प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाएगा- सभी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़े का आयोजन किया जाएगा, कुछ ऑंकड़ों के खेल से हिन्दी में कितना आधिक कामकाज होने लगा है, यह साबित करने की कोशिश की जाएगी.
हिन्दी दिवस : एक अवलोकन
प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाएगा- सभी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़े का आयोजन किया जाएगा, कुछ ऑंकड़ों के खेल से हिन्दी में कितना आधिक कामकाज होने लगा है, यह साबित करने की कोशिश की जाएगी, कुछ नये लक्ष्य रखे जाऍंगे, हिन्दी में कामकाज के लिए पुरस्कार दिए जाऍंगे, कुछ एक लेखन, वाक् आदि प्रतियोगिताऍं आयोजित की जाऍंगी, कहीं-कहीं कवि-सम्मेलनों का आयोजन किया जाएगा तो कहीं अन्य विविध गतिविधियों का आयोजन होगा । आपत्ति इन आयोजनों को लेकर नहीं लेकिन इसके औचित्य को लेकर अवश्य उठती है । क्योंकि जिस रस्मी तौर पर इन गतिविधियों का आयोजन होता है, उसका हश्र भी वैसा ही होता है ।
इस बार एक बहुत उम्दा घटनाक्रम की आहट प्रसन्नता दे रही है और वह है 40 वर्ष बाद भोपाल में 10वें विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन । इस आयोजन की विशेषता और महत्व का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री द्वारा किया गया है । एक तो भोपाल जैसी समृद्ध हिन्दी-उर्वरा भूमि और उस पर केन्द्रीय सरकार की गहन रुचि और सहभागिता । निश्चय ही यह अन्तर्सम्बन्ध हिन्दी के प्रगामी आयामों को नये, और अधिक सार्थक तथा सारगर्भित मायने अवश्य देगा । मैं भी बहुत आशान्वित हूँ इस बार, 40 साल पुरानी सुमधुर सुरलहिरी को नये ताल और नाद के साथ आस्वादित करने के लिए । हो सकता है सब कुछ इतना अधिक आशा के अनुरूप न हो, और नये कलेवर में पुराना सामान जैसी कुछ कड़वाहट भी साथ-साथ चली आए लेकिन फिर भी अच्छा लग रहा है इस बार, हिन्दी को उसका समुचित महत्व मिलते देखकर । एक विशिष्ट आनन्द और सुकून की अनुभूति हो रही है रह-रह कर । देखें क्या देकर जाता है यह 40 साल से प्रतीक्षित विश्व हिन्दी सम्मेलन !
GSjxn4GILvxzqsIQ7sVS
हिन्दी की अपनी ताक़त है, अपनी विशिष्टताऍं हैं, अपनी सीमाऍं हैं, अपने ही गृह-शत्रु भी हिन्दी के भाग्य में हैं । लेकिन इसके साथ ही हिन्दी का अपना जीवट है जो विश्व-बाज़ार को विवश कर देता है, उसे अपनाने को । आर्थिक बाज़ार का खजाना हिन्दी के रास्ते होकर ही आएगा, ख़ासकर भारत में, यह दुनिया को अच्छी तरह से समझ आ चुका है । समझ तो भारत में सक्रीय आर्थिक शक्तियों को भी इस नब्ज़ की आ चुकी है । फिर चाहे वह नयी तकनीक हो, मनोरंजन जगत के साथ ही हिन्दी समाचार माध्यमों का लगातार धन-बल में तब्दील होना हो या फिर सूचना क्रान्ति के नये आयाम हों, सबको अब हिन्दी बैसाखी पैरों की नहीं, बल्कि आलिंगन वाली प्रियतमा लगने लगी है ।
इतिहास को मनचाहे ढंग से सुविधाजनक रूप से शब्द या वर्ण के हेर-फेर से, जुड़े शब्द को अलग करके क्या से क्या साबित करने की कोशिश की जा सकती है, इसका विडम्बनापूर्ण उदाहरण हिन्दी से बेहतर क्या होगा । फिर कालान्तर में एक झूठ को बार-बार बोला जाए तो वह सच लगने ही लगता है । ग़ौरतलब है कि हिन्दी संसद में एकमत (unanimous) से राजभाषा बनी थी, एक मत (single Vote ) से नहीं । कालान्तर में कब यह प्रचारित और प्रसारित हो गया कि हिन्दी मात्र एक वोट से ही संसद में जीती थी, इसका क्या जवाब है । लेकिन इसके पाप के भागी हम सब भारतीय अवश्य हैं जो एक झूठ को इस तरह अपने पैर जमाते देखते रहे और आगामी पीढ़ी को हिन्दी के गौरवपूर्ण अतीत और उसके सहज सान्निध्य से वंचित करते रहे । धीरे-धीरे अंग्रेज़ी का वर्चस्व इतना बढ़ गया कि हिन्दी को हद से अधिक सौतेलेपन और उपेक्षा सहन करनी पड़ी ।
यह तो बात हुई पुरानी । लेकिन अभी भी अगर हिन्दी का जीवट पीपल और बरगद सा न होता तो आज जो हम सर्वत्र हिन्दी की स्वीकार्यता, चाहे या अनचाहे देख रहे हैं, सम्भव नहीं होती ।
किसी भी देश की कोई न कोई मुख्य सम्पर्क भाषा अवश्य होती है और यह एक ऐसा सहज विकास है सम्प्रेषण के माध्यम का, जिस पर कोई ज़ोर नहीं चलता, न सरकार का और न ही बाज़ार का । भाषा एक नदी की तरह है जो अपना रास्ता स्वयं बना ही लेती है और संस्कृति का वहन भी साथ-साथ करती चलती है । हॉं, बाहरी घटक उसकी गति और स्वरूप को प्रभावित अवश्य कर सकते हैं, लेकिन उसे समाप्त करना उन घटकों के वश में नहीं होता । भारत में निश्चय ही निर्विवाद रूप से यह स्थान हिन्दी को प्राप्त है । इसके कई प्रमाण हैं । कई घोर हिन्दी विरोधी दक्षिण के फिल्म-निर्माता वैसे तो हिन्दी में एक शब्द भी बोलना पसन्द न करें, भले ही हिन्दी-विरोधी आन्दोलनों का मुखरता से समर्थन करें लेकिन जब फिल्म बनाऍंगे तो हिन्दी में । क्यों ? भई! बाज़ार है, चीज़ तो मुनाफ़ा कमाने के लिए बनाई जाती है, भावुकता में व्यापार से समझौता तो नहीं किया जा सकता न ! ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाऍंगे जब हम साफ़-साफ़ देखते हैं कि हिन्दी को फ़ायदे के लिए तो इस्तेमाल करने की परम्परा है, लेकिन उसे भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक सशक्त, सरल, प्रवाहमयी वाहिका और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्तवाहिका मानने में हमें संकोच होता है, हमारे भाषायी अहम आड़े आते हैं । अंग्रेज़ी के पैरोकारों ने बड़ी ही चतुराई से अंग्रेज़ी को नेपथ्य में रखकर, अन्य सहोदरी भारतीय भाषाओं को ( जिनकी जननी एक ही यानी संस्कृत है ) आमने-सामने खड़ा करके रणभेरी बजा दी है और इस धर्मसंग्राम में सबकी अपनी-अपनी भावनाऍं हैं और उनके प्रति समर्पण भी । अब कौन पाण्डव पक्ष में हैं और कौन कौरव पक्ष में, यह भी तय करना मुश्किल है, सभी अपने हैं । इस खींचतान की दौड़ में अंग्रेज़ी मज़े लेकर रसगुल्ले खाती रही और हिन्दी को सूखी रोटियॉं भी नसीब होना मुश्किल हो गया था ।
वह तो शुक्र है, कि व्यापारी का सगा कोई नहीं होता, ‘न बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’ । और हिन्दी को बेमन से ही सही, लेकिन आम जन के साथ अनुकूलन के लिए अपनाना ही पड़ा । बहरहाल, कारण चाहे जो भी हों, हिन्दी के सुनहरे भविष्य के शुभ संकेत ही हैं । देखना सुखदायक रहेगा हिन्दी को प्रखरता के साथ विश्व पटल पर एक सनातन परम्परा की वाहिका के रूप में देख पाना, जो अपनी जीवनशक्ति, जननी संस्कृत से लेते हुए, अपनी सहोदराओं की विशिष्टताओं को समाहित करते हुए, बाहरी संस्कृतियों के शब्दों ( कौन सी भाषा है जो सहजता से ‘जनरेटर’ को ‘जनित्र’ में, ‘टेकनीक’ को ‘तकनीक’ में ढाल सके, सैकड़ों उदाहरण मिल जाऍंगे ऐसे) को भी सहजता से गले लगाते हुए, अपने वृहद कौटुम्बकम परिवार में शामिल करते हुए एक बड़ी बहना के दायित्व इतनी आसानी से निभाए कि भारतीय भाषाओं का कुनबा अटूट तो रहे ही, लेकिन साथ ही विदेशी संस्कृतियों के प्रभाव से आए शब्द भी अपने आपको पराया अनुभव न करें और आत्मसात हो जाऍं हिन्दी में या हिन्दी को ही आत्मसात कर लें । कोई गर्व, अहम का मुद्दा नहीं, यह तो अपार जनसमूह है, जिस भाषा के जिन शब्दों को अपनाता चलेगा, जन भाषा का शब्दकोश विस्तृत होता चलेगा, फिर क्या हिन्दी, क्या उर्दू, क्या
पुष्पलता शर्मा |
हिन्दुस्तानी और क्या संस्कृत, तमिल, तेलुगू या फिर अन्य लोकभाषाऍं या लोक बोलियॉं / उपबोलियॉं ।
मेरा एक आग्रह अवश्य रहता है कि हम हिन्दी को सरलीकृत करने के चक्कर में उसकी आत्मा से ही खिलवाड़ करने को तैयार हो जाते हैं । हिन्दी वर्णमाला में हर वर्ग का पॉंचवा अक्षर अनुनासिक होता है और वह स्वतंत्र वर्णाक्षर होता है । उसके उपयोग, उच्चारण और अर्थ का अपना वैशिष्ट्य है । आप हंस को हँस लिखेंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा । एक सीमा तक गंगा या कंचन में ‘ड.’ या ईयां के स्थान पर बिन्दी का प्रयोग मान्य किया जा सकता है लेकिन आप आधे म् ,न् या ण् के लिए भी बिन्दी का प्रयोग करें तो यह हिन्दी जानने वालों के लिए तो साधारण सी बात है पर हिन्दी सीखने वालों के साथ अन्याय है क्योंकि कब, क्यों और कैसे एक बिन्दी से आधा म, न या ण पढ़ दिया जाएगा, यह समझना मुश्किल है और हिन्दी व्याकरण की यह विशेषता ही एक कमी बन जाती है दुराग्रह फैलाने और रखने के लिए । हिन्दी व्याकरण में अपवाद न के बराबर हैं । जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है और जो पढ़ा जाता है, वही बोला भी जाता है और इसलिए देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा अब तो प्रमाणित भी हो भी चुकी है ।
ऐसी अन्य कई बातें हैं, जो अनावश्यक ही कठिनाई पैदा करती है हिन्दी की स्वीकार्यता में और उसके प्रति दुष्प्रचार को रोकने के मार्ग में भी । बातें बड़ी नहीं, सूक्ष्म हैं लेकिन इनके प्रभाव दूरगामी हैं । ऐसे ही रोड़ों को ढॅूंढकर हिन्दी के मार्ग के कॉंटों को हटाते हुए उसे सुदृढ़ करने का काम जारी रहना चाहिए । हालांकि यह बात तो तय है कि चाहे हिन्दी कितने ही विरोधाभासी भाषायी तमगे, बाहरी शब्द, व्याकरण का ढीलापन, अपने सम्पूर्ण अस्त्त्वि में अतिशय लचीलापन लेते हुए भी चलती रहे तो भी वह सदैव पल्लवित ही होती रहेगी और उसके सुनहरे भविष्य की में दूर-दूर तक मुझे कोई गतिरोध हावी होता दिखाई नहीं देता ।
यह रचना पुष्पलता शर्मा 'पुष्पी' जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्ली फिर ढिल्ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने....?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्दी अकादमी दिल्ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।
हिन्दी दिवस की शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंपुष्पलता जी,
जवाब देंहटाएंआपने लेख तो बढ़िया लिखा है.
लेकिन लोगों द्वारा वहाँ मंच से कहना कि इसके पहले साहित्यकार केवल खाने पीने ाते थे -- शायद काँग्रेस के प्रति वार करने का इरादा था किंतु सोच इतनी कतमजोर कि किस मंच से क्या कहा जा रहा है उसका ख्याल ही नहीं रहा. वैसे ही विदेश में प्रदान मंत्री कह आए कि लोग ङारत में जन्मने के लिए शर्मिंदा रहते थे. शायद हमें समय- भाषा - विचारों के तालमेल का ज्ञान नहीं है. मुझे ऐसे वक्तव्यों से बहुत शर्मिंदगी होती है. भारतीय होना और बाजपा के होने में अंतर है लोग खास तौर पर नेता ख्याल कर सकें तो बेहतर होगा.
धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ कि हम सभी को अपने विचारों में तालमेल को भाषा की सही गरिमा में ही खाँचाबंद करना चाहिए । सामान्य वक्तव्य उसी काल परिवेश में शामिल किसीअन्य गरिमामयी व्यक्तित्व की भावनाओं को आहत कर सकता है ।
तात्पर्य यही था कि जब किसी मुहिम को शासन प्रशासन का सम्बल मिलता है तो उसकी विकास की गतिशीलता में ज़मीन और अासमान का अन्तर पड़ जाता है ।