आज हमारे साहित्यकरों को न जाने क्या हो गया है ? किसका मुँह देख लिया सुबह ,सुबह I जो सम्मान लौटाने की कगार पर बैठे हुए हैं I साहित्य समाज का अभिन्न अंग है,साहित्यकार दर्पण बनकर अच्छाइयाँ प्रकट करते हैं तथा लोगों को बुराइयों से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं I खुद ही न जाने क्यों दर्पण पर ? कालिमा पोतने में लगे हुए हैं,न इसे खुद देख सकते हैं न कोई समाज का नागरिक I
पुरस्कार अभी बाकी है
आज हमारे साहित्यकरों को न जाने क्या हो गया है ? किसका मुँह देख लिया सुबह ,सुबह I जो सम्मान लौटाने की कगार पर बैठे हुए हैं I साहित्य समाज का अभिन्न अंग है,साहित्यकार दर्पण बनकर अच्छाइयाँ प्रकट करते हैं तथा लोगों को बुराइयों से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं I खुद ही न जाने क्यों दर्पण पर ? कालिमा पोतने में लगे हुए हैं,न इसे खुद देख सकते हैं न कोई समाज का नागरिक I
जब भी सुबह मेरी आँख खुली,नींद उडी सामने अख़बार पाया I अख़बार में वही खबरें अजीब ढंग से I आज इस साहित्यकार ने पुरस्कार लौटा दिया,कल वह लौटाने वाला है,वगैरह..वगैरह ...I
अशोक बाबू माहौर |
पुरस्कार लौटाने की होड़ में बेचारे निम्न वर्ग के साहित्यकार घुन की तरह पिस रहे हैं I वे न हाँ कह सकते और और न I उनके अंदर जरूर आभाष उमड़ता होगा पुरस्कार लौटाना अच्छी बात नहीं हैं I
आज हमारा व्यक्तत्व ही बदल गया,परिभाषा बदल गई I हम क्या थे ?क्या हो गए ?बाहर की बुराइयाँ हमें लगातार सताए जा रही हैं,सुई की तरह चुभती जा रही हैं I हम लगातार उसी पथ पर दौड़ते,हाँफते चला रहे हैं I झाड़ झकूटे,असंख्य घासें पेड़ लाँगकर I
हमने कितनी रचनाएँ कर डालीं,किताबों के ढेर लगा डाले I साहित्य के दम पर सम्मान प्राप्त किये I भीड़ में अपनी अलग पहचान,नाम रोशन किया I आज उसी नाम को मटमैले पथ पर घसीटते हुए दबाये जा रहे हैं I मंजिल ढूँढते बौखलाते,परेशान,पसीने में चूर I बाज की तरह हम पर हमला करने के लिए बैठे हैं हजारों कलमें,दिमागों के अम्बार I
चारों तरफ साहित्यकारों की चर्चाएँ आम हो गई हैं I हर वर्ग समाज हम पर उंगलियाँ उठाने के लिए बेताब हैं I शायद कहीं हम अपनी छवि धुंधली न कर बैठे I कलम से निकले शब्द, न रूठ जाएँ I हम मजबूर पंछी की तरह किसी डाली पर बैठे दुनिया ताकते रह जाएँ I
खैर:अब भी वक्त है हमें एक जुट होकर स्वर साधने होंगें I दिनचर्या बदलनी होगी I पुरस्कार लौटाने की परिभाषा समझनी होगी I आपे से बाहर निकलकर खामोशियाँ दागकर अचंभित व्यक्तव निखारना होगा I पुरस्कार लौटाने में हमें फायदा है या नुकशान I
पुरस्कार लौटाना शायद किसी के लिए मजाक बनकर न रह जाये और हम बेजुबान साहित्यकार बैठे किसी तट पर कुरेदते मिटटी I हम पर कहीं हँस न बैठे वन मंडल में घूमती हवाएँ I
मैं आज भी अचंभित हूँ I हम पर फैशन रुपी शब्द का प्रहार क्या जा रहा है जिसके मन में आये वही शब्द बके जा रहे हैं I कहीं हमारा निखार ही हम पर न बोल उठे और हम दांतों तले उंगली दबाकर,आँखे घूरते रह जाएँ I कोई साहित्यकार पुरस्कार दबाकर न बैठ जाए,अंत में यही शब्द सुनने को मिले I पुरस्कार अभी बाकी हैं I
यह रचना अशोक बाबू माहौर जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है . आप लेखन की विभिन्न विधाओं में संलग्न हैं . संपर्क सूत्र -ग्राम - कदमन का पुरा, तहसील-अम्बाह ,जिला-मुरैना (म.प्र.)476111 , ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com
अशोक बाबू, आप खुद रचनाकार हैं. फिरआप जानते ही हैं कि पुरस्कार मिलना कितना आसान या कितना मुश्किल है. फिर उसका लौटाया जाना उनके लिए भी कितना दुखद है. इन सबके बावजूद कोई उसे लौटाएतोउसकाकोी कारण तो होगा. मेहनत मशक्कत से मिली चीज को कोई बेकार क्यों लौटाएगा. उसके पीछे का दर्द शायद आप समझ नहीं पा रहे हैं या फिर आप भी भक्तों में शामिल हैं. सचाई आपको ही पता होगी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय अशोक बाबू माहौर जी जैसा कि समाज जानता है किसे सम्मान मिलता आया है।मैने प0 जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक में श्री मती इंदिग जी को लिखे पत्र मेंकि भारत के साहित्यकार की कीमत बाद में आकी जाती है जो दुखद space-----'।फिल हाल देश कुछ मंडली से जकडे ही कहा जा सकना अनर्गल अलाप नहीं कहा जा सकेगा।
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