चित्तप्रसाद भट्टाचार्य मध्य 20 वीं सदी के भारत के सबसे मान्यता प्राप्त राजनीतिक कलाकार हैं. उन्होंने कैनवास पर तेल रंगों से परहेज कर पानी के रंगों का इस्तमाल किया. उन्होंने वामपंथी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए प्रिंट का इस्तेमाल किया. अपने कार्टूनों के माध्यम से दलितों की हालत का कटु चित्रण किया.
कलम व स्याही रेखाचित्र से समाज की गंदगी का कटु चित्रण करने वाला कार्टूनिस्ट चित्तप्रसाद
चित्तप्रसाद भट्टाचार्य मध्य 20 वीं सदी के भारत के सबसे मान्यता प्राप्त राजनीतिक कलाकार हैं. उन्होंने कैनवास पर तेल रंगों से परहेज कर पानी के रंगों का इस्तमाल किया. उन्होंने वामपंथी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए प्रिंट का इस्तेमाल किया. अपने कार्टूनों के माध्यम से दलितों की हालत का कटु चित्रण किया.
बंगाल अकाल का किया मार्मिक चित्रण
चित्तप्रसाद भट्टाचार्य अपने काम में सुधारवादी चिंताओं को दर्शाते थे. वे गरीब किसानों और मजदूरों की छवियों का चित्रण कर उनके आक्रोश की अभिव्यक्ति देते . बंगाल अकाल (1943) में गरीबों की मौत के खिलाफ उनकी कला ने रिपोर्ताज की तरह काम किया तथा मध्यम वर्ग और ब्रिटिश अधिकारियों को हिलाकर रख दिया.15 जून 1915 को पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले में उनका जन्म हुआ. उनके पिता एक सरकारी अधिकारी, एक शौकिया पियानोवादक थे और मां कविता लिखती थीं.
वामपंथी विचारधारा से प्रभावित
1932 से 1936 तक उन्होंने बांग्लादेश के चटगांव सरकारी कालेज में शिक्षा प्राप्त की. छात्र जीवन में ही वह वामपंथी राजनीतिक दर्शन से प्रभावित हुए तथा शामिल हुए. उन्होंने अंग्रेजों द्वारा औपनिवेशिक दमन, और भी उतरा भारतीय आर्य लोग की सामंती उत्पीड़न दोनों का विरोध करने के लिए जमीनी स्तर पर आंदोलन में शामिल हो गए. वह बंगाल स्कूल और अपने आध्यात्मिक व्यस्तताओं के क्लासिसिजम खारिज कर दिया. जाति व्यवस्था के भेदभाव को स्वीकार करने से इनकार करने के कारण उन्होंने जीवन के दौरान उनके ब्राह्मणवादी उपनाम इस्तेमाल कभी नहीं किया. उन्होंने किसी भी संस्थागत ढांचे में कला में प्रशिक्षण नहीं लिया. वह एक आत्म प्रशिक्षित कलाकार थे. गांव मूतिर्कारों और कठपुतली उन्हें प्रेरित करती. सबसे चकित कर देने वाली बात यह है कि कोलकाता के सरकारी स्कूल और कला भवन, शांति निकेतन में प्रवेश से उन्होंने इनकार कर दिया था.
सामंती और औपनिवेशिक प्रणाली की आलोचना
चित्तप्रसाद की सबसे रचनात्मक साल 1930 के दशक में शुरू हुई. उन्होंने तानाशाही कलम और स्याही रेखाचित्र में सामंती और औपनिवेशिक प्रणाली की आलोचना की . उस पर व्यंग्य कसा. यह कलाकार / सुधारक प्रचारात्मक इरादे से लीनोकट्स और वुडकट्स बनाने में कुशल था. पहले उनकी कला तथा कार्टूनों की शायद कद्र न होती थी लेकिन आज उनके प्रसंशकों तथा चाहने वालों के लिए यह बेशकीमती हैं.1943 उन्होंने विभिन्न कम्युनिस्ट प्रकाशनों के लिए बंगाल के अकाल को कवर किया. यह उसका पहला प्रकाशन ‘भूखा बंगाल’ के रूप में हुई. यह उस समय की राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों पर एक तेजी से उत्तेजक हमला था जिसे दबाने की कोशिश की गई. उन्होंने बंगाल के अकाल की अपने शक्तिशाली, संवेदनशील, काले और सफेद चित्र से पहली बार ध्यान आकर्षित किया. उनके चित्र पीपुल्स वारऔर दनयुद्ध जैसे कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए थे. उनकी रिपोर्ट पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, बंबई से ‘हंगरी बंगाल’ शीर्षक से एक पुस्तिका के रूप में अंग्रेजी में प्रकाशित की गई थी.
विशिष्ट प्रवृत्ति के नेता चित्तप्रोसाद
चित्रप्रसाद भारतीय राष्ट्रीय कला आंदोलन में एक विशिष्ट प्रवृत्ति के नेता थे. वह शोषण, ग्रस्त गरीबी, और हर संभव परिस्थितियों के शिकार थे लेकिन असीम जीवन शक्ति तथा सभी बाधाओं के बावजूद उदासीन अस्तित्व की सैकड़ों वर्ष की एक विरासत के साथ अपनी अनूठी सांस्कृतिक विरासत के रखवाले बने. उनके विषय समय समय पर विविध रूप धारण करते रहे. उनके काम जीवन के काले पक्ष को उजागर करती जो वास्तविक था. समाज, . उनकी शैली यथाथर्वादी नहीं बल्कि यह एक लोक भावना है, साथ ही लोगों को जोड़ने वाली है. वह समय की जरूरतों के साथ चलना भलीभांति जानते थे.
कम्यूनिस्ट पार्टी से हुए अलग
वह वाम प्रेस के लिए काम करने के लिए बंबई आ गए. उन्होंने हैदराबाद में निजाम अत्याचारी शासन के खिलाफ तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष का चित्रण बखूबी किया. 1946 के बाद वह बम्बई में स्थायी रूप से बस गए. 1948 और 1949 के बीच उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी का साथ छोड़ा लेकिन राजनीतिक कार्टून जारी रखा. इसके बाद भी वह अंकल सैम तथा अन्य भ्रष्ट राजनेताओं और व्यवसायियों पर निशाना साधना नहीं भूले.1950 के दशक में उन्होंने बंबई में शिरकत की तथा अनगिनत बच्चों की किताबों के लिए चित्र बनाए. बिमल रॉय की दो बीघा जमीन के लिए भी उन्होंने पोस्टर बनाया.
खेलघर की की स्थापना
इतिश्री सिंह |
1960 के दशक में उन्होंने बंबई में रहने वाले फ्रेंटिसेक सालाबा जो एक चेक शौकिया पपेटर थे , उन्होंने चेक की पारंपरिक कठपुतली थियेटर सीखा. उन्होंने अपनी पारंपरिक कठपुतली मंच खेलघर की स्थापना की. अपनी मृत्यु से पहले के वर्षों में यह कलाकार विश्व शांति आंदोलन के लिए अधिक से अधिक समय देता रहा और गरीब बच्चों की मदद के लिए विभिन्न प्रयासों के लिए जिंदगी को समर्पित कर दी. वह ना ही कभी विदेश गए और न ही विवाह किया. अंधेरी, मुंबई में रूबी टैरेस नाम के अपाटर्मेंट के एक कमरे में रहने वालेभट्टाचार्य के घर पर किताबें, एक कुत्ता और एक बिल्ली थी. एक बनियान और लुंगी पहने वह स्टीफन मैल्लेरम, फ्रेडरिक होल्डरलीन, रैनर मारिया कविता सुनाते थे. कभी-कभी तो फटे हुए बनियान पहने वह देखे जाते थे. वह अपना भोजन खूद पकाते थे. स्टोव और खाने के प्लेट अगले उनके चित्रों पास बिस्तर के नीचे खड़ी वह रखते थे. 63 साल की उम्र में 1978 को क्रोनिक ब्रोन्काइटिस की बीमारी से उनका निधन हो गया.
देश-विदेश में कला का प्रदर्शन
प्राग के राष्ट्रीय संग्रहालय , नईदिल्ली की नेशनल मार्डन आर्ट गैलरी, मुम्बई की ओसीएन्स कला अभिलेखागार और दुबई की जेन और ङकीट्टो डे बोअर संग्रह में उन्होंने प्रतिनिधित्व किया . प्राग,चेकोस्लोवाकिया, डेनमार्क, हॉलैंड, जर्मनी, कोपेनहेगन और अमरीका सहित दुनिया के कई देशों में उनके कामों को प्रदर्शित किया गया तथा सराहया गया.
यह लेख मूल रूप से डॉक्टर मृणाल चटर्जी ने लिखा है . इसका अनुवाद इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखा गया है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कलाम-ए-हिन्द और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंWindows-10 अभी तक Reserve की या नहीं। Windows-10 आनी शुरू हो गयी है।
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