'मुर्दहिया’ आत्मकथा में अंधविश्वास मानो पूरे धरमपुर गाँव में आराम से पैर फैलाए लेटे हुए है। गाँव में हर घटना को अंधविष्वास से ही जोड़ कर देखा जाता है।
मुर्दहिया के देहाती जीवन में शिक्षा की राह
हिन्दी की जितनी दलित आत्मकथाएं है उन सभी आत्मकथाओं से डॉ.तुलसीराम द्वारा रचित 'मुर्दहिया’
आत्मकथा न केवल भिन्न है बल्कि कर्इ अर्थों में विशेष ठहरती भी है। अपने इस आत्मकथा में डॉ.तुलसीराम ने सिर्फ दलितों की पीड़ा को ही रेखांकित नहीं किया बल्कि अपने गाँव धरमपुर (आजमगढ़) के जरिए उस समय के पूरे भारतवर्ष के गाँवों को ही चित्रित कर दिया है। डॉ.तुलसीराम कहते हैं – “इसमें मेरा दर्द है, मेरे समाज का दर्द है। मेरा पूरा जीवन ही मुर्दहिया है। मुर्दहिया यानी गांव का वह कोना जहां मुर्दे फूंके जाते हैं,मुर्दहिया यानी गांव का वह हिस्सा जहां मरे हुए जानवरों के चमड़े उतारे जाते हैं।”(1) तुलसीराम द्वारा अपने आत्मकथा को 'मुर्दहिया नाम देना सिर्फ एक शीर्षक भर ही नहीं है। किसी भी रचना की आत्मा उसके शीर्षक में ही होती है। मुर्दहिया सिर्फ इस आत्मकथा का शीर्षक नहीं बल्कि मुर्दहिया तुलसीराम के गाँव धरमपुर का केन्द्र बिन्दु है। ''मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर (आजमगढ़) की बहुउद्देशीय कर्मस्थली है। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुजरते थे। इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाजार हो या मंदिर यहाँ तक कि मजदूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुजरना पड़ा था। हमारे गाँव की 'जिओ-पालिटिक्स यानी' भू-राजनीति में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केन्द्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरन तक की सारी गतिविधियां मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु में कोर्इ फर्क नहीं करती थी।”(2)
'मुर्दहिया’ आत्मकथा में अंधविश्वास मानो पूरे धरमपुर गाँव में आराम से पैर फैलाए लेटे हुए है। गाँव में हर घटना को अंधविष्वास से ही जोड़ कर देखा जाता है। उल्का पिंड का रात में टूटने को भी भूत समझा जाता है- ''लोग आंख मूंद लेते और समझ लेते हैं कि आसमान में भूत इधर-उधर दौड़ते है और जब उन्हें अपना अंधेरे में कुछ दिखार्इ नहीं देता, तब वे अपना मुँह बारते हैं, जिससे आग निकलती है।”(3) यहाँ तक कि कौआ को भी इस गाँव में अपशकुनी समझा जाता है- ''जब कभी कोर्इ उड़ता हुआ कौआ किसी को पैरों या चोंच से मार देता था, तो इसे भी अपशकुन माना जाता। यह अपशकुन इतना खतरनाक माना जाता था कि तुरंत घर के किसी व्यक्ति को सबसे नजदीकी रिश्तेदार के घर के किसी व्यक्ति को सबसे नजदीकी रिश्तेदार के घर भेजकर यह संदेश दिया जाता कि अमुख व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की खबर सुनकर रिश्तेदार औरतों का तत्काल रोना शुरू हो जाता, लेकिन शीघ्र ही उन्हें बता दिया जाता कि मृत्यु नहीं, बल्कि कौए ने चोंच मारी है। इस विधि से कौए का अपशकुन दूर किया जाता था।”(4) कौए भी धरमपुर गाँव में अपने को अपशकुनी होने से बचा न सके। अपशकुनी कौआ या कोर्इ जानवर है तो अलग बात थी पर इस गाँव में एक बालक था जो खुद अपशकुनी था और वह बालक कोर्इ और नहीं डॉ. तुलसीराम थे। बचपन में डॉ. तुलसी राम चेचक की बिमारी से जीत कर जिन्दा तो बच गए लेकिन चेचक के कारण दायी आँख का खराब हो जाना और चेहरे पर चेचक के गहरे-गहरे गड्ढे तुलसीराम को अपशकुनी बना देता है। बाहर के लोग अपशकुनी बालक तुलसी को माने तो और बाते हैं पर जब घरवाले ही इसे अपरशकुनी मान बैठे तो तुलसी किनका-किनका विरोध करेगा।
कहा जाए तो पूरा धरमपुर गाँव अंधविश्वास में डूबा हुआ है। भूत-प्रेत, झाड़-फुंक, टोने-टोटके, मौनी बाबा, पौहरी बाबा सब इस गाँव में प्यार और श्रद्धा से विद्यमान है। डॉ. तुलसीराम द्वारा रचित 'मुर्दहिया’ आत्मकथा में अंधविश्वास का विद्यमान होना सिर्फ धरमपुर गाँव का ही हकीकत नहीं है बल्कि तुलसीराम पूरे भारतीय देहातीगाँव में फैले अंधविश्वास को अपने गाँव के जरिए बताते हैं। धरमपुर गाँव के दक्षिण दिशा में दलित बस्तियों का होना भी एक अंधविश्वास ही है जिसके कारण गाँव के ठाकुर, ब्राह्मण दलितों को दक्षिण में ही रहने के लिए विवश करते थे। '' एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गाँव दक्षिण दिशा से ही कोर्इ आपदा, बिमारी या महामारी आती है। इसलिए हमेशा गाँव के दक्षिण में दलितों केा बसाया जाता था। अत: मेरे जैसे सभी लोग हमारे गाँव में इन्हीं महामारियों आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए दक्षिण की दलित बस्ती में पैदा हुए थे।”(5)
चाचा के साथ मरे हुए गाय, बैल को मुर्दहिया ले जाकर उनका खाल उतारना और खाल उतारते वक्त उनके ऊपर गिद्द्धों का हुजुम मांस के लिए झपटा मारता हुआ, सुअर का मांस खाना, पंचायत में यौन संबंधों पर निपटाते झगड़ों का तरीका, दलितों और ठाकुरों के बीच होने वाली लड़ार्इ और इन लड़ार्इयों में दलित स्त्रियों का शरीक होना जैसे भारतीय देहातीगाँव के जीवंत बिम्ब इस आत्मकथा में भरी पड़ी है।
एक तरफ धरमपुर गाँव अंधविश्वास में डूबा पड़ा है, वहीं दूसरी तरफ तुलसीराम ज्ञान हासिल करने के लिए परिवार और समाज की विपरीत परिस्थितियों से जूझता रहता है। घरवालों का, बालक तुलसी को आगे पढ़ने न देने की जिद ठान लेना और ऊपर से ब्राह्मणों का यह कहना की ज्यादा पढ़ लेने से लोग पागल हो जाते हैं जिसे सुन घरवाले तुलसी को आगे पढ़ने के लिए मना करने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियां तुलसी के ज्ञान में बाधा बनी रहती है।
इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तुलसी का ज्ञान प्राप्ति के लिए उसका जिद और अटूट विश्वास उसे इन विपरीत परिस्थितियों से लड़ने में मदद करता है। तुलसी का यह जिद और विश्वास बताता है कि इन विपरीत परिस्थितियों से लड़ने में मदद करता है। तुलसी का यह जिद और विश्वास बताता है कि किसी भी चीज को पाने की अगर चाह हो तो कोर्इ भी विपरीत मौहोल इस चाह को बदल नहीं सकता। तुलसीराम का अपने ही स्कूल के सहपाठी चिंतामणि जो ठाकुर परिवार के थे उन्हीं के घर जाकर पढ़ाना यह साबित कर देता है कि तुलसीराम अपने स्कूल का होनदार विधार्थी रहा है। स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों में क्षत्रिय छात्रों की संख्या ज्यादा थी तो उसका अपमान होना तो लाजमी था लेकिन तुलसी अपनी पढ़ार्इ के बदौलत स्कूल के अध्यापकों का चहेता बन जाता है।
'मुर्दहिया’ इसलिए अपने आप में खास ठहरती है कि इसमें शिक्षा की राह पर तुलसी का आगे बढ़ने के लिए
आनंद दास |
उसके स्कूल के हिन्दी के अध्यापक सुग्रीव सिंह ने मदद किया। तुलसी के पास दसवीं के इम्तेहान के फार्म भरने के लिए 30 रूपये भी नहीं थे और घर से भी सहायता बंद कर दी गयी थी। ऐसे वक्त में सुग्रीव सिंह ने 30 रूपये फार्म भरने के लिए तुलसी को दिया और यह भी कहना कि और भी जरूरत पड़े तो वे सहायता जरूर करेंगे। एक ऐसा समय जहाँ जाति-पाति, ऊँच-नीच का भेदभाव पूरे समाज में फैला हुआ था और ऐसे समय में सुग्रीव सिंह का दलित बालक तुलसी को पैसों से मदद कर उसे ज्ञान के क्षेत्र में आगे भेजने की सोच बहुत सम्मानीय है। सुग्रीव सिंह जैसे मुर्दहिया के पात्र उस समय के भारतीय समाज में मौजूद थे जो शिक्षा के क्षेत्र में जाति-पाति का भेदभाव नहीं रखते थे और न समाज में।
तुलसी का दसवीं का इम्तेहान प्रथम श्रेणी से पास करना मतलब पूरे उस धरमपुर गाँव का चौंक उठना। पूरे क्षेत्र के सवर्णों के मुख से ध्वनि निकालना कि ‘चमरा टाप कइलै’। तुलसी का परिणाम इसलिए और चौकाने वाला था कि इससे पहले इस स्कूल से कोर्इ भी छात्र प्रथम श्रेणी से पास नहीं किया था और तुलसी वह भी दलित तो चौकना सबका लाजमी ही था। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद तुलसी को आजमगढ़ जाकर पढ़ने के लिए कहना और 30 रूपये फिर अध्यापक सुग्रीव सिंह के द्वारा तुलसी को देना यह बात साफ जाहिर कर देता है कि समाज में ऐसे लोग भी है जो जाति से ऊँचा शिक्षा को मानते हैं और अगर किसी का आगे बढ़ने की चाह हो चाहे वह ठाकुर हो या दलित उसकी सहायता अवश्य करते हैं। सुग्रीव सिंह जैसे इंसानों की ही हमारे भारतीय समाज को जरूरत है।
डी0ए0वी0 कालेज में दाखिला लेने के बाद नर्इ चुनौतियों और नर्इ परिस्थितियों से तुलसीराम का सामना हुआ। कालेज में राजनीति का पूरा बोलबाला रहना, यहाँ तक की कालेज का चपरासी का भी आर0एस0एस0 करना। जहाँ पढ़ार्इ से ज्यादा राजनीति हावी था। अम्बेडकर के छात्रावास के मेस में खाना बंद हो जाना भी तुलसी के लिए एक जटिल समस्या थी। नौ महीने बाद छ: महीने का 162 रूपये स्कालरशीप मिलना तुलसी राम के चेहरे पर खुशी तो लाया पर यह पल भी क्षण भर में मानो टूट गया। उस समय तुलसी के सबसे गहरे दोस्त थे देवराज सिंह जो उसी के कक्षा में पढ़ते थे। देवराज अक्सर तुलसी से मिलने हास्टल जाते थे और पैसे के अभाव में भी तुलसी उनका स्वागत दुक्कू की पकौड़ी से करते थे। तुलसी को जब 162 रूपये स्कालरशीप मिला उसके बाद देवराज सिंह का तुलसी को चाकू दिखाना और उसके 162 रूपये में से 81 रूपये लूट लेना एक ऐसी सोच को दर्शाता है। जहाँ पैसे के आगे सभी रिश्ते, व्यवहार, प्यार तास के पत्तों की तरह मानों बिखर से जाते हैं। जहाँ मानवीय मूल्य पर पैसा हावी हो गया।
डॉ. तुलसी राम द्वारा रचित 'मुर्दहिया’ आत्मकथा दलित विमर्श को एक नयी रफ्तार देगी। यह सभी दलित आत्मकथाओं से अलग एक अपनी अलग पहचान बना पाने में सक्षम हो पाया है। इस आत्मकथा में वेदना, आक्रोश, उत्तेजना का उतावलापन नहीं है। यहाँ सभी चीजों को बड़ी बारीकी से पेश किया गया है। तुलसी चमरा और कनवा जैसे अपमानजनक संबोधनों से सूचित होते हुए इन सभी रूढि़वादी परिवेश के बीच से अपना रास्ता निकालते हुए ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ता है।
संदर्भ सूची
http://mohallalive.com/2010/12/02/murdahia, पृष्ठ सं-1
राम डॉ.तुलसी, मुर्दहिया, राजकमल पेपरबैक्स, पहली आवृत्ति-2014, पहला सं0-2012,नई दिल्ली, पृष्ठ सं0-05
राम डॉ.तुलसी, मुर्दहिया, राजकमल पेपरबैक्स, पहली आवृत्ति-2014, पहला सं0-2012,नई दिल्ली, पृ0 सं0-40
राम डॉ.तुलसी, मुर्दहिया, राजकमल पेपरबैक्स, पहली आवृत्ति-2014, पहला सं0-2012,नई दिल्ली, पृष्ठ सं0-48,49
राम डॉ तुलसी, मुर्दहिया, राजकमल पेपरबैक्स, पहली आवृत्ति-2014, पहला सं0-2012,नई दिल्ली, पृष्ठ सं0-41
यह समीक्षा आनंद दास जी द्वारा लिखी गयी है . आप कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी व सहायक सम्पादक (उन्मुक्त पत्रिका ) हैं .
2010 के परिपेक्ष्य में मुर्दहिया आत्मकथा में दलितों के प्रति जैसा व्यवहार दर्शाया गया है,वह तर्क हीन तथा मिथ्या प्रतीत होता है
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