रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर अरुंधती रॉय तक के प्रतिनिधि साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के द्वारा, अपने-अपने वक्त में हो रहे विभिन्न सामाजिक आराजकता के विरोध में 'तत्कालीन व्यवस्था' को सम्मान वापस की गई हैं.
‘सम्मान वापसी और बुद्धिजीवी’
रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर अरुंधती रॉय तक के प्रतिनिधि साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के द्वारा, अपने-अपने वक्त में हो रहे विभिन्न सामाजिक आराजकता के विरोध में 'तत्कालीन व्यवस्था' को सम्मान वापस की गई हैं. अबतक के इतिहास में यदा-कदा इस विधा के कई वर्णन शामिल हैं और ‘वर्तमान समय’ विरोध के इस विधा
का सबसे मुखर समय है. एक ऐसा विरोध का वातावरण बनता जा रहा है जिसमे हर क्षेत्र के 'सर्वश्रेष्ठ से सम्मानितों' का सरकार और व्यवस्था के खिलाफ रोष व्यक्त हो रहा है. और ऐसा भी नहीं है कि किसी एक विषय-विशेष पर सब सज्जन अपने सम्मान को वापस कर रहे है अपितु विभिन्न घटनाओं(बढ़ती साम्प्रदायिकता, अभिव्यकि पर लगाम, सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या, दलित अत्याचार, इत्यादि) के प्रतिरोध स्वरूप यह विन्रम आक्रोश फूटा है. धीरे-धीरे व्यापकता के ओर बढ़ता और आन्दोलन में तब्दील होते इस विरोध को, सबल करने हेतु हर स्तर के सम्मानितों ने भी अपना समर्थन देना अर्थात् सम्मान वापस करना प्रारम्भ कर दिया है. जोकि शुभ भी है. पर दूसरी तरफ अगर देखा जाए तो इस विषय के पक्ष-विपक्ष हो सकते है, नफ़ा-नुकसान गिनाये जा सकते है पर आखिर जो चिंता हमारी है और विषय से जो मूल समस्या की झलक मिलती है. बात उसी पर ही की जाए तो बेहतर है.
मैं निजी रूप से इस पूरी घटना और इसके क्रम को जब देखता हूँ तो मुझमे कोतुहलता जगती है कि इस पुरे
संजय झा |
आन्दोलन के गर्भ में क्या है? पता किया जाये। थोड़े छानबीन पश्चात् दिखता है कि अगर कुछ छुटपुट राजनीती और महत्वाकांक्षाओं को एक तरफ कर दे तो इस आन्दोलन के नींव में जो चाह है वह है ‘व्यवस्था को व्यवस्थित करना’, ‘लोकतंत्र को लोकतान्त्रिक बनाना’, ‘देश का विषयों पर ध्यान आकर्षित करवाना’, ताकि सम्यक परिवर्तन संभव हो. कमोबेश सभी सरकार एवं राजनैतिक दल भी इस तरह की बाते करती और कहती है. किन्तु, बड़ा प्रश्न यह है कि यह जो ‘भारत’ नाम का राष्ट्र है वह उपरोक्त जन्मी, पली-बढ़ी, और निरंतर घटित होती समस्याओं के मूल कारणों पर एक मत नहीं है, एक मन नहीं हैं, और सही अर्थों में मौलिक भी नहीं है. समस्त देश धारणाओं और कुप्रथा में उलझा हुआ हैं. भारतीय संविधान अगर कुछ कहता भी है तो भारतीय जनमानस को बात समझ में नही आती, सब मूल्य धरे रह जाते है. दूसरी तरफ राजनैतिक या विभागीय प्रतिनिधि जो वस्तुतः इनके बिच से ही आते है और संविधान के संवर्धक कहलाते हैं वह संविधान को आदर्श और सिध्दान्त के महज शब्द समझते है जिसपर बाते हो सकती हैं जिया नहीं जा सकता, जो सीधी-सादी बातें है उस पर चला नहीं जा सकता. बड़े मजे की बात है कि सब अव्यवस्थित हैं, नाखुश भी हैं. पर सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय और पुरुषत्व के अहंकारी आडम्बरों के आरे-तिरछे जिन्दगी को छोड़ते भी नहीं हैं.
दरअसल पूरा मामला ही बुनयाद के तरफ इशारा है और ऐसे में मेरी आत्मा तकती है देश के बुद्धिजीवियों के तरफ़ जहाँ थोड़ी समझ है, दिशा है, दर्शन है. परन्तु निराश हो जाता हूँ तब, जब यह मूल समस्या से बहुत दूर केवल गलत प्रयासों के परिणामों का पोस्टमार्टम किया करते हैं, गलत को कम गलत करने की बात करते हैं. यह ढंग बदलना होगा. देना होगा अग्रणी और बुद्धिजीवी होने का परिचय. कारण जो जड़ में छुपा है उसपर बड़े बेबाक होकर, सड़ चुके सब मान्यताओं को उघाड़ कर एक नई दिशा निश्चित करनी होगी. तब होगा बुद्धिजीवी के बुद्धि का इस देश-समाज को लाभ.
पर आज जो यह ढंग है बुद्धिजीवियों का विरोध से शुरुआत करने का, यह सभी पक्षों में द्वन्द को जन्म देगा(जोकि दे भी रहा है), आरोप-प्रत्यारोप होंगे(जोकि हो भी रहे हैं), आन्दोलन औपचारिकता बन जाएगी, और अंत में दुर्भाग्यवश राजनीती की भेंट चढ़ जाएगी. फिर एकबार नतीजा शून्य। सारी-उर्जा, सारा-समय व्यर्थ. जबकि शुरुआत पुरे राष्ट्र में छोटे-बड़े सभी बुद्धिजीवीयों के बिच बहस से होनी चाहिए, बहस को अभियान के तहत देश भर में बल मिलना चाहिए, बुनियाद पर बातचीत शुरू होनी चाहिए. और अगर केवल बहस करने भर को पूरा देश तैयार हो जाए तो समझीये एक अभूतपूर्व क्रांति घटनी शुरू हो जाएगी. फिर हम तैयार होंगे सर्वसम्मति से, तर्कयुक्त होकर, समझबूझ कर अपने निजी और सामाजिक जीवन के मूल्यों को रचने में। उन मूल्यों को जीने में. फिर व्यवस्था किसी की बपौती नहीं होगी, अनुयायी होने के जगह सब वैचारिक होंगे.
हजारों साल पुरानी व्यवस्था के लाश को झटकने की हिम्मत बुद्धिजीवी ही कर और करवा सकते हैं। साथ ही स्वछंद संस्कृति का निर्माण और सम्मान, सम्मान वापसी भर से नहीं अपितु इस बोझ से निर्भार होकर ही हुआ जा सकता है. तो शुरुआत विरोध से नहीं बहस से हो, और पूरा देश इस बहस में शामिल हो, शामिल किया जाए. और अंत में दुष्यंत कुमार कहते ही हैं कि- ‘शर्त यह है कि बुनियाद हिलनी चाहिए’!!
यह रचना संजय झा जी द्वारा लिखी गयी है . आप आजीविका वृद्धि एवं महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से प्रोजेक्ट एग्जीक्यूटिव के पद पर गैर सरकारी संस्था सृजन के साथ आदिवासी परिवारों के मध्य छत्तीसगढ़, कोरिया में कार्यरत हैं . संपर्क सूत्र - केल्हारी, कोरिया, छत्तीसगढ़। M-9098205926 Email-Sanjaykshyapjha@gmail.com.
सुंदर आलेख.
जवाब देंहटाएं