स्वर्ग के दरवाजे पर जैसे ही प्रतिष्ठित हिन्दू धर्मात्मा पहुँचे तो चित्रगुप्त उनके सम्मानार्थ उठ खड़े हुए
स्वर्ग का सौन्दर्यीकरण
स्वर्ग के दरवाजे पर जैसे ही प्रतिष्ठित हिन्दू धर्मात्मा पहुँचे तो चित्रगुप्त उनके सम्मानार्थ उठ खड़े हुए और पूछा, ‘स्वागत महोदय! आप स्वर्ग के किस स्थान पर रहना चाहेंगे?’
हिन्दू धर्मात्मा ने कहा, ‘ऐसी जगह जहाँ भव्य मंदिर हो।’
यह सुन चित्रगुप्त असमंजस में पड़ गये क्योंकि पूर्ण स्वर्ग ही तो ईश्वर का स्थान है। यहाँ उनके लिये अलग से कहीं मंदिर होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वे बिचारे क्या करते? उन्होंने उन महात्मा को प्रतीक्षाकक्ष में बिठा दिया।
तभी एक प्रतिष्ठित ईसाई स्वर्ग के दरवाजे पर आ गये। चित्रगुप्त ने उनसे भी आदरसहित वही प्रश्न किया तो उन्होंने भी ऐसी जगह माँगी जहाँ भव्य गिरजाघर बना हो। चित्रगुप्त ने उन्हें भी प्रतीक्षाकक्ष में बिठा दिया। उस दिन एक के बाद एक प्रतिष्ठित धर्मात्मा आने लगे। कोई सिक्ख थे तो कोई मुस्लिम तो कोई बौद्ध आदि। चित्रगुप्त सभी से वही प्रश्न करते तो उनका उत्तर पाकर पशोपेश में पड़ जाते। सिक्ख धर्मात्मा ने गुरुद्वारा के पास रहने की इच्छा बताई, तो मुस्लिम धर्मात्मा ने मस्जिद के पास, बौद्ध धर्मात्मा ने मठ के पास, आदि। इन सब को सादर प्रतीक्षाकक्ष में बिठाकर चित्रगुप्त ने ईश्वर के पास जाकर सविस्तार अपनी समस्या बतायी और कहा, ‘हे प्रभु! अपने इस स्वर्ग में मंदिर, गिरजाघर, गुरुद्वारा, मस्जिद, मठ कुछ भी नहीं है। अब आप बताईये कि इन धर्मात्माओं को कहाँ जगह दी जावे?’
ईश्वर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘इसमें चिंता की क्या बात है? प्रतीक्षाकक्ष से लगे उस विशाल व भव्य कक्ष में भेज दिया जावे जहाँ मघ्य में एक बड़ी मेज रखी है। बाकी सब व्यवस्था के लिये मैं विश्वकर्मा जी को बता देता हूँ।’
ईश्वर का आदेश पाकर चित्रगुप्त उन सब को बड़े कमरे में ले गये। एक विशाल मेज के चारों ओर रत्नजड़ित कुर्सियाँ रखी थीं। मेज पर मंदिर, गिरजाघर, गुरुद्वारे, मस्जिद आदि की भव्य प्रतिकृतियाँ रखी थी और उनसे निकलती स्वर्ण किरणों से सारा कक्ष दैदिप्यमान हो रहा था।
अपने-अपने धर्मस्थलों का यह द्दश्य देख सभी धर्मात्मा अत्यंत प्रसन्न हो उठे। पर जैसे ही उन्होंने अपने बगल में दूसरे धर्म के महात्मा को बैठे देखा तो उनकी भोंहें खिंच गईं, ‘ये क्या मजाक है, महोदय?’ सब एक साथ चित्रगुप्त पर गरज पड़े।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
चित्रगुप्त ने हाथ जोड़कर कहा, ‘आपके चाहे अनुसार ही यह व्यवस्था स्वयं ईश्वर ने की है। फिर भी आप क्रोधित हो रहे हैं।’
यह सुन एक-एक कर सभी धर्मात्माओं ने कहा, ‘ठीक है, पर क्या इस मेज को काटकर हमारे धर्मस्थलों का भाग हमें अलग-अलग कर नहीं दिया जा सकता?’ चित्रगुप्त जानते थे कि इस तरह मेज के टुकड़े होने से सारी भव्य प्रतिकृतियाँ गिरकर टूट जावेंगी। अब क्या किया जावे? यह विचार आते ही चित्रगुप्त दौड़कर ईश्वर के पास गये और अपनी समस्या उनके सामने व्यक्त की। ईश्वर मुस्करा उठे और कहने लगे, ‘चित्रगुप्त! उनसे कहो कि अलग-अलग धर्म के इससे भी सुन्दर दिखनेवाले कक्ष नरक में बने हैं और उन्हें वहाँ भेजने की व्यवस्था भी की जा सकती है। फिर जो घटित हो उसकी सूचना मुझे देना।
यह सुनकर कि इससे भी सुन्दर दिखनेवाले अलग-अलग कक्ष उन्हें मिल सकते हैं, सारे धर्मात्मा खुशी से झूम उठे। ईश्वर के आदेशानुसार सबको यथा स्थान भेज कर उदास मन से चित्रगुप्त ईश्वर के पास आये और कहने लगे, ‘हे प्रभू! अब उस भव्य कक्ष को सूनसान देखकर मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। कुछ उपाय बतायें, प्रभू!’
ईश्वर ने कहा, ‘कोई चिंता करने की आवश्यकता नही है। हम उस कक्ष का नाम ‘भारत’ रख देते हैं क्योंकि वह वर्तमान भारत का प्रतिरूप (replica) ही तो है। यह कक्ष आगंतुकों का आकर्षण का केन्द्र होगा। ऐसा लगेगा कि ‘वर्तमान भारत’ वह यह पवित्ररूप उठकर हमारे स्वर्ग में आ गया है और तो और इससे स्वर्ग के सौन्दर्य में और भी निखार आ जावेगा।’
यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
COMMENTS