेणी में आते हैं। कुछ भविष्य के सपने में खोये समय निकाल देते हैं तथा आनेवाले कल की कल्पना में वर्तमान का रसास्वादन ही नहीं करते। अतीत तो सुधारा ही नहीं जा सकता और भविष्य को बनाने, सुधारने या सँवारने के लिये वर्तमान में जीना आवश्यक होता है। अतीत की गिरफ्त में रहकर वर्तमान व भविष्य को प्रभावी बनाने का अर्थ है पुराने अप्रचलित सिक्कों को बाजार में चलाना। वर्तमान में निष्क्रिय पड़ा मनुष्य सिर्फ गिड़गिड़ाता रहता है कि उसके पास कुछ नया सोचने व करने का समय ही नहीं है। इसके विपरीत वर्तमान में जीनेवाले को न तो अतीत डराता है और न ही भविष्य की आशंकायें भयभीत करती हैं। जो भाग्य को अहमीयत देते हैं, वे भी वर्तमान में नहीं जीते। उन्हें इंतजार होता है ग्रहों के अपने शुभ स्थिति में पहुँचने का या फिर ग्रहों के पूजापाठ से प्रभावित होकर शुभफल देने का। इस तरह वर्तमान को भविष्य में ढकेलने से या अतीत को खींचकर साथ लाने से जटिलता ही बढ़ती है। समस्या जस की तस बनी रहती है। आज का समय व्यर्थ बीत जाता है और ईश्वर का यह उपहार निरर्थक ही रह जाता है।
माना जाता है कि दिनभर ईश्वर की आराधना से सब कुछ हासिल हो जाता है। परन्तु यह वास्तव में भक्ति है और भक्ति उन असंख्य विधियों में से एक है जिससे मनुष्य स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है -- जीवन के संचालन में प्रवीणता प्राप्त करना चाहता है -- मन को स्थिरता प्रदानकर अंतरात्मा को जाग्रत करना चाहता है। इन सारी विधियों का मूल उद्देश्य चेतना को जाग्रत करना है। चेतना का जागरण तभी हो सकता है जब आत्मा की आवाज को सुनने में मन लगे -- एकाग्रता हासिल हो -- आन्तरिक आनंद मिले। आत्मा से हटकर जो कुछ भी किया जाता है, वह आनंददायी नहीं होता। अतः ईश्वर की आराधना मात्र से बात नहीं बनती। इस आराधना के पीछे जो जीवन के मानवता के प्रति संकल्प जुड़े हैं -- कर्तव्य बँधे हैं, उन्हें भी समय देने की आवश्यकता होती है। अतः ईश्वर के द्वारा दिये चौबीस घंटे का संतुलित बजट बनाना परमावश्यक है। आत्मा प्रार्थना से आल्हादित होती है -- ज्ञानोपार्जन से आनंदित होती है -- कला, संगीत, साहित्य, विज्ञान आदि की रुचि से संतोष प्राप्त करती है।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
इन सब के लिये किया गया समय का सदुपयोग ईश्वर की आराधना के समान होता है। लेकिन जो दुर्वसन, दुराचार, अत्याचार आदि व्याभिचारी रुचियों के साथ ईश्वर की आराधना को समय देते हैं तो वे समय का पूर्णतया दुरुपयोग ही करते हैं। अंतः की आत्मा का समर्थन भी इन बातों को नहीं मिलता। हरेक आत्मा ईश्वर के प्रति अपनी जवाबदेही के प्रति जागरुक रहती है। वह जानती है कि परमात्मा किसी खास उद्देश्य से जीवन देता है और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही हर रोज चौबीस घंटे का उपहार देता है। इसके विपरीत उद्देश्य का चयन करना ईश्वरेच्छा की अवमानना के सिवाय कुछ नहीं होता। ऐसा कर मनुष्य स्वयं की आत्मा को प्रताड़ित करता है -- जीवन की सार्थकता का दुरुपयोग करता है।
दुर्जन सोचता है कि उसे चौबीस घंटे मिलने ही थे क्योंकि उसका जन्म हुआ है और एक जीवन मिला है। वह जीने के लिये -- अपने लक्ष्य के निर्धारण के लिये और लक्ष्य पूर्ति के लिये कुछ भी कर्म करने के लिये स्वतंत्र है। वह जीवन को नाशोन्मुख करने के लिये भी आजाद है। इसलिये वह पापकर्म करता है और पापकर्मों का वजन भी स्वयं वहन करता है। वह भूल जाता है कि वह इस सृष्टि में आया है ताकि वह सृष्टि का हिस्सा बनकर जिये -- सृष्टि के कल्याण के लिये जिये और जो सृष्टि के कल्याण के लिये जी रहे हैं उनके लिये बाधा बनकर न जिये।
मनुष्य यह न समझे कि ईश्वर उसे जीवन देकर और जीने के लिये प्रतिदिन चौबीस घंटे का उपहार और उसके साथ मनुष्य को जीने के उपक्रम करने की स्वतंत्रता देकर निश्चिंत हो जाता है। ईश्वर चेतना है और उसकी बनाई गई सृष्टि चेतना का कर्मक्षेत्र है। ईश्वर एक क्षण भी चेतना से विमुख नहीं होता वरना सृष्टि कब की नष्ट हो चुकी होती।
अतः देखें कि ईश्वर किस तरह सृष्टि को अपनी व्यापक चेतना के दायरे में रखता है। ईश्वर सर्वव्यापी है। इसलिये वेद में लिखा है कि हर इन्सान को ईश्वर ने यह शक्ति दी है कि दिन भर के चौबीस घंटों में उसके मुख से निकला कम से कम एक वाक्य सच होता है। यह ब्रम्हवाक्य कहलाता है। पर यह कौनसा वाक्य होगा कोई नहीं जानता। इस कारण मुख से निकली कोई भी वाणी अनायास सच हो जाया करती है। हम मजाक में ही कह दें कि ‘जा बे मर’ और वह यदि ब्रम्हवाक्य बन जावे तो --- ! इसलिये वेद कहता है ‘मनुष्य ने चौबीसों घंटे अपनी वाणी पर काबू रखना चाहिये। पर क्या यह हर इन्सान के बस में है ? कदापि नहीं। यदि हर व्यक्ति अपनी वाणी पर हर समय काबू बनाये रखे तो दुनिया की शक्ल ही बदल जाये। तब कोई किसी पर क्रोध नहीं करेगा। कोई भी किसी को दुखी नही करेगा। हर व्यक्ति दूसरे के हित की बातें करेगा। हर इन्सान एक दूसरे को खुश रखेगा। न झगड़े-झाँसे होंगे। न घृणा, द्वेष का जाल फैलेगा। सारी दुनिया स्वर्ग-सी हो जावेगी। पर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि वाणी पर काबू पाना सरल नहीं है। दिन भर चौबीसों घंटे और फिर सारी उम्र यह कर पाना असंभव है।’ यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव है कि भूल से निकले ऐसे ब्रह्मवाक्य को झुटलाने के लिये हम मुख से ऐसा दूसरा वाक्य निकालें जो पहले वाक्य की तरह ब्रम्हवाक्य हो।
धर्मज्ञान कहता है कि इसके लिये हमें उस शक्ति को प्राप्त करना होगा जिससे हम दिन में एक की जगह दो या अधिक ब्रम्हवाक्य कह सकें।
इस शक्ति को पाने के लिये कड़ी साधना करनी पड़ती है। कई महात्मा होते हैं जो अपने भक्तों की समस्यायें सुनकर एक के बाद एक ऐसी वाणी बोलते जाते जिससे उन्हें तत्काल समाधान मिलता जाता है। ऐसे महात्माओं में एक से अधिक ब्रम्हवाक्य कहने की शक्ति होती है। कई महात्मा तो इसके लिये समय निश्चित कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनके सभी वाक्य ब्रम्हवाक्य नहीं होते बल्कि एक निश्चित अवधि में ही वे इस शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। प्रत्येक दिन सभी कहे हुए वाक्य का ब्रम्हवाक्य बनाना तो अत्यंत मुश्किल है। ऐसे में मनुष्य महात्मा से भी ऊपर उठकर ईश्वर का पद पा लेता है। हमारे पुराणों में इन्हें अवतार माना गया है।
मनुष्य सदैव ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा में है और ईश्वर के अवतरित होने के प्रश्न को लेकर निरंतर परेशान व चिंतित होता रहता है। सच तो यह है कि ईश्वर हर इक के लिये, हर क्षण, हर कहीं, हर रूप में अवतरित होता रहता है। जब जब किसी भी मनुष्य में बुरे विचारों का संचार होता है तब तब उनका नाश करने व उसमें सद्विचारों को उत्पन्न करने ईश्वर आता है। और यदि इसके बाद बुरे विचार उसे दुष्कर्म करने प्ररित करते हैं तब भी उसे दुष्कर्मों के प्रभाव से अवगत कराकर सचेत करने ईश्वर अवतरित होता रहता है ताकि वह दुष्कर्म करना त्याग दे। मनुष्य कहता है कि यह ईश्वर का भय है जो उसे गलत करने से रोकता है। परन्तु यह ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि ईश्वर डराने धमकाने जैसे गलत काम नहीं करता। डराना जीवन को क्षुद्र बना देता है। वह हर मानव को जीवन की निचली पायदान पर लाकर खड़ा कर देता है। ईश्वर तो मनुष्य के उत्थान के लिये अवतरित होता है और मनुष्य में ही अवतरित होकर उसकी आत्मा को सत्कर्म की ओर प्रोत्साहित करता है।
मनुष्य यदि सजग रहे तो वह अनुभव कर सकता है कि प्रतिदिन चौबीस घंटों में एक बार ईश्वर उसकी आत्मा में अवश्य अवतरित होता है ताकि सद्विचार व सत्कर्म करना हर इंसान का लक्ष्य बना रहे। कुछेक तो अपनी साधना व अभ्यास से दिन में एक से अधिक बार अपनी आत्मा में ईश्वर के अवतरित होने का आभास करने लगते हैं। उनकी यह साधना ही उन्हें लगातार ईश्वर के करीब लाती जाती है। वे महात्मा व संत की श्रेणी में आ जाते हैं। उनकी वाणी या फिर उनके द्वारा रचित ग्रंथ जो पीढ़ी दर पीढ़ी मानव जाति को पढ़ने व जीवन में दिशाज्ञान के लिये उपलब्ध होते हैं वे सारे ग्रंथ भी ईश्वर के ही अवतार स्वरूप होते हैं। लोग इसे धर्मग्रंथ या और कुछ कहें, पर वास्तव में वे ईश्वर के सर्वकालीन अवतार के स्वरूप होते हैं। इन ग्रंथों को पूजने का अर्थ है कि लोग उसे पढ़े, सुनें, उन पर मनन करें और उनमें लिखी अच्छी बातों को अपने जीवन में उतारें। यह जब जब होता है, तब तब यह आभास होता है कि ईश्वर अवतरित होकर पृथ्वी पर कल्याण के लिये हमारे बीच आ बैठे हैं।
ईश्वर हमेशा चाहता है कि मनुष्य अपने कर्तव्य को समझे और अपने विचार, वाणी व कर्म के समय ईश्वर का ध्यान अपने मन, मस्तिष्क व हृदय में केन्द्रित रखे ताकि उसे जिन विचारों को आमंत्रित करना है, जिन शब्दों का प्रयोग करना है और जो कर्म निष्पादित करना है उनका चयन ऐसा करे जैसा ईश्वर करता है।
ईश्वर हर इक मनुष्य को जन्म इसी मकसद से देता है कि वह ईश्वर का अवतार बन कर जीये। ईश्वरीय चेतना का कण जो उसकी आत्मा बनकर उसमें बैठा है वह भी यही प्रयास करता है कि मनुष्य ईश्वर के अवतार की तरह सिद्ध पुरुष हो। लेकिन अधिकांश अपनी आत्मा को ही विस्मृत कर बैठते हैं और चाहते हैं कि उन्हें ईश्वर चलना सिखाये। लेकिन मनुष्य के मन में ईश्वर के विषय में अनेकों विचार आते रहते हैं, एक भी विचार उसकी आत्मा से अंकुरित होता नजर नहीं आता।
यदि विचार आत्मा से अंकुरित होवें तो मनुष्य पावेगा कि उसकी जिन्दगी किसी भी परेशानी का सामना करने की दिमागी ताकत रखती है। यह ताकत उसमें स्वयं है और इसके लिये उसे किसी के आश्रय में जाने की भी जरुरत नहीं है। न तो उसे किसी अवतार की प्रतीक्षा करने की जरुरत है और न ही किसी गुरु को तलाश ने की। उसकी अपनी आत्मा ईश्वर के अवतार स्वरूप है और दिशानिर्देशन के लिये उसे अपनी आत्मा से ज्यादा योग्य गुरु कहीं नहीं मिल सकता। गुरु तो अपने अनन्य भक्तों में बँटा होता है, इसलिये वह सदा एक विशिष्ट भक्त पर अनवरत ध्यान नहीं दे सकता। वह भक्त की परेशानी व उसकी क्षमता से उतना वाकिफ भी नहीं होता जितनी उस भक्त की आत्मा होती है। आत्मा शुद्ध सोना होती है। वह किसी सोने के व्यापारी के हाथ से गुजरी नहीं होती और इसलिये उसमें अशुद्धता के आने का प्रश्न ही नहीं उठता। आत्मा शरीर से कुछ पाने की भी इच्छा नहीं रखती। न तो उसे गुरुदक्षिणा चाहिये और न ही गुरुदक्षिणा का मोल-भाव करानेवाली भक्त के इच्छाशक्ति की परीक्षा।
हम यह भी पाते हैं कि चौबीस घंटे में एक बार अवश्य ही हमारा ईश्वर से साक्षात्कार होता है। हम इस अवसर का लाभ ले पाते हैं या नहीं, यह हम पर ही निर्भर रहता है। हमारी सजगता पर निर्भर रहता है। इस साक्षात्कार के समय हम संवाद का आरंभ करें तो अच्छा। यह संवाद हम सम्मानीय संबोधन से करें या नहीं, यह भी हमारी सोच पर निर्भर रहता है। लेकिन हमारी सोच कैसी भी हो ईश्वर तो सदा सस्नेह ही हमसे मुखातिब होते हैं। फिर हम प्रश्न करते हैं और ईश्वर उत्तर देते हैं। हम उनके उत्तर का अर्थ समझ पाते हैं या नहीं, यह कहना कठिन है। लेकिन इतना अवश्य है कि ईश्वर हमारे प्रश्न को सुनते हैं और उत्तर भी देते हैं। संवाद को अर्थपूर्ण बनाने के लिये ईश्वर भी प्रश्न करते हैं। हम समझ ही नहीं पाते हैं कि प्रश्न हमसे किया गया है या नहीं और प्रश्न का अर्थ हम समझ पाये हैं या नहीं और फिर हम उत्तर दे पाते हैं या नहीं, उत्तर देते भी हैं या नहीं, हमारा उत्तर सही होता है या नहीं और यदि हमारा उत्तर सही है तो वह ईश्वर को सही लगा या नहीं, ये सब हमारी सजगता पर ही निर्भर रहता है।
फिर भी ईश्वर हमें उनसे किये प्रश्न का सही उत्तर बता जाते हैं। इस उत्तर का अर्थ हम समझ पाते हैं या नहीं, यह भी हमारी सजगता पर निर्भर करता है।
फिर हमारे ही मन में प्रश्न उठता है कि हम इस साक्षात्कार से संतुष्ट हुए या नहीं। क्या हमने इसे निरर्थक तो नहीं समझ लिया है? क्या हमने इसे एक सपना समझकर भूल जाना ही श्रेयस्कर तो नहीं समझा लिया है?
उपरोक्त ढेर सारे सवाल हमें झकझोर देने वाले होते हैं। इन सवालों का उत्तर भले ही हमें तुरंत मालूम न पड़े पर यदि हम यही सब अपनी आत्मा से पूछें तो वह सब कुछ बता देगी, बशर्ते हम अपनी आत्मा से संवाद करना जानते हों।
वैसे तो चेतना मनुष्य को मायाजाल से मुक्त होने हमेशा प्ररित करती रहती है। सच तो यह है कि आत्मा कभी भी मायाजाल में नहीं फँसती -- फँसता है तो मनुष्य का मन। अतः मन के भटकाव को रोकने चौबीस घंटे में कम से कम एक बार हर मनुष्य में चेतना जाग्रत होती है, क्योंकि आत्मा मनुष्य को माया के मोहजाल से मुक्त कराने सदैव सचेत व क्रियाशील रहती है।
ईश्वर इस आत्मा के माध्यम से मनुष्य को निर्देशित करता है कि ‘हे मानव स्वयं को उतना अच्छा बनाने की कोशिश करो जितना मैं चाहता हूँ और दूसरों को उतना अच्छा बनाने के लिये प्रयत्नशील रहो जितना मैंने उन्हें ऐसा बनने के लिये सक्षम बनाया है। हे मानव! मैंने तुम्हें इस काबिल बनाया है कि तुम दूसरों की मदद कर सकते हो और इसके लिये सदैव तैयार रहना ईश्वर की उपासना की तरह है। हर व्यक्ति को चौबीस घंटे में कम से कम एक बार मैं मौका देता हूँ कि वह किसी की मदद करे। यदि वह चूक गया तो वह उस अद्भुत मौके को गँवा बैठता है। इसी तरह चौबीस घंटे में एक बार दूसरों से मदद मिलने का प्रसंग भी बनता है, बशर्ते मनुष्य सजग रहे। हो सकता है कि यही उसके लिये भी मुझसे मदद पाने का मौका रहा हो।’
ईश्वर का दिया हर दिन चौबीस घंटे का उपहार उसी तरह काम करता है जैसे सुबह सूरज उगते हुए अपनी स्वर्णिम आभा चहुँओर फैलाता पृथ्वी के समग्र जीवों को आल्हादित कर देता है। सुबह ईश्वर का स्मरण अंतः की आत्मा को आनंदित करता है। इसलिये कहते हैं कि चौबीस घंटे में मात्र एक बार प्रार्थना करना मन को स्वच्छ कर देता है ठीक उसी तरह जैसे मनुष्य प्रतिदिन स्नान कर शरीर को स्वच्छ करता है। इससे दिनभर उठनेवाले नये विचारों में भी वही स्वच्छता छलकने लगती है, जैसे स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने पर। चौबीस घंटे में कम से कम एक प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है और उसके सुने जाने का पूर्वाभास भी होता है -- एक आकाशवाणी होती है जिसकी गूँज अंतरात्मा में होती है। इस गूँज को ईश्वर की वाणी कहा जाता है। ईश्वर की वाणी सत्य होती है और सत्य के सिवाय कुछ नहीं। ईश्वर की वाणी सुनकर आत्मा मनुष्य से बातें करती है -- अच्छे काम को प्रोत्साहित करने और बुरे काम पर रोक लगाने। चौबीस घंटे में कम से कम एक बार आत्मा मनुष्य से बातें करती है क्योंकि वह गूँगी नहीं होती, मनुष्य बहरा होता है और भक्ति इस बहरेपन की व्याधि को दूर करती है। चौबीस घंटे ईश्वर पर आस्था व विश्वास बनाये रखनेवाले आस्तिक को भी यही परिणाम मिलता है क्योंकि जहाँ भक्त चाहते हैं कि ईश्वर चौबीस घंटे अपने भक्तों पर ध्यान रखें वहाँ आस्तिक चाहता है कि वह चौबीस घंटे ईश्वर पर ध्यान रखे। अतः हम पाते हैं कि चौबीस घंटे में कम से कम एक बार मनुष्य को ईश्वर की वाणी सुनने का अवसर प्राप्त होता है। जो सुन लेता है, वह तर जाता है क्योंकि उस वाणी से मनुष्य अपने जीवन की धारा व दिशा बदल सकता है।
ईश्वर प्रत्येक में है और ईश्वर का साक्षात् दर्शन तो हमें चौबीसों घंटे अपने अंतः में मिल सकता है और सामने उपस्थित व्यक्ति में भी मिल सकता है। परन्तु हम लगातार स्वयं के अंतः को व सामने के व्यक्ति की उपस्थिति को नकारते हुए आगे देखते हैं जहाँ कुछ नहीं होता। हम आगे की दौड़ लगाते हैं, हर सामने आनेवाले व्यक्तियों को लाँधते जाते हैं और अंत में थक जाते हैं और कहने लगते हैं कि ईश्वर अनंत में है -- हमारी पहुँच के बाहर। यदि हमारी नजर अपने अंतः या इन व्यक्तियों पर पड़ भी जाती है तो हमारी सोच हमें नकारात्मक द्दष्टि प्रदान करती है। हम किसी को बुरा , किसी को कुरूप, किसी को दरिद्र कहते हैं। यदि वह ज्ञानी, सुन्दर या अमीर है तो उसे हम अहंकारी कहने से भी नहीं चूकते। कोई भला, दयालू या मददगार मिल जाता है तो हमारा स्वार्थ तुरंत पनप जाता है और हम अपना मतलब साध लेने के बाद उसे दरकिनार कर देते हैं। उसे भी हम ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप मानने में हिचकिचाते हैं।
हम यह भी नहीं सोचते कि हमसे मिलनेवाला शायद ईश्वर का कोई संदेश लेकर आया हो या फिर ईश्वर के आदेश पर वह हमें अपने अनुभव से वाकिफ कराना चाहता हो। हम भूल जाते हैं कि हमारे संतों ने कहा है कि ईश्वर सभी रूपों में हैं और जिस रूप में है वही उसका श्रेष्ठ रूप है। ईश्वर हर इंसान में अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आता है। लेकिन दुनिया हर इंसान को ऐसा उलझा देती है कि मनुष्य जिस मकसद से दुनिया में आता है वह मकसद या तो वह स्वयं भूल जाता है या फिर उसे घेरे अन्य इंसान उसे गुमराह कर देते हैं। इस तरह हम अपने बीच में अवतरित ईश्वर के साथ जीने का मौका गँवा देते हैं। सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग में दुनिया के लोग हम जैसे नहीं थे, इसलिये उन्हें ईश्वर के अवतार के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हम कलयुगी तो बस अपने अहं का प्रदर्शन करने व अन्य सभी की निंदा करने में मग्न रहना जानते हैं।
मौका अब भी है और इसलिये हमें ईश्वर के हर रूप को स्वीकार करना चाहिये। उसके हर इंसानरूप का आदर करना चाहिये, उससे प्रेम करना चाहिये, उसे अपना सहयोगी समझना चाहिये। यही ईश्वर की प्राप्ति है। यही ईश्वर का दर्शन है। यही ईश्वर की पूजा है। यही ईश्वर की अर्चना है। यही भक्ति है। यही साधना है। यही हमारे जीवन का अर्थ है। हमारी सोच इतनी सजग रहनी चाहिये कि हम हर इंसान को ईश्वर समझें और उसके कल्याणकारी अस्तित्व को कायम रखने उसे उत्साहित करते रहे ताकि वह भी हमें ईश्वर माने और हमारे कल्याणकारी अस्तित्व को बनाये रखने हमें प्रोत्साहित करता रहे ताकि हम दोनों का आपसी व्यवहार वैसा ही हो जैसा ईश्वर का हर आत्मा के साथ होता है। हमें सबको एक धरातल पर लाना चाहिये और वह धरातल है प्रेम का। इस धरातल पर आकर सब एक हो जाते हैं और जहाँ सब एक होते है वहीं ईश्वर होता है।
सच तो यह है कि यदि मनुष्य सजग रहे तो वह अनुभव करेगा कि चौबीस घंटे में कम से कम एक बार उसे ईश्वर के होने का आभास अवश्य होगा। आपने देखा होगा कि आपकी उदासी या खिन्नता (depression) को देख अनायास इक चिड़िया आपके पैरों के पास फुदकती चली आती है और चहचाहाती हुई अद्भुत करतब दिखाने लगती है। क्या तब वह ईश्वर का आपके पास होने की बात तो नहीं कर रही होती? विपदा के मनहूस क्षणों में अचानक कहीं से एक प्रकाश किरण आकर अचानक समाधान का तरीका बता जाती है। क्या इस करिश्मे के पीछे ईश्वर के हाथ होने का सा अनुभव नहीं होता? आखिर अनहोनी को होनी में बदलने की क्षमता किसमें है? हाँ, यह क्षमता उसी में है जिसे मनुष्य अनादि काल से ईश्वर समझता आ रहा है।
लोग जिसे चमत्कार कहते हैं, वह चमत्कार नहीं होता। हर आदमी में चौबीस घंटे में कम से कम एक बार पूर्ण चेतना का जागरण होता है और वह उसका अनुभव भी करता है। इस समय वह ईश्वरीय चेतना के स्तर पर पहुँच जाता है या फिर ईश्वरीय चेतना से संपर्क कर लेता है। इससे अनभिज्ञ मनुष्य उसे चमत्कार समझ लेता है। वैसे तो हरेक साँस किसी चमत्कार से कम नहीं है। हमारा सोना, उठकर जागना, नई बातों का सोचना, अद्भुत कर्म करना आदि सभी चमत्कार ही तो हैं। परन्तु चमत्कार सही मायने में सारे नियमों को ताक में रखकर या नियमों को खंडित कर होने वाली क्रिया होती है। अतः प्रकृति के नियमों या सृष्टि के नियमों के तहत जो कुछ घटता है, वह चमत्कार नहीं कहा जा सकता। प्रकृति व सृष्टि के नियमों का बदलना भी किसी नियत नियम के अधीन ही होता है। अतः चमत्कार नाम की कोई चीज ही नहीं हो सकती। चमत्कार तो बस यही एक है कि मनुष्य ईश्वर के होते हुए भी ईश्वर को नकारने का अहं करता है। यही कारण है कि मनुष्य को सृष्टि के अनेक नियमों में से एक नियम यह भी दिखता है कि जैसी वह आशंका करता है, वैसा ही हो गुजरता है। इसे वह पूर्वाभास (intution) कहता है और इसका मनुष्य में होना उसे महसूस कराने लगता है कि ईश्वर कुछ नहीं है -- जो कुछ है वह मनुष्य स्वयं ही है। तब भ्रमवश मनुष्य अपने बनाये सांसारिक नियमों को सब कुछ मानकर उनका गुलाम बन जाता है। संसार में अनर्थ के उपजने की यही मुख्य वजह है। दोष ईश्वर या भाग्य का नहीं, मनुष्य का ही है।
यदि मनुष्य को सच में पूर्वाभास होता है, तो यह गुण उसमें आता कहाँ से है? क्या यह गुण मनुष्य स्वयं हासिल करता है या फिर यह भी उन ईश्वरीय गुणों में से एक है, जो मनुष्य को जन्मते ही ईश्वर से प्राप्त होते हैं? सच माने में किसी घटना का पूर्वाभास होना मनुष्य में घटना के पहले होनेवाला ईश्वरीय चेतना का जागरण ही है। यह वह क्षण है जब मनुष्य अचानक अपनी चेतना को सजग पाता है। यह सजगता हर आदमी में चौबीस घंटे में कम से कम एक बार अवश्य आती है। इसका यह अर्थ भी है कि चौबीस घंटे में कम से कम एक बार ईश्वर अपने होने का आभास हर मनुष्य को अवश्य कराता है। कहा जाता है कि अहं से रहित संत अपनी अलौकिक साधना से चौबीस घंटे में अनेकों बार इस चेतना को जागा लेते हैं।
लेकिन संत की तरह अहंरहित होना सब के वश में नहीं होता। सामान्यतः हर आदमी अहं के कारण ईश्वर के आमने-सामने होने से कतराता है। वह ईश्वर के समानान्तर चलना जानता है। समानान्तर चलनेवालों का कभी मिलन नहीं होता। सामने से समानान्तर आनेवाला भी कतरा कर निकल जाता है। मिलन नहीं हो पाता। सामने से आनेवाली ईश्वरीय इच्छा भी उनके बाजू से निकल जाती है। मिलन नहीं हो पाता।
अतः हे मानव! प्रयास करो ईश्वर के प्रातः स्मरण का क्योंकि तभी वह चौबीस घंटे का उपहार तुम्हें देने आता है। और इस स्मरण के बाद दिनभर ईश्वर को मत भूलो। याद रखो कि ईश्वर हमारे पास है -- हमें सदा मार्गदर्शन देने -- हमारी मदद करने -- हम पर अपनी कृपाद्दष्टि बनाये रखने -- हमें सत्कर्म के लिये प्रेरित करने -- हमारा हौसला बुलंद रखने ताकि हम विपरीत स्थितियों में भी सफल हों -- सत्कर्म करते हुए ईश्वरेच्छा के भागीदार बनें और स्वयं प्रकाश वान होकर सर्वत्र प्रकाश फैलावें। दिन के अंत में हम पुनः ईश्वर का स्मरण करें और प्रार्थना करें कि जैसा ईश्वर का शुभ सानिध्य आज प्राप्त हुआ है वैसा ही कल प्राप्त हो। हे ईश्वर! कल फिर मुझे चौबीस घंटे का उपहार प्रदान करना ताकि मुझे कल भी तुम्हारा स्मरण करने का सौभाग्य मिले।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
COMMENTS