मंतव्य

SHARE:

सुबह सवेरे श्याम बाबू ने अखबार पढ़ा। उसमें एक विज्ञापन था जो उनके मतलब का था। शहर की ही एक संस्था ने सामाजिक समस्याओं को इंगित करने वाली रचना को 25 हजार नकद और प्रशस्ति पत्र के साथ सम्मानित करने का विज्ञापन दिया था।

मंतव्य


I
सम्मान
सुबह सवेरे श्याम बाबू ने अखबार पढ़ा। उसमें एक विज्ञापन था जो उनके मतलब का था। शहर की ही एक संस्था ने सामाजिक समस्याओं को इंगित करने वाली रचना को 25 हजार नकद और प्रशस्ति पत्र के साथ सम्मानित करने का विज्ञापन दिया था।
श्याम बाबू एक बुजुर्ग साहित्यकार थे। काफी संख्या में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिख चुकने के बाद भी अभी तक पुरस्कारों से वंचित थे। लगभग उन तमाम विषयों पर जिन पर उन दिनों पुरस्कार देने का रिवाज था उन्होंने लिखा और अच्छा लिखा। पर पैठ के अभाव और विरासत में लेखन न पाने के कारण किसी की नजरों में आए नहीं। अपने लेखन की यौवनावस्था में वे इस सबके लिए लालायित रहते थे। परन्तु कुछ भी न पाने के कारण वे विगत आठ-दस साल से इस संबंध में उदासीन हो गए थे। वे विज्ञापन पढ़ते अवश्य थे। उसे सम्भाल कर भी रखते थे। पर आवेदन नहीं करते थे। हाँ, परिणाम को अवश्य देखते थे। फिर सम्मानित के जीवन वृत्त और रचनाओं के स्तर की चर्चा महीनों अपनी मित्र मण्डली में करते रहते थे। आज भी जैसे ही उनकी नजर विज्ञापन पर पड़ी उन्होंने उसे सहेजकर रख लिया। दो दिन बाद उनके मित्र राजेश पधारे। दोनों चाय पीते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे। कुछ देर बाद राजेश बोले- “श्याम तुमने तुलसी देवी साहित्य संस्था का विज्ञापन देखा?”
“देखा”
“प्रविष्टि भेजी।”
“नहीं।”
“क्यों।”
“अब तक कम भेजी हैं क्या?”
“अब तक का छोड़ों। इधर इन संस्थाओं के पास पैसा आया है और थोड़ा रूझान भी बदला है। फिर अपने शहर की बात है कोई न कोई संपर्क मिल सकता है। अभी जो तुम्हारा खण्ड काव्य आया है जिसमें तुमने समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट करने के तुलसी के प्रयासों पर लिखा है उसी को भेज दो। वह विज्ञापन के अनुरूप है।”
श्याम बाबू चुप सुनते रहे और राजेश उन्हें देर तक समझाते व उत्साहित करते रहे। कुछ देर में वे चले गए और जाते-जाते श्याम बाबू को एक बार फिर प्रविष्टि भेज देने को कह गए।
श्याम बाबू पिछले छः महीने से एक उपन्यास में उलझे थे। दिन रात उसी का ताना-बाना बुनते रहते। उसी से प्रविष्टि भेजने का मन न बना। एक दिन राजेश का फोन आया। फोन श्याम बाबू के बेटे अखिल ने उठाया। राजेश ने पुरस्कार के लिए प्रविष्टि भेजने की बात की। अखिल ने जवाब दिया कि “पिता जी अब इन सब चक्करों में नहीं पड़ते। फिर चाचा जी आप तो जानते ही हैं कि कोई लाभ नहीं है। निराशा ही हाथ लगती है।”
राजेश- “देखो इस बार बहुत से ऐसे लोगों को सम्मान मिल गए हैं जिन्हें पहले कभी नहीं मिला। मैं कह रहा हूँ प्रविष्टि भिजवा दो। उम्मीद है इस बार काम बन जाए। वहाँ कार्यालय में मेरे छोटे बेटे का एक मित्र कार्य कर रहा है। उससे कोई न कोई रास्ता निकल आएगा। यूँ निराश होने से कुछ हासिल नहीं होता।”
अखिल ने उन्हें पिताजी को समझाने का आश्वासन देकर फोन रख दिया। उसने श्याम बाबू को राजेश जी का संदेश दिया। उन्होंने कोई दिलचस्पी न ली। चार छः दिन बाद अखिल और श्याम बाबू बैठे बातें कर रहे थे कि सम्मान और पुरस्कार की चर्चा छिड़ गई। अखिल को याद आया कि पिता जी ने अभी तक प्रविष्टि नहीं भेजी है। उसने श्याम बाबू से कहा- “पिता जी आप अपनी प्रविष्टि आज भेज दें। कहीं देर न हो जाय।”
“अरे तुम भी राजेश की बातों में आ गए। पुरस्कार देना क्या उसके हाथ में है।”
“हाथ में न सही पर वे कोशिश तो करेंगे। आप किसी की बात सुनते क्यों नहीं हैं?”
“कौन सा बड़ा पुरस्कार है। पच्चीस हजार रूपये और दो कौड़ी की संस्था का प्रशस्ती पत्र। तुम्हें पैसे की जरूरत है तो मेरे एकाउण्ट से ले आओ। मैं अपमानित होना नहीं चाहता।”
“पैसे का सवाल नहीं है पिताजी। इतना पैसा तो मैं भी आपको दे सकता हूँ। पर जरा सोचिए आपकी उम्र अस्सी पार कर रही है और एक भी सम्मान आपके नाम के साथ नहीं जुड़ा है। खाली काम को कोई नहीं बूझता है। उसकी मान्यता होना भी जरूरी है। फिर इतना तो निश्चित है कि हमारे ऐसे संबंध नहीं हैं कि हम बड़े सम्मान पा सकें। जहाँ उम्मीद है उसे हम छोटा मानकर छोड़ दें तो कैसे काम चलेगा? आप एक बार प्रविष्टि भेज दीजिए बस। बाकी मैं खुद देख लूंगा।”
एक दो दिन बाद श्याम बाबू ने शांत मन से सोचा। उन्हें अखिल और राजेश की बातों में सार नजर आने लगा। यह बात सही थी कि इस बार कुछ ऐसे लोग बड़े पुरस्कार पा गए थे जिन्हें उनके काम के लिए अब से काफी पहले ये पुरस्कार मिल जाने चाहिए थे। चलो नाम के साथ कुछ तो सम्मान जुड़ा। मृत्यु शैया पर मिला आधा-अधूरा सम्मान भी आत्मा को बड़ा सुकून देता है। यही सब विचार कर श्याम बाबू ने अखिल को यह कहते हुए कि वे उसकी और राजेश की खुशी के लिए ही भागीदारी कर रहे हैं अपनी प्रविष्टि भेज दी।

II 
बापू, बाड़ा, बकरी

एक दिन बाद साहित्यिक पुरस्कार का विज्ञापन सुभाष ने पढ़ा। उसका चेहरा खिल उठा। उसने विज्ञापन वाला पन्ना मोड़ कर जेब में रख लिया और गुनगुनाता हुआ अपने काम में जुट गया। सुभाष लगभग अट्ठारह साल का नवयुवक था। वह एक प्रिटिंग प्रेस में विगत आठ साल से काम कर रहा था। आरंभ में सफाई करने, पानी पिलाने और छोटे मोटे सामान इधर-उधर पहुँचाने का काम करता था। उसकी होशियारी और लगन को देखकर मैनेजर ने दो साल पहले उसके काम और वेतन में तरक्की कर दी थी। उसने एक साइकिल भी खरीद ली थी। अब वह आर्डर लाने, सामान लदवाकर सही जगह पहुँचाने तथा औरों से काम करवाने का काम करता था। परन्तु सुबह मैनेंजर साहब की मेज कुर्सी झाड़ने, उनके पानी का जग, गिलास साफ कर रखने और पुराना अखबार हटाकर ताजा अखबार रखने का काम वह स्वेच्छा से करता था। इसी दौरान वह दस मिनट का समय निकाल कर सरसरी निगाह से एक बार अखबार पढ़ लेता था। ऐसे विज्ञापन का उसे महीनों से इंतजार था। अतः विज्ञापन मिलते ही वह खुश हो गया। उसने मैनेंजर साहब से शाम को जल्दी घर जाने की अनुमति ले ली।
सुभाष का गाँव इस कस्बे से करीब आठ कोस दूर था। वह रोज आता-जाता था क्योंकि साल भर पहले उसकी माँ की टांग टूट गई थी और बापू तो उसकी याद से पहले से ही अंधा था। माँ बताती थी कि उसकी आँखों में काला पानी उतर आया था। माँ की समझ से यह लाइलाज बिमारी थी। बापू खाट पर बैठकर बान बुनता रहता था। माँ उन्हें आस-पास के गाँवों में बेक आती थी। सुभाष की नौकरी से पहले यही उनकी जीविका थी। सुभाष की नौकरी लगने पर भी उन्होंने अपना काम बंद नहीं किया था। पर माँ की टांग टूटने से वह लाचार हो गई थी। किसी तरह घर का थोड़ा बहुत काम कर लेती थी। बान बेकने अब छुट्टी के दिन सुभाषा जाता था और रोज घर पहुँच कर माँ की घरेलू कामों में मदद करता था।
अपर्णा शर्मा
तीन बजते ही सुभाष ने साइकिल उठाई और गाँव की ओर चल पड़ा। गाँव में पहुँचकर सुभाष ने साइकिल स्कूल की तरफ मोड़ दी। यहाँ उसके गुरूजी रहते थे। इन्हीं से सुभाष ने पाँचवी तक शिक्षा पाई थी और विगत वर्ष इनकी ही मदद व प्रेरणा से हाईस्कूल परीक्षा पास की थी। गुरूजी ने ही उसकी नौकरी प्रेस में लगवाई थी। बापू तो अनपढ़ था अतः सुभाष अधिकतर मश्वरों के लिए गुरूजी पर ही निर्भर था। सुभाष ने गुरूजी के घर पहुँचकर उनका चरण स्पर्श किया और झट से विज्ञापन निकाल कर उनके सामने रख दिया। उन्होंने उसे ध्यान से पढ़ा और प्रश्नसूचक दृष्टि से सुभाष को देखा। वह धीरे से बोला- “गुरूजी बापू की वो गीतों वाली किताब...।”
गुरूजी हँस पड़े और बोले- “अरे पगले वह इनाम के लिए भेजने लायक कहाँ हैं। उसे तो छोटी-मोटी दुकानों या मेले आदि में बिक्री के ख्याल से छपवाया था। यहाँ तो बड़े-बड़े लेखक अपनी पुस्तक भेजते हैं। वह सौ पन्नो की सस्ते कागज पर छपी सस्ती किताब इनके किस मतलब की है?”
“पर गुरूजी इसमें तो लिखा है सौ से डेढ़ सौ पृष्ठ होने चाहिए।”
“पुरस्कार के लिए पृष्ठ होना ही काफी नहीं है। विचारों का भी महत्त्व होता है।”
सुभाष के पास तर्क वितर्क के लिए इस मुद्दे पर अधिक ज्ञान नहीं था। वह चुप रह गया और जल्दी ही बातों का रूख रोजमर्रा की समस्याओं पर आ गया। कुछ देर बाद सुभाष घर लौट आया। विज्ञापन को लेकर उसके मन में उथल-पुथल होती रही। वह घर के अंदर जाता तो छत की टूटी खपरैलों और जर्जर हुई सीलन खाई दिवारों को देखता, बाहर जानवरों के उजड़े बाड़े और आधे-अधूरे कच्चे चबूतरे को देखता। इसी चबूतरे से फिसल कर उसकी माँ की टाँग टूट गई थी। कभी वह रस्सी बुनते बापू को देखता उसे इन सब समस्याओं का हल पुरस्कार की पच्चीस हजार की राशी में नजर आता। किसी तरह किताब भेज दी जाय तो उस पर इनाम मिल जाएगा ऐसा विश्वास बार-बार उसके मन में उठता। सुभाषा के लिए मान सम्मान का विशेष महत्त्व नहीं था उसके लिए पुरस्कार राशी महत्त्वपूर्ण थी। दो हजार की नौकरी करने वाले को पच्चीस हजार नकद एक बड़ी धनराशी थी। इतना जोड़ते बचाते उसकी आधी जिंगदी खप जायगी। इतने धन से वह अपने कितने काम साध सकता है। अपने माँ बापू को ढेरों सुख दे सकता है। एक दो बकरी खरीद लेगा तो बरसों से उजड़ा बाड़ा आबाद हो जायगा।
घर में जानवर की रौनक ही अलग होती है। पर गुरूजी को कैसे समझाय कि उसका बापू की किताब पुरस्कार के लिए भेजना कितना जरूरी है। कितनों की मिन्नतें कर और मैनेजर साहब से पाँच हजार रूपये उधार लेकर उसने इसी उम्मीद से किताब छपवाई थी कि वह एक दिन इसे पुरस्कार के लिए भेजेगा। जब बापू गीत बनाता और अपने मीठे गले से उन्हें चैपाल पर गाता था तो सब वाह-वाह करते थे। खुद गुरूजी ने बहुत बार कहा था- “तुम्हारे बापू के कंठ में सरस्वती विराजती हैं। सूरदास के पदों जैसी मिठास है उसमें।” बहुत से लोग कहते थे-सुभाष का बापू भले ही अंधा है पर दुनियाँ में हो रहा अच्छा बुरा सब देख लेता है। तभी तो ऐसे गीत बनाता है कि सुनकर आँखों वाले की भी आँख खुल जाय। सुभाष तब चैथी, पाँचवी में पढ़ता था जब उसने गुरूजी के समझाने पर बापू के गीतों को एक मोटी कापी में लिख लिया था। जिस प्रेस में वह काम करता था वहाँ की छपी दो किताबों को जब एक-एक लाख का इनाम मिल गया तो उसके मन में अपने बापू की किताब छपवाने का ख्याल आया था और जैसे ही उसकी तरक्की हुई उसने गुरूजी की मदद से वर्तनी आदि सुधार कर बापू की किताब छपवा ली थी। यह बात अलग है कि उसने आज तक यह बात किसी से कही नहीं थी। पर वह तो बरसों से ऐसे मौके की तलाश में था और अब जब मौका आया तो किताब न भेज पाने की छटपटाहट उसका किसी भी काम में मन नहीं लगने दे रही थी। छु्ट्टी के एक दिन सुभाष फिर गुरूजी के घर पहुँच गया।
गुरूजी बाड़े में सब्जियाँ सींच रहे थे। सुभाष उन्हें अभिवादन कर उनके कार्य में मदद करने लगा। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद सुभाष ने बापू की किताब भिजवाने का गुरूजी से फिर आग्रह किया। गुरूजी ने उसे समझाने का प्रयास किया कि पुरस्कार मिलना इतना सरल नहीं है। एक नहीं दस-दस किताबें लिखनी पड़ती हैं। परन्तु सुभाष ने किसी तरह उन्हें तैयार कर लिया। गुरूजी ने विज्ञापन पढ़ा और सुभाष को आवश्यक सामग्री लिफाफे आदि लाने को कह दिया। अगले दिन सुभाष डाकखाने से जरूरी सारा सामान ले आया। टीन के बक्से से चार किताबें निकाल लीं। किताब का नाम ‘जागरण गीत’ था। छपवाते समय गुरूजी ने ही इसे यह नाम दिया था। रात में सुभाष ने गुरूजी के पास बैठकर बंडल तैयार कर लिया और अगली सुबह कस्बे के डाकखाने से उसे चलता कर दिया। पोस्ट मास्टर ने समझाया कि रसीद को सम्भाल कर रखना। इसीलिए श्याम को घर पहुँच कर सुभाष ने रसीद को बक्से में लाटरी का टिकट सा सम्भाल कर रख दिया। माँ बार-बार बूझती रही कि वह क्या करता फिर रहा है परन्तु वह माँ को यह खुशखबरी तब देना चाहता था जब इनाम आ जाता। अतः उसने माँ की बातों को टाल दिया और केवल गुरूजी को सूचित किया कि उसने प्रविष्टि भेज दी है।

III 
व्यवसाय

विज्ञापन छपने के एक सप्ताह बाद उसकी जानकारी मिस्टर विनय को मिली। मिस्टर विनय नवधनाढ्य वर्ग से थे। वे लगभग तीस की उम्र और मध्यम कदकाठी के युवक थे। बालपन से ही उन्हें अपनी दौलत पर गुमान करने और नौकर - चाकरों के साथ रौब से पेश आने का सलीका सिखाया गया था। किशोरावस्था तक उन्हें यह अच्छी तरह समझ में आने लगा कि बड़े होकर अपना कारोबार सम्भालना है। पढ़ाई तो मात्र औपचारिकता है। अतः वे मौज मस्ती और सैर सपाटों पर अधिक ध्यान देने लगे। मगर अपने देश की शिक्षा प्रणाली ने उनकी इस औपचारिकता की पढ़ाई की कद्र न की और उन्हें क्लास दर क्लास पास कराते हुए कॉलेज तक पहुँचा ही दिया। मिस्टर विनय अपने इरादे पर अडिग रहे। सात-आठ साल कॉलेज में रहकर ग्रेजुएट हुए। अभिभावक खुश हुए कि अब वे शीघ्र ही अपना कारोबार सम्भाल लेंगे। किन्तु कॉलेज के दिनों में उनके पिता के शब्दों में उन्हें एक व्यसन शायरी पढ़ने और लिखने का लग गया था। इस व्यसन ने कितने रहीसजादों को बर्बाद किया था। उनकी बाप-दादों की मेहनत से कमाई दौलत लुट गई थी। उनकी समझ में यह बर्बादी का सीधा रास्ता था। वे बहुत से उदाहरण देकर विनय को रोकने का प्रयास करते। परन्तु विनय की समझ में यह भी व्यापार का ही एक हिस्सा था। अब लक्ष्मी और सरस्वती का बैर नहीं रह गया था। लेखन के माध्यम से भी लोग धनाढ्य हो रहे थे। व्यंग, कटाक्ष, छंद की समझ व उम्मीद स्रोताओं में घट रही थी। इसी से मंचीय काव्य रचनाकारों को अच्छी रकम दे रहा था। ढेरों घिसे-पिटे चुटकलों और कहावतों को थोड़ी सी तुकबंदी में बांधकर कवि महोदय हास्य बिखेर रहे थे और वाह-वाही लूट रहे थे। इतना ही नहीं बहुतों ने तो मंचीय शोहरत  को राजनीति में अच्छा खासा भुनाया था। अतः जहाँ विनय के पिता का मानना था कि विनय का शायरी अनुराग उसे एकाग्रचित होकर कारोबार में नहीं लगने दे रहा है। वहीं विनय की समझ में यह भी दौलतमंद होने का एक नया रास्ता था। इसीलिए वे काव्य गोष्ठियों और मित्र मण्डली से जुड़े रहते थे।
एक सुबह जब मिस्टर विनय कार्यालय जाने की तैयारी में थे और नाश्ता कर रहे थे तो उनके निजी नौकर राकेश ने साहित्यिक पुरस्कार के विज्ञापन की बात उन्हें बताई और अखबार भी दिखाया। मिस्टर विनय ने उस पर ध्यान न दिया। उनकी निगाह बड़े पुरस्कारों पर थी। इतना पैसा तो उनका चार छः दिन का जेब खर्च था।
सात-आठ दिन बाद शहर में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। विनय ऐसे कार्यक्रमों के प्रयोजक रहते थे। अतः उन्हें विशेष आग्रह के साथ बुलाया जाता था और वे जो भी बोले जैसा भी बोले उनकी मित्र मण्डली वाह-वाही में कंजूसी नहीं करती थी। उस रोज भी सुबह से ही फोन आने शुरू हो गए थे और विनय राकेश को हिदायत दे गए थे कि उनके कपड़े जूते आदि ठीक करके रख दें। वे गोष्ठी में जाएंगे। इसके लिए उन्होंने सुबह ही पिताजी से थोड़ा बजट भी स्वीकृत करा लिया। शाम को ठीक सात बजे विनय गोष्ठी स्थल पर पहुँच गए।
सदैव की भाँति विनय का काव्य पाठ उनकी मित्र मण्डली की राय में प्रभावी रहा। मित्रों ने उन्हें खूब सराहा। तभी एक मित्र बूझ बैठे- “विनय तुमने वह तुलसी देवी साहित्य संस्था का विज्ञापन देखा?”
विनय ने बड़ा उपेक्षित सा जवाब दिया तो मित्रों ने उन्हें पुरस्कार के महत्त्व को समझाने का प्रयास किया। विनय उनकी बात सुन घर लौट आए। उनकी दृष्टि में इतना कम पैसा लेना उनकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल था और ऐसी छोटी-मोटी संस्थाओं के दिए सम्मान का महत्त्व ही क्या? इधर विनय यह सब विचार रहे थे और उधर उनकी मित्र मण्डली का उन्हें आवेदन कराने का कुछ अलग ही उद्देश्य था। मित्रगण का मानना था कि विनय एक बार प्रविष्टि भेज दें तो उनकी एक दिन की दावत पक्की हो जाय। उसे पुरस्कार नहीं मिलना है यह तो वे भी जानते थे। इन्हीं सबने मिलकर तो पिछले वर्ष जोर डाल कर विनय का एक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया था। जिसमें कविता कहने लायक शायद ही कोई रचना थी। यही विनय की एक मात्र पुस्तक थी जिसे पुरस्कार के लिए भेजा जाना था। मित्रों ने फोन पर और घर आकर विनय को सम्मान के महत्त्व को बार-बार समझाना शुरू किया। कोई कहता- “देखो भाई पैसे का महत्त्व अधिक नहीं है। बड़ी चीज है सम्मान। इसी से इन्सान की पहचान बनती है।”
दूसरा कहता- “पच्चीस हजार का इनाम भी छोटा इनाम नहीं है। लोग दो-दो चार-चार हजार के लिए लाइन लगाए रखते हैं।”
तीसरे ने समझाया- “बड़ा इनाम भी उसी को मिलता है जिसे पहले छोटे मिले होते हैं। कहीं भी सम्मानों के क्रम को देखो यही बात समझ में आती हैं।”
एक मित्र ने कहा- “जब किसी रचना को पुरस्कार मिल जाता है तभी वह चर्चा में आती है और चर्चा से ही रचनाकार की पहचान बनती है। अब अधिक सोच विचार न करो कल ही प्रविष्टि भेज दो। कहीं देर न हो जाय।”
इन सब मशविरों को सुनकर विनय का मन भी कहने लगा कि बड़े पुरस्कार का रास्ता छोटे से होकर ही जाता है। अगले ही रोज विनय ने अपनी एकमात्र रचना “अमीर-गरीब भाई-भाई” को तुलसी देवी साहित्य संस्था पुरस्कार हेतु प्रविष्टि भेज दी। उसी शाम उनकी मित्र मण्डली ने उनसे टी पार्टी ली और अगली बड़ी पार्टी देने को तैयार रहने के लिए आगाह कर दिया। विनय को भी प्रविष्टि भेजने के बाद अच्छा महसूस हो रहा था और मन में पुरस्कार की उम्मीद भी जग रही थी।

IV
हताषा, निराशा, उम्मीद

ठीक चार माह बाद तुलसी देवी साहित्य संस्था की पुरस्कार योजना का परिणाम अखबार में आया। इसे सुबह सबेरे श्याम बाबू ने पढ़ा। उन्होंने गौर से देखा पुरस्कार पाने वालों में उनका नाम नहीं था। पुरस्कार घोषणा के बाद की चिरपरिचित उदासी ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने अखबार लपेट कर मेज पर रख दिया और चाय की प्याली उठाकर शून्य में देखते हुए चुपचाप चाय पीने लगे। कुछ देर बाद वे छड़ी उठाकर घूमने निकल गए और घंटों इधर-उधर भटकते रहे। जब घर लौटे तो बेटा दफ्तर और बच्चे स्कूल जा चुके थे। श्याम बाबू सीधे अपने कमरे में चले गए। घर के शेष सदस्यों ने उनसे बात करने का साहस न किया क्योंकि अब तक वे उनकी उदासी का कारण जान चुके थे। श्याम बाबू अलमारी के पास अपनी रचनाओं को एक के बाद एक पलट रहे थे। उन पर बड़े-बड़े साहित्यकारों के आशीर्वचन लिखे हुए थे। मित्रों के उत्साहित करने वाले उद्गार थे। परन्तु उनमें से कुछ भी फलित न हुआ। उन्हें लगा कि अब शायद वे इससे बेहतर रचना नहीं लिख पाएंगे। उनका मन खिन्न हो गया। वे आँखें बंद कर बिस्तर पर लेट गए।
पुरस्कार योजना का परिणाम दोपहर में सुभाष ने देखा। विगत एक माह से उसने दोपहर में अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था। इस समय वह कुछ अधिक समय अखबार पढ़ लेता था। पिछले एक सप्ताह से उसकी बेचैन निगाहें अखबार में एक ही चीज ढूढ़ रही थी और वह थी तुलसी देवी पुरस्कार योजना का परिणाम। आज यह उसे मिल गया था। उसने आँखें मलकर, आँखें फाड़कर और सिर को खुजलाते हुए कई बार इसे पढ़ा पर उसे अपने बापू का नाम कहीं नजर न आया। फिर भी सुभाष के मन ने भरोसा न छोड़ा और श्याम को जाते समय वह अखबार अपने साथ ले गया।
रात में खाने के बाद जब सुभाष के माँ-बापू आराम के लिए लेट गए तो सुभाष अखबार लेकर गुरूजी के पास पहुँच गया। उसके मन में अभी भी आशा थी कि शायद गुरूजी कोई रास्ता सुझा दे। वे इसे बेहतर समझ सकते हैं।
सुभाष जब गुरूजी के घर पहुँचा तो वे एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रहे थे। सुभाष को आया देखकर उन्होंने पुस्तक एक किनारे रख दी और सुभाष को बैठने का इशारा किया। सुभाष गुरूजी को चरण स्पर्श कर पास रखे स्टूल पर बैठ गया। गुरूजी सुभाष से उसके परिवार और प्रेस आदि के विषय में बातें करने लगे। कुछ देर बाद सुभाष ने अखबार निकाल कर गुरूजी के सामने रख दिया और परिणाम की घोषणा वाला पन्ना खोलकर दिखाया। एक बार तो गुरूजी को लगा कि सुभाष के बापू को इनाम मिल गया है। परन्तु जब घोषणा में कोई और ही नाम नजर आया तो उन्होंने सुभाष को देखा। सुभाष बोला- “गुरूजी परिणाम में बापू का नाम नहीं है। इसका मतलब इनाम उन्हें नहीं मिला।”
गुरूजी बोले- “हाँ इसका तो यही मतलब है और तुमने तो स्वयं इसको पढ़ा होगा।”
“पढ़ा है गुरूजी! मैं आपसे यह जानना चाहता था कि क्या अब और कोई उपाय नहीं है?”
“कैसी नासमझी की बातें करते हो। तुम्हें स्कूल के इनामों की याद नहीं है। जो प्रथम आया उसी को मिल गया। बाद में उसको बदला नहीं जा सकता यहाँ भी बहुत से लेखकों ने अपनी किताबें भेजी होंगी। जिसकी सबसे अच्छी रही उसे इनाम मिल गया।”
सुभाष का चेहरा उतर गया। उसकी आँखों में आँसू छलक आये। वह सिर झुकाए पैरों से जमीन खुरचने लगा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद गुरूजी सुभाष को दिलासा देते हुए बोले- “इसमें इतना दुःखी होने की बात नहीं है। तुम्हारे बापू कहाँ बहुत पढ़े हैं जो इतना बड़ा इनाम पा जाते। तुमने अपने बापू की किताब को छपवा लिया और पुरस्कार के लिए भेजा यह भी कम बड़ी बात नहीं है। इनाम सबको नहीं मिलता है।”
सुभाष थोड़ा संयत होकर बोला- “गुरूजी मैं बापू को खुश करना चाहता था।”
गुरूजी- “पर इनाम देना तो तुम्हारे हाथ में नहीं हैं। तुम बापू की सेवा करो उनके लिए यही बड़ा इनाम है। लक्ष्मी, लक्ष्मी को खींचती है। वह हम गरीबों के यहाँ नहीं आती। जाओ अब घर जाओ और आराम करो।”
सुभाष घर आकर सो गया। अगले दिन वह काम पर नहीं गया। गाँव और खेत खलिहानों में घूमता रहा। दिन ढले घर लौटकर आया तो उसकी नजर सामने खिड़की में रखे अखबार पर टिक गई। वह जमीन पर पैर फैलाकर बैठ गया और देर तक एक के बाद एक अखबार के पन्ने पलटता रहा। फिर उसने अखबार समेट कर एक ओर रख दिया। वह देर तक अपलक बान बुनते बापू और बर्तन मांजती माँ को देखता रहा। उसने घर की टूटी खपरैलों को गर्दन घुमाकर इधर से उधर तक देखा और फिर बाहर जानवरों के उजड़े बाड़े को। सुभाष का मन गहरे दुःख और निराशा से भर गया। वह देर तक जड़वत बैठा रहा।
विनय बाबू कारोबार के सिलसिले में बाहर गए हुए थे। तभी एक दिन एक फोन आया। जिसे राकेश ने सुना। यह तुलसी देवी साहित्य संस्था से यह बताने के लिए था कि इस वर्ष संस्था का साहित्यिक पुरस्कार का प्रथम पुरस्कार विनय बाबू को मिला है उनकी रचना का इसके लिए चयन हुआ है। राकेश को एकाएक इस पर विश्वास न हुआ। वह भले ही कम पढ़ा था पर कविता की थोड़ी समझ उसे थी। बचपन में गुरूजी कविताओं का सस्वर पाठ कराते थे। बच्चे उन्हें याद कर सुनाते थे। इसी से राकेश जानता था कि कविता में लय होना जरूरी है और विनय बाबू की कविताओं में लय का अभाव होने के कारण वह मन ही मन उनका उपहास करता था। मुँह से कह नहीं सकता था क्योंकि इसी नौकरी से उसका पूरा परिवार पलता था। राकेश ने इस फोन को विशेष महत्त्व न दिया। उसके ख्याल से यह विनय बाबू के किसी मित्र की शरारत भी हो सकती थी क्योंकि उनकी मित्र मण्डली में इस तरह के मजाक होते रहते थे। अतः जब विनय बाबू लौटे तो उसने धंधे से संबंधित फोन और खबरों को विनय को बता दिया और पुरस्कार वाले फोन का जिक्र ही नहीं किया।
करीब एक सप्ताह बाद राकेश विनय की डाक देख रहा था। वह व्यवसायिक महत्त्व के पत्रों को खोलकर उनकी मेज पर रख रहा था। तभी उसके हाथ में एक गुलाबी रंग का लिफाफा आया जो पुरस्कार योजना से संबंधित था। राकेश ने इसे खोला। उसमें पुरस्कार की घोषणा और एक माह बाद संस्था के वार्षिक जलसे में विजेताओं को सम्मानित किए जाने की सूचना दी गई थी। इस पर राकेश अविश्वास नहीं कर सकता था और अब अखबार में छपी पुरस्कार घोषणा को ढूढ़ना भी उसके लिए अनिवार्य हो गया। उसने पूरे घर में अखबार की खोज की पर मिल न सका। क्योंकि इस घर में अखबार एक दिन का ही मेहमान रहता था। अगले रोज रसोइया, मेहरी या और कोई भी उसे झाड़ने-पोछने के लिए इस्तेमाल कर लेता था। अखबार मिले न मिले पुरस्कार की खबर को अब विनय बाबू को बताना ही था। विनय अपने एक मित्र के साथ बैठे चाय पी रहे थे तभी राकेश ने पुरस्कार वाला लिफाफा विनय बाबू को दिखाया। विनय ने खोलकर देखा और मित्र की ओर बढ़ा दिया। मित्र पढ़कर उछल पड़े। उन्होंने जोरदार शब्दों में मित्र को बधाई दी। परन्तु धनराशी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप न होने से विनय अधिक प्रसन्न न हुए। पर उनकी मित्र मण्डली में यह खबर तेजी से फैल गई। विनय को बधाई के फोन पर फोन आने लगे और दो दिन बाद सब मित्रों ने विनय के घर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन कर लिया। जिसमें मित्रों ने खूब बढ़-चढ़ कर विनय की प्रशंसा की और जम कर चाय नाश्ता उड़ाया।
पुरस्कार ग्रहण के दिन विनय की पूरी मित्र मण्डली उनके साथ थी। उन्हें बड़े शायर जैसा सजाया गया था। मित्रों ने विगत तीन-चार दिन से उनके भावों को इस तरह उकसाया था कि वे अपने अंदर एक महान साहित्यकार महसूस करने लगे थे। जिस कारण उनके हाव-भाव, चाल ढ़ाल और बात करने का सलीका एकदम शायराना हो गया था।
शाम सात बजे ऊँचे सजे मंच पर विनय बाबू को फूल-माला पहनाकर और दुशाला उठाकर प्रशस्ति पत्र और पच्चीस हजार नकद देकर एक नेताजी ने पुरस्कृत किया। मंच संचालक विनय द्वारा संस्थाओं को दिए जाने वाले आर्थिक अनुदानों को उच्च स्वर में व्योरेबार बता रहे थे और भविष्य में उनसे अपनी संस्था पर भी इसी प्रकार की अनुकंपा बनाए रखने की आशा व्यक्त कर रहे थे। उनके मित्र आगामी पंक्ति में बैठे हर्षनाद और करतल ध्वनियों से उनका उत्साहवर्धन कर रहे थे।
जलसा समाप्त हुआ। सब अपने गन्तव्यों को लौटने लगे। विनय बाबू ने माला, दुशाला और प्रशस्ती पत्र राकेश को थमा दिया। राकेश ने उन्हें सम्भाल कर बैग में रख लिया और घर की ओर रवाना हो गया। नकद राशी का लिफाफा विनय बाबू ने अपने कुरते की जेब में रख लिया। वे मित्र मण्डली के साथ गाड़ी में बैठकर शहर के सबसे महंगे होटल की ओर चल पड़े।
होटल के बड़े से पंडालनुमा हाल में एक बड़ी मेज पर बैठे दस-बारह दोस्त हँसते, बतियाते, ठहाके लगाते पैग पर पैग ले रहे थे। वे कभी विनय की तारीफों के पुल बांधते तो कभी बुजुर्ग प्रतिष्ठित साहित्यकारों का उपहास करते। वे विमर्शों की चर्चा करते हुए उनमें किसी एक के साथ जुड़ जाने की विनय को सलाह दे रहे थे। एक ने कहा- “अब जितनी जल्दी हो अगली किताब छपवानी चाहिए और अगली प्रविष्टि के लिए तैयार रहना चाहिए।” विनय उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए व अपनी उपलब्धि पर मंद-मंद मुस्कुराते हुए उनका साथ दे रहे थे। बैरा भोजन सूची रख गया था। सबने अपनी-अपनी पसंद का खाना मंगवाना शुरू किया। एक से बढ़कर महंगा और लजीज खाना मंगवाया जा रहा था। इस खुशी के मौके पर खाने में कंजूसी दिखाकर कोई भी मित्र बधाई देने में कंजूस कहलाना नहीं चाहता था। विनय भी पूरे जोश में उन्हें अधिकाधिक खाने के लिए उकसा रहे थे। आधी रात बीतते तक दावत समाप्त हो गई। बैरा बिल लेकर आ गया। जो सत्ताईस हजार कुछ सौ का था। विनय ने उसे दो बार पलट कर देखा। विनय का नशा थोड़ा हल्का होने लगा था। उन्होंने कुरते की जेब से इनाम के पच्चीस हजार निकाल कर ट्रे में रख दिए। फिर जाकेट की अंदर वाली जेब में हाथ डालकर रूपये निकाले। उनमें से हजार-हजार के तीन नोट ट्रे पर और रख दिए। कुछ देर बाद बैरा सौफ इलायची और बिल भुगतान रसीद ट्रे में रख लाया। विनय इलायची मुँह में रखते हुए उठ गए। उनके सम्मान की इतिश्री कर उनकी मित्र मण्डली भी उठ गई।
स्वर्ग में बैठी तुलसी देवी की आत्मा आँसू बहा रही थी। तुलसी देवी छायावादी युग की शिक्षित महिला थीं। स्वयं रचनाकार न होते हुए भी साहित्य के प्रति अनुरक्त थीं। उन्होंने विरासत में खूब धन सम्पदा पाई थी। उसी में से थोड़ी धनराशी एक साहित्यिक पुरस्कार योजना के लिए रख छोड़ी थी। उनका मन धन के अभाव में कुंठित होती प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करना था। परन्तु उनकी पीढि़यां धन के महत्त्व को समझ गई थी। वे उसे ऐसी सखसियत पर लगा रही थीं जहाँ से देर सबेर वापसी की संभावना हो।


यह कहानी अपर्णा शर्मा जी , द्वारा लिखी गयी है . डॉ0 (श्रीमती) अपर्णा शर्मा ने मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ0 शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जल धारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह  आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागेदारी बनी रही है।
संपर्क सूत्र - डॉ0 (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, ”विश्रुत“, 5, एम.आई.जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद (उ0प्र0), पिनः 211004, दूरभाषः 91.0532.2542514,M: +918005313626 ईमेल - draparna85@gmail.com


COMMENTS

Leave a Reply
नाम

अंग्रेज़ी हिन्दी शब्दकोश,3,अकबर इलाहाबादी,11,अकबर बीरबल के किस्से,62,अज्ञेय,37,अटल बिहारी वाजपेयी,1,अदम गोंडवी,3,अनंतमूर्ति,3,अनौपचारिक पत्र,16,अन्तोन चेख़व,2,अमीर खुसरो,7,अमृत राय,1,अमृतलाल नागर,1,अमृता प्रीतम,5,अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध",7,अली सरदार जाफ़री,3,अष्टछाप,4,असगर वज़ाहत,11,आनंदमठ,4,आरती,11,आर्थिक लेख,8,आषाढ़ का एक दिन,22,इक़बाल,2,इब्ने इंशा,27,इस्मत चुगताई,3,उपेन्द्रनाथ अश्क,1,उर्दू साहित्‍य,179,उर्दू हिंदी शब्दकोश,1,उषा प्रियंवदा,5,एकांकी संचय,7,औपचारिक पत्र,32,कक्षा 10 हिन्दी स्पर्श भाग 2,17,कबीर के दोहे,19,कबीर के पद,1,कबीरदास,19,कमलेश्वर,7,कविता,1474,कहानी लेखन हिंदी,17,कहानी सुनो,2,काका हाथरसी,4,कामायनी,6,काव्य मंजरी,11,काव्यशास्त्र,38,काशीनाथ सिंह,1,कुंज वीथि,12,कुँवर नारायण,1,कुबेरनाथ राय,2,कुर्रतुल-ऐन-हैदर,1,कृष्णा सोबती,2,केदारनाथ अग्रवाल,4,केशवदास,6,कैफ़ी आज़मी,4,क्षेत्रपाल शर्मा,52,खलील जिब्रान,3,ग़ज़ल,139,गजानन माधव "मुक्तिबोध",15,गीतांजलि,1,गोदान,7,गोपाल सिंह नेपाली,1,गोपालदास नीरज,10,गोरख पाण्डेय,3,गोरा,2,घनानंद,3,चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,6,चमरासुर उपन्यास,7,चाणक्य नीति,5,चित्र शृंखला,1,चुटकुले जोक्स,15,छायावाद,6,जगदीश्वर चतुर्वेदी,17,जयशंकर प्रसाद,35,जातक कथाएँ,10,जीवन परिचय,76,ज़ेन कहानियाँ,2,जैनेन्द्र कुमार,6,जोश मलीहाबादी,2,ज़ौक़,4,तुलसीदास,28,तेलानीराम के किस्से,7,त्रिलोचन,4,दाग़ देहलवी,5,दादी माँ की कहानियाँ,1,दुष्यंत कुमार,7,देव,1,देवी नागरानी,23,धर्मवीर भारती,10,नज़ीर अकबराबादी,3,नव कहानी,2,नवगीत,1,नागार्जुन,25,नाटक,1,निराला,39,निर्मल वर्मा,4,निर्मला,42,नेत्रा देशपाण्डेय,3,पंचतंत्र की कहानियां,42,पत्र लेखन,202,परशुराम की प्रतीक्षा,3,पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र',4,पाण्डेय बेचन शर्मा,1,पुस्तक समीक्षा,139,प्रयोजनमूलक हिंदी,38,प्रेमचंद,47,प्रेमचंद की कहानियाँ,91,प्रेरक कहानी,16,फणीश्वर नाथ रेणु,4,फ़िराक़ गोरखपुरी,9,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,24,बच्चों की कहानियां,88,बदीउज़्ज़माँ,1,बहादुर शाह ज़फ़र,6,बाल कहानियाँ,14,बाल दिवस,3,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',1,बिहारी,8,बैताल पचीसी,2,बोधिसत्व,9,भक्ति साहित्य,143,भगवतीचरण वर्मा,7,भवानीप्रसाद मिश्र,3,भारतीय कहानियाँ,61,भारतीय व्यंग्य चित्रकार,7,भारतीय शिक्षा का इतिहास,3,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,10,भाषा विज्ञान,17,भीष्म साहनी,8,भैरव प्रसाद गुप्त,2,मंगल ज्ञानानुभाव,22,मजरूह सुल्तानपुरी,1,मधुशाला,7,मनोज सिंह,16,मन्नू भंडारी,10,मलिक मुहम्मद जायसी,9,महादेवी वर्मा,20,महावीरप्रसाद द्विवेदी,3,महीप सिंह,1,महेंद्र भटनागर,73,माखनलाल चतुर्वेदी,3,मिर्ज़ा गालिब,39,मीर तक़ी 'मीर',20,मीरा बाई के पद,22,मुल्ला नसरुद्दीन,6,मुहावरे,4,मैथिलीशरण गुप्त,14,मैला आँचल,8,मोहन राकेश,15,यशपाल,15,रंगराज अयंगर,43,रघुवीर सहाय,6,रणजीत कुमार,29,रवीन्द्रनाथ ठाकुर,22,रसखान,11,रांगेय राघव,2,राजकमल चौधरी,1,राजनीतिक लेख,21,राजभाषा हिंदी,66,राजिन्दर सिंह बेदी,1,राजीव कुमार थेपड़ा,4,रामचंद्र शुक्ल,3,रामधारी सिंह दिनकर,25,रामप्रसाद 'बिस्मिल',1,रामविलास शर्मा,9,राही मासूम रजा,8,राहुल सांकृत्यायन,2,रीतिकाल,3,रैदास,4,लघु कथा,124,लोकगीत,1,वरदान,11,विचार मंथन,60,विज्ञान,1,विदेशी कहानियाँ,34,विद्यापति,8,विविध जानकारी,1,विष्णु प्रभाकर,2,वृंदावनलाल वर्मा,1,वैज्ञानिक लेख,8,शमशेर बहादुर सिंह,6,शमोएल अहमद,5,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय,1,शरद जोशी,3,शिक्षाशास्त्र,6,शिवमंगल सिंह सुमन,6,शुभकामना,1,शेख चिल्ली की कहानी,1,शैक्षणिक लेख,57,शैलेश मटियानी,2,श्यामसुन्दर दास,1,श्रीकांत वर्मा,1,श्रीलाल शुक्ल,4,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संस्मरण,33,सआदत हसन मंटो,10,सतरंगी बातें,33,सन्देश,44,समसामयिक हिंदी लेख,269,समीक्षा,1,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,19,सारा आकाश,20,साहित्य सागर,22,साहित्यिक लेख,86,साहिर लुधियानवी,5,सिंह और सियार,1,सुदर्शन,3,सुदामा पाण्डेय "धूमिल",10,सुभद्राकुमारी चौहान,7,सुमित्रानंदन पन्त,23,सूरदास,16,सूरदास के पद,21,स्त्री विमर्श,11,हजारी प्रसाद द्विवेदी,4,हरिवंशराय बच्चन,28,हरिशंकर परसाई,24,हिंदी कथाकार,12,हिंदी निबंध,431,हिंदी लेख,531,हिंदी व्यंग्य लेख,14,हिंदी समाचार,182,हिंदीकुंज सहयोग,1,हिन्दी,7,हिन्दी टूल,4,हिन्दी आलोचक,7,हिन्दी कहानी,32,हिन्दी गद्यकार,4,हिन्दी दिवस,91,हिन्दी वर्णमाला,3,हिन्दी व्याकरण,45,हिन्दी संख्याएँ,1,हिन्दी साहित्य,9,हिन्दी साहित्य का इतिहास,21,हिन्दीकुंज विडियो,11,aapka-banti-mannu-bhandari,6,aaroh bhag 2,14,astrology,1,Attaullah Khan,2,baccho ke liye hindi kavita,70,Beauty Tips Hindi,3,bhasha-vigyan,1,chitra-varnan-hindi,3,Class 10 Hindi Kritika कृतिका Bhag 2,5,Class 11 Hindi Antral NCERT Solution,3,Class 9 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 1,17,Class 9 Hindi Sparsh,15,English Grammar in Hindi,3,formal-letter-in-hindi-format,143,Godan by Premchand,11,hindi ebooks,5,Hindi Ekanki,20,hindi essay,423,hindi grammar,52,Hindi Sahitya Ka Itihas,105,hindi stories,679,hindi-bal-ram-katha,12,hindi-gadya-sahitya,8,hindi-kavita-ki-vyakhya,19,hindi-notes-university-exams,67,ICSE Hindi Gadya Sankalan,11,icse-bhasha-sanchay-8-solutions,18,informal-letter-in-hindi-format,59,jyotish-astrology,22,kavyagat-visheshta,25,Kshitij Bhag 2,10,lok-sabha-in-hindi,18,love-letter-hindi,3,mb,72,motivational books,11,naya raasta icse,9,NCERT Class 10 Hindi Sanchayan संचयन Bhag 2,3,NCERT Class 11 Hindi Aroh आरोह भाग-1,20,ncert class 6 hindi vasant bhag 1,14,NCERT Class 9 Hindi Kritika कृतिका Bhag 1,5,NCERT Hindi Rimjhim Class 2,13,NCERT Rimjhim Class 4,14,ncert rimjhim class 5,19,NCERT Solutions Class 7 Hindi Durva,12,NCERT Solutions Class 8 Hindi Durva,17,NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan वितान भाग 1,3,NCERT Solutions for class 12 Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,raag-darbari-shrilal-shukla,7,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,skandagupta-natak-jaishankar-prasad,6,sponsored news,10,suraj-ka-satvan-ghoda-dharmveer-bharti,4,Syllabus,7,top-classic-hindi-stories,51,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
ltr
item
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: मंतव्य
मंतव्य
सुबह सवेरे श्याम बाबू ने अखबार पढ़ा। उसमें एक विज्ञापन था जो उनके मतलब का था। शहर की ही एक संस्था ने सामाजिक समस्याओं को इंगित करने वाली रचना को 25 हजार नकद और प्रशस्ति पत्र के साथ सम्मानित करने का विज्ञापन दिया था।
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnNM19YSVRZICmF68ROI_mDSlOpaIh_z9Uv8JGbXYs2WUTkj6KMV9hU74FeVn7nJgJexHGAtsZegcWHXk2Bsrj2khq-K74Hs9dUU7IdpVEyvLO0DTinFvtzC3ZjycrzQTSA-hzOHkcByX8/s200/Untitled.png
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnNM19YSVRZICmF68ROI_mDSlOpaIh_z9Uv8JGbXYs2WUTkj6KMV9hU74FeVn7nJgJexHGAtsZegcWHXk2Bsrj2khq-K74Hs9dUU7IdpVEyvLO0DTinFvtzC3ZjycrzQTSA-hzOHkcByX8/s72-c/Untitled.png
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
https://www.hindikunj.com/2016/03/remarks.html
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/2016/03/remarks.html
true
6755820785026826471
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका