हर एक कार्यालय, वर्ष के अंत में अपनी संपत्ति का सत्यापन कराता है . सन 97 के आसपास पटना में मुझे यह अवसर मिला .
क्षेत्रपाल शर्मा |
हर एक कार्यालय, वर्ष के अंत में अपनी संपत्ति का सत्यापन कराता है . सन 97 के आसपास पटना में मुझे यह अवसर मिला . जब काम शुरू किया तो अलमारियों की संख्या रजिस्टर की संख्या से ज़्यादा थी . सीलिंग फ़ेन कम थे . मेज़ कुर्सी कम थीं . अधीक्षक से कहा गया कि संख्या सही सही दरज़ क्यों नहीं ? तब यह भी पता लगा कि कम से कम अधीनस्थ कार्यालयों को यहां से मेज़ें कुर्सी भेजी गईं तब प्रश्न था कि वहां से जो 5 साल माल अप्रयुक्त करके खारिज़ किया गया वह कहां दर्ज़ है कितना उनको भेजा गया वह भी दिखाएं और उसका निपटान कैसे हुआ , और आखिर लगा कि यह काम जटिल है , तो बाबू वह रजिस्टर का पहला पृष्ठ दिखाने लगे जहां मेरे पूर्व अधिकारी द्वारा पूर्व के सभी रजिस्टर के खोने और पिछले साल ही इस रजिस्टर को खोले जाने की बात दर्ज़ थी .
साथ ही कार्यालय परिसर में वाहन चालक रह रहे थे उनके आवास में लगे पंखों और अन्य सामान जो दफ़्तर का था, उस पर अंकन भी नहीं था , और न वे संपत्ति के रजिस्टर में दर्ज़ थे.
इस प्रकार बहुत बडे स्तर पर हेरा फ़ेरी होती रहती है . पुराना गेट टूट गया नया लग गया , उस टूटे गेट को खो देने की जुगाड लगाई जाती है. अस्पताल है तो बहु मंजिले भवन में अग्नि शमन के लिए पाइप गायब हो जाते हैं . कार्यालय के अंदर और पीछे जो पेड लगे हैं वे भी ठीक ठीक दरज़ नहीं होते और एक रात वे भी बेच दिए जाते हैं , यह है सही हालत संपत्ति की रक्षा की .
कई जगह फ़्री फ़र्निश्ड आवास मिलते हैं तो वहां से मेज़ , कुर्सी , फ़्रिज़ आदि दरी चादर और बरतन सभी समेटकर लोग ले आते हैं जब कि वे नहीं ले जाने चाहिए चूंकि उनकी अभी आयु होती है यह भी बहुत बडा अपव्यय है . इसी क्रम में एक राज पुरुष की पत्नी से जब वहां तैनात एक व्यक्ति ने कहा कि माताजी इन बरतनों पर निशान पड गए है इनको छोड दीजिए तो मैडम ने कहा नहीं , सब बांधो .
सब बांधने वाला चरित्र ही सर्वव्यापी हो चला है.
बहुत कठिन है डगर ......... ....
मैं सामान्य से उठक बैठक के कुछ प्रसंग आपके भी ध्यान में भी लाना उपयुक्त समझता हूं .एकबार आगरा में सरकारी मीटिंग में स्थल पर इस बार जल्दी पहुंच गया तो देखा कि दरी फटी हुई है कुर्सियॉं के हत्थे टूटे हुए हैं . पहली नज़र में लगा कि अब तक इस जगह हम बैठक करते रहे लेकिन इन चीजों को देखा नहीं . आगे वह स्थान बदल दिया .
यह बैंक लोकपाल द्वारा बुलाए गई एक बैठक थी . मुझे भी बुलाया था कक्ष भरा हुआ था . बैठक प्रारंभ हो चुकी थी लेकिन तभी एक बुज़ुर्ग दाखिल हुए . परिचय में जो उन्होंने कहा कि मेरा नाम तो बहुत बदनाम है . चूंकि वे बुज़ुर्गथे इसलिए आयोजकों ने कार्य समाप्ति से पहले उनको सम्मानित करने के लिए पुकारा .अब तो माइक उनके हाथ क्या आया वे अपनी कथा सुनाने लगे . इतने अनुभवी व्यक्ति मौके की नज़ाकत भी भूल गए . तुर्रा ये कि जब से मैं आप को सुन रहा था अब मुझे भी सुनिए .सारी अनुनय विनय उन सज्जन ने अनसुनी कर दीं . समझ बूझ से काम लेकर, आखिर थोडे समय के लिए बिजली का स्विच आफ किया तब दो मिनट बाद काम फिर से संभाल पाए .
हडबडी में गडबडी हो ही जाती है . एक और सरकारी बैठक में जब कार्य समाप्ति की ओर था तब मुझे स्मृति चिह्न दिया गया ठीक तभी आयोजकों को पुष्प गुच्छ देने की सुध आई . यदि , क्या करना है वह काम सूची बद्ध कर लिया जाता तो ऐसा न होता.
एक और घटना याद आ रही है जो संभवतया भावुक होने से घट गई . इस बार अध्यक्ष महोदय ने मंच की बजाए नीचे सब के साथ बैठनेका निर्णय लिया फलत: हम भी उनके साथ पहली मेज़ पर बैठ गए . मंच करीब खाली सा रहा . बैठक हो गई लेकिन मुझे कुछ अटपटा सा लगा . दूसरे दिन फोन करके अध्यक्ष से बात कीं कि ये ठीक नहीं हुआ .भले ही हम नीचे थे , लेकिन हमारा चेहरा तो कम से कम सदस्यों की ओर होना ही चाहिए था , पीठ नहीं . तब उनको इस गलती का आभास हुआ .
वरिष्ठ अधिकारी एवं अन्य जो जनता के साथ जुडे हैं उन्हें नाज़ुक मौके संभालना आना चाहिए. देश , काल और परिस्थिति के अनुसार काम करना चाहिए . सम्माननीय , पद में उच्च अधिकारी और बुज़ुर्ग वार से बातचीत का सही सलीका आना चाहिए . मेरे ही एक परिचित वरिष्ठ अधिकारी की एक पंक्ति कही याद आ रही है कि “ दूध से दूध ज़मन लागे तो फिर ज़ामन का क्या होगा”
और , शिवाजी की कही गई यह उक्ति कि “ वैसे तो गुरू हमारे सिरमौर हैं लेकिन उनके काज से हमारा ही मस्तक झुकने लगे तो मौर कहां टिकेगा ? “
यह रचना क्षेत्रपाल शर्मा जी, द्वारा लिखी गयी है। आप एक कवि व अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाएँ विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी कोलकाता, मद्रास तथा पुणे से भी आपके आलेख प्रसारित हो चुके है .
बिल्कुल सही कहा
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