क़लम में रोशनाई-सा पृथ्वी पर अन्न के दाने-सा कोख मेंजीवन के बीज-सा लौट आऊँगा मैं
1. लौट आऊँगा मैं
क़लम मेंरोशनाई-सा
पृथ्वी पर
अन्न के दाने-सा
कोख मेंजीवन के बीज-सा
लौट आऊँगा मैं
आकाश में
इंद्रधनुष-सा
धरती पर
मीठे पानी के
कुएँ-सा
ध्वंस के बाद नव-निर्माण-सा
लौट आऊँगा मैं
लौट आऊँगा मैं
आँखों में नींद-सा
जीभ में स्वाद-सा
थनों में दूध-सा
ठूँठ हो चुके पेड़ में
नई कोंपल-सा
बच्चे के मसूड़े में
नये दाँत-सा
लौट आऊँगा मैं
जैसे महाशंख से चलकर
शून्य तक लौट आती है
उलटी गिनती
जैसे जीवन लौट आता है
आसन्न-मृत्यु-बोध के
मरीज़ में
वैसे लौट आऊँगा मैं
तुम एक बार
पुकार कर तो देखो
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2. क्या होगा ?
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--- सुशांत सुप्रिय
मुझे नहीं मालूम
मेरे ड्राइंग-रूम में टँगे कैलेंडर में बनी
तसवीर में बैठे तोते के पूर्वज
' राम-राम ' बोलते थे या ' जय हिंद '
पर यदि किसी दिन
तसवीर से निकल कर
ड्राइंग-रूम में रखे सोफ़े पर
बैठ जाए यह तोता
और मुँह खोले तो निश्चित ही
' दम मारो दम ' से ले कर
' चोली के पीछे क्या है ' और
' मेरी शर्ट भी सेक्सी ' से लेकर
' काँटा लगा , हाय लगा '
बोलेगा यह तोता
क्योंकि ड्राइंग-रूम के दूसरे कोने में
पड़ा है टेलीविज़न
जिसमें लगा है केबल
जिसमें आते हैं अनेक ऐसे चैनल
जिनमें नाचती-गाती हैं
फूहड़ अधनंगी सिने-तारिकाएँ
जिन से काफ़ी कुछ सीख चुका होगा
यह बुद्धिमान तोता
यदि किसी दिन
ड्राइंग-रूम में बैठे किसी अतिथि के सामने
तसवीर से आ कूदा यह तोता
और खोल दी उसने अपनी बुद्धिमानी की पोल
तो मेरे तो हाथों के तोते उड़ जाएँगे
बहस का मुद्दा यह नहीं है कि
किस युग के तोतों ने
इस मुहावरे को जन्म दिया
बल्कि यह है कि
इस देश की रग-रग में
सेंध लगाती जा रही
आज की ' कचरा-संस्कृति '
जब तसवीर में बैठे तोते तक का
' ब्रेन-वाश ' कर दे सकती है
तो हमारा-आपका क्या होगा ?
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3. लापता का हुलिया
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---सुशांत सुप्रिय
उसका रंग ख़ुशनुमा था
क़द ईश्वर का-सा था
चेहरा मशाल की
रोशनी-सा था
मन चाशनी-सा था
वह ऊपर से कठोर
किंतु भीतर से मुलायम था
वैसे हमेशा
इंसानियत पर क़ायम था
अकसर वह बेबाक़ था
कभी-कभी वह
घिर गए जानवर-सा
ख़तरनाक था
उसे नहीं स्वीकार थी
तुच्छताओं की ग़ुलामी
उसे नहीं देनी थी
निकृष्टताओं को सलामी
सम्भावना की पीठ पर
सवार हो कर
वह अपनी ही खोज में
निकला था
और ग़ायब हो गया
पुराने लोग बताते हैं कि
देखने में लगता था वह
गाँधीजी के सपनों का भारत
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4. हादसा
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--- सुशांत सुप्रिय
कल रात
शहर में
एक महिला का शील
दुष्टों का क्रीड़ा-स्थल हो गया
एक हरा-भरा आदमी
मरु-स्थल हो गया
एक शिखर-सा बुज़ुर्ग
समतल हो गया
एक मासूम-सा बच्चा
बेकल हो गया
कल रात
यह शहर
जंगल हो गया
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5. दृष्टि
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--- सुशांत सुप्रिय
नए क्षितिज की
तलाश में
की मैंने
अनेक यात्राएँ
नए तटों की
खोज में
पार किए मैंने
कई सागर
नए शिखरों की
चाह में
चढ़ा मैं
कई पर्वतों पर
किंतु हर बार
जब वापस लौटा
मुझे अपने ही
घर के द्वार के
बाहर मिल गया
बहुत कुछ नया-नया
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6. यूँ आना
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--- सुशांत सुप्रिय
यूँ आना जैसे
आती है हवा
सहलाना
फिसल जाना
यूँ आना जैसे
आती है धूप
पड़ना , फिर
ढल जाना
यूँ आना जैसे
आता है
शाम के आकाश में
पहला तारा
फिर भोर के आकाश के
अंतिम तारे में
बदल जाना
यूँ आना कि
मेरी ही परछाईं लगो
या जैसे
साँस हो मेरी
मुझ में समा कर
निकल जाना
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
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