भाषा का ज्ञान पूरा तभी माना जाता है जब उसे भाषा के व्याकरण पर विशेष पकड़ हो. सही में कोई भी लेख , कविता , निबंध या कोई भी अन्य रचना मनोरम तभी हो पाती है जब उसमें व्याकरण की त्रुटियाँ न हों.
व्यावहारिक हिंदी
भाषा का ज्ञान पूरा तभी माना जाता है जब उसे भाषा के व्याकरण पर विशेष पकड़ हो. सही में कोई भी लेख , कविता , निबंध या कोई भी अन्य रचना मनोरम तभी हो पाती है जब उसमें व्याकरण की त्रुटियाँ न हों. इन सबके बावजूद भी कई बार संदर्भानुसार वातावरण की बोली का भी प्रयोग करना जरूरी हो जाता है, जो कहानी, कविता या लेख को उसका उपयुक्त वातावरण प्रदान करती है. जिससे कहानी प्रवाहमयी हो जाती है. वैसे कविता में व्याकरण का बंधन तो कम है किंतु उसमें अलंकारों का महत्व बढ़ जाता है.
इन सबके बावजूद भी हिंदी में कई ऐसे व्यावहारिक पद समा गए हैं जो अक्सर सुनने में आते हैं. कभी कभी लेखन में भी दीख पड़ते हैं. पर वे व्याकरण व सटीकता की दृष्टि में खरे नहीं उतरते.
उदाहरण के तौर पर बहुत ही प्रचलित वाकया लीजिए... रेलगाड़ी में सफर करते वक्त कोई सहयात्री पूछ ही लेता है - भाई साहब फलाँ स्टेशन कब आएगा ? पूछने वाला शख्स व जवाब देने वाला दोनों जानते हैं कि सवाल व्याकरण की दृष्टि से व्यवहारिक सही नहीं है. लेकिन जवाब दिया जाता है कि भाई जी फलाँ बजे के लगभग आएगा. रेल चल रही है, स्टेशन अपनी जगह पर है किंतु सवाल ऐसे ही पूछा जाता है और जवाब भी ऐसे ही दिया जाता है. भले ही गलत हो किंतु अब यही रवैया नियम बन गया है. ऐसे ही पूछना है और ऐसे ही जवाब देना है.
यदि राह में कोई साथी थैले में कुछ लटकाए जाते मिल गया और आपने पूछ लिया कि यार कहाँ जा रहे हो .. संभवतः जवाब होगा – आटा पिसाने / पिसवाने जा रहा हूँ. आप भी वाकिफ हैं और आपका दोस्त भी, कि पिसाना आटा को नहीं गेहूँ को है फिर भी वह ऐसे ही जवाब देगा और आप ऐसे ही समझते जाएंगे. उस चक्की को जहाँ गेहूँ पीसा जाता है गेहूँ चक्की नहीं बल्कि आटा चक्की कहते हैं. सबको समझ ठीक आ जाता है. मेरी समझ से यह त्रुटिपूर्ण होते हुए भी इतना व्यवहारिक हो गया है कि इसी तरह सभी सही अर्थ समझ जाते हैं. सौहार्द्र, ब्रह्मा, शृंगार (श्रृंगार), चिह्न (चिन्ह) कुछ ऐसे ही शब्द हैं जिनकी त्रुटिपूर्ण लिपि भी लोगों को सही समझ में आ जाती है.
प्रकृति के परिवर्तनशीलता के नियमाँतर्गत ही भाषा भी परिवर्तित होती रहती है
इसी कारण भाषा ने प्राकृत से हिंदी खड़ी बोली तक का सफर तय किया. यह केवल हिंदी के साथ ही नहीं बल्कि विश्व की सभी भाषाओं के साथ हुआ है और होता भी है. इसी परिवर्तन के दौर में हिंदी के कई भ्रामक शब्द व तौर तरीके इसमें घर किए जा रहे हैं. यदि व्यावहारिकता में बह गए, तो ये ही कल रूढ़ शब्द बन कर साहित्य में समाएंगे. यही नियम है. इसकी गति को रोकना किसी के बस में नहीं होता. प्रिंट मीडिया इन शब्दों के रूप विशिष्ट पर जोर देकर सही पद के प्रयोग को बढ़ावा दे सकती है.
उदाहरण के तौर पर शब्द ‘कापड़िया” यानी कपड़ेवाला. अक्सर यह कपाड़िया हुआ जाता है. कपड़ा से कापड़िया के बदले लोग कपाड़िया का उच्चारण शायद आसानी से कर लेते हैं. ऐसे ही एक नाम है डिंपल कपाड़िया.
इसी तरह माँकड़ शब्द मनकड़ (वीनू मनकड़-अशोक मनकड़),
एक शब्द है अभयारण्य – अरण्य जिसमें भय न हो. अक्सर वन्य जीवों को यह सुविधा प्रदान की जाती है कि वे किसी वन विशेष में बिना किसी भय के विचरण कर सकें. हमारे साथी उच्चारण की गलतियों के कारण इसे अभ्यारण्य कहते व लिखते हैं. जो गलत है. उनके साथियों को चाहिए कि इसमें सुधार करें और उन्हें सही कहना लिखना सिखाएं. छोटी उम्र में तो चल जाता है किंतु आगे बढ़कर इस तरह की गलतियाँ कष्टकारी हो सकती हैं.
हृषि कपूर शब्द बदलते बदलते ऋषिकपूर हो गया है और रिषि कपूर होने के काफी करीब है. ऋतु (मौसम) बदलकर रितु हो ही गया है. बहुत सारी लड़कियाँ अपना नाम रितु ही लिखती हैं या लिखना पसंद करती है . हो सकता है कि इसका कारण ऋ लिखने की दुर्गमता ही हो. वो दिन दूर नहीं जब लोग हृषि कपूर को रिशि कपूर भी लिखेंगे. व्यावहारिक तौर पर यह स्वीकार्य भी हो जाएगा.
शब्द बहुल व बाहुल्य की आपस में भिन्नता का ज्ञान न रखने वाले इन्हे आपस में बदलने में कोई हर्ज महसूस नहीं करते. बाहुल्य एक संज्ञा है और बहुतायत को दर्शाता है जबकि बहुल एक विशेषण है और अधिकता को सूचित करता है.
रंगराज अयंगर |
वैसे ही फारसी कागज शब्द दस्तावेज (Document) के अर्थ में बहुवचन कागजात बन जाता है. जबकि व्यवहार में लोग कागजातों शब्द का प्रयोग करते हैं जो गलत है.
उत्तम शब्द के साथ उत्तमतर व उत्तमोत्तम शब्द चलते हैं किंतु बहुत उत्तम व अति उत्तम, सर्वोत्तम शब्दों का भी प्रचलन है. वैसे ही किसी के आवभगत के लिए आने वाले के लिए – ‘आगत’ शब्द का प्रयोग होता है. अब आदत सी बन गई है कि हर कार्य में शुभेच्छा जोड़ी जाए तो उसे सु - आगतम कर दिया जो स्वागतम बन गया. लोगों को इससे तसल्ली नहीं हुई तो और अच्छे स्वागत की सोचे और एक और सु आगे लगा दिया. अब यह हुआ सु – स्वागतम. जरा सोचिए आप चार सुसु लगा दीजिए तो क्या आवभग बढ़ जाती है. अरे भई स्वागत ठीक ठाक कीजिए स्वागतम ही सब कुछ सँभाल लेगा. इन सुसु - आगतम से कुछ होने वाला नहीं है – भाषा बिगाड़ने व चापलूस कहलाने के अलावा.
इसी कड़ी में एक बात और भी है 108 श्री तिरुपति वेकटेश्वर बालाजी. यहाँ 108 का क्या तात्पर्य रहा. क्या यह चापलूसी की हद नहीं है. श्री मतलब ही संपदा, ऐश्वर्य, मान मर्यादा है. 108 का मतलब की उनका ऐश्वर्य व मान मर्यादा 1089 गुना है. यहाँ किसका किसके साथ होड़ चल रहा है. सारे ही भगवान माने जाते हैं तो सब बराबर क्यों नहीं. इन अंध धर्मगुरुओं के पीछे ऐसी हरकतें करते रहेंगे तो लोग भक्त नहीं मूर्ख समझेंगे और उस भगवान को क्या समय लगने वाला है, आपके कर्मों को जानने में. हम भाषा में ऐसे प्रयोग को वर्जित करें. सुनने में तो आया है कि फलाँ जाति के लोग तीन श्री लगाते हैं तो हमारे जाति में पाँच श्री तो लगने ही चाहिए और ऐसी प्रथा शुरु की गई है.
फुट का बहुवचन फीट व फुटों दोनो चल रहे हैं. यानि उस भाषा से व्याकरण भी साथ लेते रहे हैं. इस पर गूढ़ विचार जरूरी है अन्यथा हिंदी भाषी को न जाने कितने व्याकरण पढ़ने पड़ेंगे और यदि कहीं कोई टकराव रहा तो अजीबोगरीब स्थति पैदा हो जाएगी.
यह तो एक उदाहरण मात्र के लिए लेख है ताकि लोगों की दृष्टि को इस तरफ मोड़ा जाए और ध्यानाकर्षण हो. ऐसे अनेकों उदाहरण होंगे जिन्हें पाठकगण खुजद ही खोज समज लेंगे.
आशा है कि यह लेख ध्यानाकर्षण के मेरे मंतव्य को पूरा करेगा. इस लेख के लिए प्रेरणा श्री एम. एस सिंगला जी द्वारा प्राप्त हुई जिनका मैं आभार व्यक्त करता हूँ.
---------------------------------------------------------------------
यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर.8462021340,वेंकटापुरम,सिकंदराबाद,तेलंगाना-500015 Laxmirangam@gmail.com
बहुत ज्ञानवर्धक और रोचक तथ्य बताए हैं आपने | मुझे ये मालूम नहीं था |
जवाब देंहटाएं