सन 2000 में प्रकाशित उपन्यास ‘समय-सरगम’ कृष्णा सोबती का मुख्यतः एक पीढ़ी विशेष पर केन्द्रित उपन्यास है। इक्कीस भाग/सर्ग/खंड की सहूलियत में विभाजित इस उपन्यास के मुख्य पात्र आरण्या और ईशान हैं। जीवन के मुहाने पर खड़े ये दो बुजुर्ग अपने जीवन के बचे हुए समय की सरगम को बाकी चिन्ताओ से परे छटक पूरी उमंग के साथ सुनने को सजग हैं साथ ही पक चुकी उम्र को जीने की सतर्कता और दिनचर्या की वाजिब सावधानी को निहायत ही संजीदगी से बरतते हुए।
समय सरगम : गुजर चुके जीवन से छनी अनुभवों की दास्ताँ
“उम्र कभी धोखे में नहीं आती। उसके पास संचित होता है जिए हुए का सत्यांश। अनुभव ... वही श्रेष्ठ है जो अपने जीने और रहने के पास है। निकट है”।1
समय अपनी गति में एक सम्पूर्ण गीत है, इसे सब अपनी-अपनी धुन में गाते है और जीते हैं। जीवन वो नहीं जो
गुजर चुका है बल्कि जीवन वो है जिसे हमने जिया है, मात्र जीने के लिए नहीं बल्कि उस पल में खुद को महसूस करते हुए, खुद को जीते हुए, भले ही वो गुजर चुके पल हमेशा ही बहुत बेहतर न रहे हों न ही याद करने लायक फिर भी हमने उन्हें जिया है और उस पल में खुद के होने की अनुभूति की है। हम समय को रोक नहीं सकते पर हर क्षण जितना नवीन है उतना ही पुरातन भी इसलिए हमें हर क्षण को जीना चाहिए, हर क्षण में जीना चाहिए। कम से कम एक पकी उम्र का व्यक्ति अपने गुजर चुके जीवन की महत्ता को ऐसे ही आँकता होगा।
सन 2000 में प्रकाशित उपन्यास ‘समय-सरगम’ कृष्णा सोबती का मुख्यतः एक पीढ़ी विशेष पर केन्द्रित उपन्यास है। इक्कीस भाग/सर्ग/खंड की सहूलियत में विभाजित इस उपन्यास के मुख्य पात्र आरण्या और ईशान हैं। जीवन के मुहाने पर खड़े ये दो बुजुर्ग अपने जीवन के बचे हुए समय की सरगम को बाकी चिन्ताओ से परे छटक पूरी उमंग के साथ सुनने को सजग हैं साथ ही पक चुकी उम्र को जीने की सतर्कता और दिनचर्या की वाजिब सावधानी को निहायत ही संजीदगी से बरतते हुए।
समय सरगम कहानी है वृद्धों और वृद्ध होते लोगों की जो इस संसार में अकेले हैं। यह अकेले होना भी कई स्तरों पर है - कुछ अकेले हैं क्यों कि उनका कोई परिवार नहीं, कुछ इसलिए अकेले हैं क्यों कि उनका परिवार उनसे दूर है और कुछ परिवार में होकर भी अकेले कर दिए गए हैं क्यों कि परिवार के लिए अब वो अतिरिक्त हो चुके हैं, उनकी कोई उपादेयता अब नहीं रही या यूँ कहें कि नई पीढ़ी की नज़र में उनकी उपादेयता या महत्व को अब नगण्य समझा जाता है।
इस उपन्यास में प्रमुख रूप से संयुक्त परिवार, परिवार में बुजुर्गों की भूमिका और वर्तमान पारिवारिक माहौल में उनकी वास्तविक स्थिति को कई प्रसंगों के माध्यम से उजागर किया गया है। दमयंती, प्रभुदयाल और कामिनी इन तीन पात्रों के माध्यम से भारतीय परिवार व्यवस्था के तीन कोणों को उजागर किया गया है और बच गया चौथा कोण स्वयं आरण्या और ईशान हैं। एक ओर दमयंती है जिसे उसके बेटे और बहू ही अपमानित कर रहे थे तो दूसरी ओर प्रभु दयाल है जो परिवार द्वारा ही मृत्यु के घाट उतार दिए जाते हैं ये दोनों ही परिवारवाले है पर एक कामिनी भी है जिसका कोई परिवार नहीं पर उसे उसके सगे भाई ही ठग रहे थे।
दमयंती जिसमे आधुनिकता के सभी गुण मौजूद हैं वह अपने ही बनाये घर में सीमित कर दी गयी है। स्वयं के बेटे-बहू द्वारा ही तिरस्कृत की गयी दमयंती सबकुछ होते हुए भी अकेली है, दुखी है ;
“मैं तुम्हारी तरह अकेली होती तो क्यों परेशान होती। बच्चे साथ रह रहे हैं। मेरे घर में मेरा किचन चल रहा है, खर्चा मैं कर रही हूँ, और मै अपने कमरे में अकेली पड़ी रहती हूँ। बिना मेरी इजाजत मेरा सामान इधर से उधर करते रहते हैं ... मैं अपने बच्चो से वैर विरोध क्यों करुँगी ! उनका भी कोई फर्ज बनता है, मैंने कुछ खाया-पिया है कि नहीं – बीमार हूँ, दावा लानी है, टेस्ट करवाना है – डॉक्टर के पास जाना है वह सब मैं अपने आप ही करूँ ! ... मै ड्राइंग रूम में नहीं बैठ सकती, मेरे मेहमान नहीं बैठे सकते जबकि वहां का सब फर्नीचर साज-सामान मेरा अपना बनाया हुआ है और मैं किसी बेजान काठ की तरह देखी जाती हूँ।” 2
बेटे द्वारा खींची लक्ष्मण रेखा को पार करने पर एक माँ सहम जाती है। आखिर यह कैसी विडम्बना है आज के समय में कि एक माँ को अपने ही घर में अपने ही बेटे से भय लग रह है और वह भी इतना की उसने आरण्या को अपने घर पर रुकने को कह दिया जैसे कोई छोटा बच्चा डर रहा हो और अपने से किसी बड़े-समझदार की आड़ चाहता हो ताकि उस शक्तिशाली बेटे की शक्ति कम भले न हो पर कम से कम संकोच की छाँव में वह बच निकले। परन्तु दमयंती का यह भय निराधार नहीं था। अगले कुछ दिनों के भीतर ही दमयंती इस माया संसार को छोड़ के चली जाती है पर स्वयं के प्राकृतिक बुलावे से नहीं बल्कि बेटे-बहू की मेहरबानी की बदौलत ही। यह है भारतीय परिवार जहाँ माँ को सबसे ऊँचा दर्जा दिया जाता था और जिसके पैरों के नीचे जन्नत की खोज की जाती थी पर शायद आजकल उस जन्नत की प्राप्ति पत्नी के पैरों के नीचे होने लगी है।
ऐसा नहीं की पति के न रहने पर मात्र बुजुर्ग विधवा माँ के साथ ही ऐसा हो रहा है बल्कि ऐसा ही हाल बुजुर्ग पिता के साथ भी किया जाता है। उपन्यास में प्रभुदयाल के माध्यम से परिवार के इस विद्रूप रूप को भी उजागर किया गया है ;
“लड़के ने सूत में पिरोई ताली गले से उतर ली। बाप का इससे बड़ा अपमान भी क्या हो सकता है।”3
प्रभुदयाल भी बुजुर्ग ही थे उन्हें भी युवाओं की तुलना में इस संसार से थोडा पहले ही जाना था पर वह भी अपने समय से पहले चले गए। पोष्टमार्टम की रिपोर्ट में गला घोटने की बात आयी। और भारतीय संस्कारों में पला परिवार, पुत्र-पुत्रवधू भला ऐसा क्यों करेंगे पर घर में दूसरा कोई आया भी नहीं। खैर ...
एक ओर कामिनी है जिसका पति और संतान की तर्ज पर कहा जाये तो कोई परिवार नहीं। वह आर्थिक रूप से समर्थ है और अकेले रहती है। पर उसके भाई हैं और यही भाई उसकी संपत्ति के लालच में उसे मृत्यु के मुहँ में ढकेलने से भी कोई संकोच नहीं करते। खुकु आरण्या और ईशान को बताती है कि कामिनी के नाजानकारी में कैसे उसके भाइयों ने उसके मकान का सौदा कर दिया और डॉक्टर भी निर्धारित कर दिया है शायद स्लो पोइज़न के लिए। ;
“साहिब मेंम साहिब का कुछ रहने वाला नहीं। भाई लोग घर बेच चुके हैं ... दो-दो डॉक्टर हैं साहिब, एक नहीं। हर मंगल को भाई लोग का डॉक्टर आता है, जैसे कहता है मैं वैसे ही करती हूँ।” 4
एक ओर वो लोग भीं इसी समाज में है जो परिवार वाले नहीं हैं। उनकी संख्या कम है पर उन्हें भी वो जो परिवार वाले हैं अपनी दृष्टि से तौलना नहीं छोड़ सकते भले ही अपने घर में अपने बुजुर्ग माँ-पिता को देखने का न समय हो न रूचि ;
“परिवार के बाहर हो जाने का कथानक और तर्क इससे बहुत अलग। अगर आप परिवार के बाहर खड़े हैं तो परिवार के मिथक भी अपनी हदों से दूर तेवर चढ़ाये घूरते रहते हैं। परिवार अब भी अंतर्संबंधो की नई-पुरानी तारीखों वाला संस्करण मात्र।” 5
यह कैसी परिवार व्यवस्था है, सभ्यता की चादर में असभ्य हो चुकी कैसी पीढ़ी है जो अपनेपन, ममत्व और भावनाओं की हत्या कर रही। क्या ऐसे माहौल में व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। व्यक्ति ऐसी पृष्ठभूमि में अपना विकास नहीं कर सकता है। आरण्या कहती है;
“व्यक्ति पनपेगा इसके बाहर की प्रयोगशाला में। उसे जुटाना होगा अपने बल-बूते पर। भ्रम है कि भरोसा।लगता है धीरे-धीरे पुराने समय वाले परिवर्तन नए में घुल मिल जायेंगे और नए पुराने पड़ते जायेंगे। सुविधाओं के सच बड़े होते जायेंगे और संबंधों के विश्वास सिकुड़ते जायेंगे।” 6
वास्तव में अब रिश्तों-और भावनाओं में महत्वपूर्ण स्थान पैसे ने लिया है। जिसके पास पैसा है वह परिवार में भी निर्णायक भूमिका निभाएगा और जिसके पास नहीं उसकी परिवार में कोई कद्र तक नहीं इसी तरह बुजुर्ग पीढ़ी शक्ति और अर्थ दोनों से क्षीण हो चुकी रहती है। इसलिए उसकी भला साख क्यों बनी रहे परिवार में। आर्थिक योगदान देने वाले की अपेक्षा न कमाने वाले की क्या स्थिति होती है, इसपर आरण्या कहती है; ,
संयुक्त परिवारों में भी परिवार का स्वामित्व व्यक्ति की उत्पादक हैसियत से जुदा है। भाई-भतीजे सगे वालों के मुंह टाक रहे हैं कि तेवर कुछ ढीलें पड़ें, गुस्सा छाने तो शायद कुछ बात बने ... परिवार की सुव्यवस्थित अस्मिता और गरिमा का मूल्य भी उन्हें ही चुकाना होता है जिनका खाता दुबला होता है। परिवार की सांझी श्री पैसे के व्यापारिक प्रबंधन में निहित है उसकी आतंरिक शक्ति कैसी हो चुकी है घनी छांह की जगह घिसी हुई पुरानी चिंदिया फरफरा रही हैं.।” 7
बूढों की अपनी ही दुनिया होती है और न भी हो तो उन्हें बनानी पड़ती है क्यों की परिवार वालों के पास न उनके लिए समय है न ही उनकी दुनिया में इनके लिए कोई स्थान.
अलग-अलग परिवारों से निकल यह बूढ़े-सयानों की टोली हर शाम इस बगीचे में आ जुटती है। घर से बाहर ताज़ी पीढ़ी की अन्तरंग शामों से अलग। बेटे-बहुओं को सहूलियत हो जाती है। घर-परिवार में अधिकार कमतर होते चले जाते हैं। आशीर्वाद के लिए नमस्कार, प्रणाम। एक संग परिवार में रहते जाने की गर्माहट का बोध और दबाव ! दोनों बुढ़ापे की यही अवस्था और यही व्यवस्था।” 8
इन परिवार वाले अनाथ बुजुर्गों से तो बेहतर है बिन परिवार के होना क्यों की ऐसे बुजुर्ग अपनी सारी शक्ति और क्षमता अपनी अवस्था की बेहतरी और सुविधा में खर्च करते हैं न की पारिवारिक तनाव और विषाद में ;
जिन वरिष्ठ नागरिकों के आस-पास परिवार नहीं – उनकी गिनती कम है जिम्मेवारियां कम हैं ... उन्हें कोई प्रतिकूल संकेत देने वाला नहीं। जब तक हैं मनमाना जिए जाओ ... परिवार से अलग-थलग अपनी आर्थिक क्षमताओं को संयम से इस्तेमाल करते हुए ‘अकेले’ भी अपने ही ढंग से अपने को संवारते जाते हैं। बहुत सी पारिवारिक चिंताओं से अपने को बचाए लिए जाते हैं, बूंद-बूंद अर्जित अपनी शक्तियां रोग, बीमारी और संकट के लिए सम्भालकर अपने में घिरे रहते हैं.” 9
अपनी दुनिया में यह बुजुर्ग एक-दूसरे के ऊपर पर्याप्त नज़र भी रखते है। शायद सामाजिक होना इसे ही कहते हैं कि हम अकेले होकर भी एक दूसरे को अनदेखा कर के नहीं जी सकते। पर वृद्धों की एक निश्चित दिनचर्या और सोच बन जाती है और वो एक दूसरे को देखकर अपनी तुलना भी कई बार करते हैं ;
सयाने अपने और दूसरों पर नज़र रखते हैं। कौन जाने के इंतजार में है , कौन पंचांग में साइत निरख अनमना-उदास हो जाता है, कौन आये दिन खयालों में अपनी लिखी वसीयत बदलता है, कौन रोज की सैर में नागा कर रहा, कौन आये दिन डॉक्टर के पास नज़र आ रहा, कौन सूर्यास्त देख कर चिंतित है, कौन ख्यालों में लिखी वसीयत में फेर-बदल कर रहा है, फ़्लैट एक लड़की के नाम कर रहा है, दूसरों को उससे वंचित कर रहा है, परिवार के संकोच में अपने रागात्मक संबंधों को अनदेखा कर रहा है, कौन क्या और कितना धर्मार्थ खाते में दे रहा है।” 10 (आखिर क्या जरुरत है वसीयत बदलने की भावना की कौन सी कोठरी में सीलन पैदा होना लगी कि मन वहां से हटने लगा??? )
फिर भी अपनों से अपमानित होते, उपेक्षा झेलते भोले बुजुर्ग परिवार का मोह छोड़ नहीं पाते, अपनों के बीच रहना ही उन्हें भला लगता है, ईशान कहते हैं ;
बच्चों की दुनिया निःसंदेह अब अलग है इसे मान लेना भी जरुरी है ... समय बदला है उसके साथ-साथ माता–पिता, दादा-दादी को भी बदलना होगा। यह तो हमेशा से होता चला आया है सिलसिला आगे-पीछे का है।”.11... बहु-बेटों की आनाकानी, आँखे चुराना, हमारी भूली-बिसरी गलतियाँ जताना-सबकुछ है गृहस्थी में, पर अपने पिछले वक्त अपने पोते-पोतियों से दादू, दद्दा, दादाजी सुनना भी कितना भला है !” 12
समय सरगम उपन्यास है ख़ुशी ढूंढने की, जो पास बचा है उसमें संतोष करने का। उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच
अभिलाषा सिंह |
निःशब्द है समय, पर इसमें भी बहुत कुछ धड़क रहा है, और उम्र ? वह बकरी बनी चर रही हैं, धीरे-धीरे. चरने दो. उस ओर मत देखो।”13
ढलती उम्र उसके जीवन जीने के ढंग को बेतरतीब नहीं बना देती बल्कि वह हर क्षण अपने को सजग किये रहती है, स्वयं से स्वयं का आत्मालोचन करती है;
“पेड़ों के तनों को देखो। सुघड़ता से जमे हैं अपनी जड़ों से ... तुम कैसे चल रही हो, और कहाँ देख रही हो ! सुदृढ़ करो अपनी चाल को। यात्रा है अप्रत्याशित संयोजन की। गति का उतना ही सनातन स्पर्श जो अपने होने और जीने से उदित होता है। ग्रह-नक्षत्रों के हिसाब से नहीं, पैरों की चाप से।”14
आरण्या अपने गुजर चुके जीवन से ऊबी नहीं। वह जीवन के बाकी बचे क्षणों में वही आकर्षण महसूस करती है जैसे वो पल किसी किशोर या नवयुवक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और यह एक सन्देश है बुजुर्ग हो चुकी पीढ़ी के लिए कि प्रकृति और समय तो नित नवीन हैं फिर हम क्यों स्वयं की जरावस्था को अपने परिवेश पर लादे। हमारे नीरस और थके पड़ जाने से समय तो थक नहीं जायेगा, वह तो अपनी कलाएं दिखायेगा ही फिर क्यों न हम भी समय के साथ ही हो लें ;
“समय तो हमारे बाहर भी है और आगे भी। वही है जो हमे आतंकित करता है ... आगे बढ़कर क्षण को पकड़ लो जो तुम्हारा है। यह शाम, यह क्षण यह बारिश लपककर हथेली में समेट लो। एक बार चूकी तो हमेशा के लिए खिसक जाएगी।”15
सुख कोई व्यक्तिगत अवधारणा नहीं।मात्र अपने जीवन में सुख होना ही सुख नहीं और न ही अपने जीवन में घिरे दुःख के बादल पूरे परिवेश पर छाये रहते है। इस संसार में केवल सुख ही है जो हमे व्यक्तिगत भावनाओं के आच्छादन के कारण कभी दिखता है तो कभी दुःख में डूबा दिखता है जबकि व्यक्ति के लिए समय का औचित्य उसके जीवन जीने में निहित है। अगर शरीर में जान नहीं तो यह सुख-दुःख, धरती-आकाश, अपने-पराये, भूत-भविष्य आदि हमारे लिए कोई मायने नहीं रखत। हम जीवित है यही समय की सबसे बड़ी उपलब्धि है ;
“सुख है क्यों की हवा है
धूप है
जल है
आकाश निर्मल है
देह में धड़कती साँस है
अभी भी जीने के भीतर है सब
जब बाहर हो जायेंगे
शेष हो जायेंगे
तो भी किसी न किसी अंश में
स्वरुप में स्मृति रहेगी।
न रहेंगे हम तो भी इस धरती के सन्नाटों के साथ बहेंगे-
स्मृति के पास रहेंगे
घूमते रहेंगे शिखरों पर–
घाटियों तालों नदियों और झरनों पर-
हम यहीं बने रहेंगे।”16
इसलिए जो समय बचा है उसे अपनी सारी ताकत के साथ ही जीना होगा। अच्छे-बुरे हर पलों को हमे समय में पिरोना होगा। जो वाजिब है उसे साथ लेकर और जो छोड़ जाने की जरूरत में है उसे छोड़ देने पर ही इस जीवन का आनंद लिया जा सकेगा। कृष्णा सोबती इस उपन्यास के माध्यम से यही संदेश देती है समय के साथ चलना होगा अन्यथा समय आगे निकल जायेगा और हम पीछे रह जायेंगे। जीने की अदम्य जिजीविषा और संतोष की कथा है समय सरगम . समय जो जीवन के हर रंग को लेकर चलता है। हमे हर रंग से रंगना चाहिए तभी समय का महत्व समझ में आएगा – दुःख के भोग के बाद ही सुख का आनंद मिलेगा, वियोग के बाद ही मिलन की तृप्ति समझ आएगी, अधूरेपन के बाद ही पूर्णता का भान होगा इसलिए;
समय सरगम
समय एक राग
नहीं. समय में निबद्ध हैं अनेक राग अनेक बंदिशें
समय बहाने-बहाने सम्मोहित करता है। उदास करता है। अन्दर का पाखी उड़ान के लिए फड़फड़ाता है ...
आदिम, षडज और निषाद
पहला स्वर आदिम स्वर। जन्म स्वर
षडज, तरुणाई स्वर
निषाद, इस मानवीय आख्यान का अंतिम स्वर
बचपन, यौवन और यह पकते हुए मौसम का सूर निषाद
जब तक हो इन्हें गुथें रहने दो
तभी है यह सरगम
समय सरगम।”17
धन्यवाद
सन्दर्भ सूची
1. पृष्ठ संख्या- 121 , समय सरगम, कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2008, आवृत्ति- 2012
2. वही, पृष्ठ संख्या- 74
3. वही, पृष्ठ संख्या- 110
4. वही, पृष्ठ संख्या- 99
5. वही, पृष्ठ संख्या- 92
6. वही, पृष्ठ संख्या- 92
7. वही, पृष्ठ संख्या- 64
8. वही, पृष्ठ संख्या-...
9. वही, पृष्ठ संख्या- 108
10. वही, पृष्ठ संख्या- 91
11. वही, पृष्ठ संख्या- 82
12. वही, पृष्ठ संख्या- 90
13. वही, पृष्ठ संख्या- 15
14. वही, पृष्ठ संख्या- 16
15. वही, पृष्ठ संख्या- 17
16. वही, पृष्ठ संख्या- 139
17. वही, पृष्ठ संख्या- 153
यह समीक्षा अभिलाषा सिंह जी द्वारा लिखी गयी है . आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, उ० प्र० में शोध छात्रा (हिन्दी विभाग) हैं . संपर्क सूत्र - Singh.abhilasha39@gmail.com
COMMENTS