सर्वं भवन्तु सुखिन: सर्वं सन्तु निरामया: सर्वं भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्।
कर्फ्यू
सर्वं भवन्तु सुखिन:
सर्वं सन्तु निरामया:
सर्वं भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्।
हजारों वर्ष पहले भारत में महर्षियों ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी शांत दिखें, कोई दुखी न हो। इस कल्पना को साकार करने, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये, इस उत्कृष्ट रचना के चरण में प्रवेश करने हजारों वर्ष ये मानवता लालायित रही है। पर जो कुछ हासिल हुआ वह हमारे सामने है। इतिहास हर पन्नों में करवट बदलता रहा है। इतिहास के हर पन्ने को एक रणभूमि समझ कर मुठ्ठी भर लोगों ने अमनचैन को रौंदते हुए उन पन्नों को लहू से तर किया है और आँसू से गीला किया है। कभी युद्ध हुए तो कभी दंगे-फसाद। नतीजा सब का एकसा रहा -- मानवता सिसकती रही, संस्कृति तड़पती रही और आत्मायें नर-संहार का बीभत्स द्रश्य देखती रहीं।
आज दुनिया के किसी ना किसी कोने में हर दिन दंगे-फसाद होते रहते हैं। इनकी भीषणता का अनुमान यदि भूकंप के रेक्टर पैमाने से किया जावे तो वह हर समय आठ डिग्री से ज्यादा का ही पाया जावेगा। अभी मेरे सामने सड़क पर अफरा-तफरी मची हुई है। पुलिस की गाड़ियों के सायरन लगातार बज रहे हैं और उनकी नीली पीली बत्तियाँ देख सभी के घर के दरवाजे फटाफट बंद हो रहे हैं। सभी के अंदर एकदम सन्नाटा भरा हुआ है। ऐसा सन्नाटा जो रणभूमि में लाशों के ऊपर मंडराता है। पुलिस फायरिंग कर चुकी थी और कर्फ्यू लग चुका था।
मुझे खिड़की खोलकर बाहर झाँकने की उत्कंठा हुई। पुलिस फायर्रिग के कारण सड़क पर मृत्यु से तड़पती जिन्दगी के द्रश्य सामने उभर कर आये। भीड़ बचाव के लिये भागती भी नजर आयी। कुछ देर बाद बाहर से आ रहे शोर के स्वर कुछ थम से गये। ऐसे समय सड़क पर उठती आवाज को ‘शोर’ शब्द से ही परिभाषित किया जाता है। इस शोर के उपरांत थोड़ी कम खामोशी और फिर थोड़ी ज्यादा खामोशी छा जाती है। इस ज्यादा खामोशी के पीछे दबे पाँव निस्तब्धता चली आती है। तब खिड़की खोल कर बाहर देखने की हिम्मत और भी बढ़ जाती है, वर्ना जीवन का नाटक, जो मृत्यु, यातनाओं व पीड़ा का मुखौटा पहन कर खेलती है, उसे कौन देखने का साहस बटोर सकता है।
उस निस्तब्ध वातावरण में सड़क पर का माहौल एकदम शून्य-सा शान्त प्रगट हो रहा था। मुझे वह शान्त माहौल शून्य-सा लगा क्योंकि जब मन उदास होता है तो वह शून्य में विचरण करता है। तब खुली हवा भी धुँआ-सी लगती है और उससे दम घुटने लगता है। अतः मुझे सड़क अस्पताल में रखे उस ‘कार्डियल-मानिटर’ की तरह नजर आयी जिसपर दिल की धड़कनों की एक सीधी-सपाट रेखा खिंच जाती है। कुछ वर्दी पहने पुलिसवाले अब भी सड़क पर चलते फिरते दिख रहे थे। दंगे को जैसे मात्र ‘आब्जरवेशन’ के लिये ‘आई सी यूनिट’ में रखा गया हो। आई सी युनिट का वातावरण और कर्फ्यू के दौरान उत्पन्न वातावरण एक जैसा ही तो हुआ करता है।
अब हमने घर की सारी खिड़कियाँ खोल दी थीं। रसोईघर की खिड़की खोलते ही मेरी पत्नी ने उसे बंद कर दिया और दौड़ कर मेरे पास आयी और कहने लगी, ‘देखो सामने सडक पार झाड़ियों में एक लाश अब भी पड़ी है।’ पुलिस सारी लाशें ले जा चुकी थी फिर यह कैसे छूट गई? मैं भी आश्चर्य में पड़ गया। मैं खिड़की खोलकर बाहर झाँकने लगा तो मेरी पत्नी ने मेरा कुर्ता खींचा और बोली, ‘ये क्या कर रहे हो?’
‘लाश को देख रहा हूँ। कहाँ है? मुझे नहीं दिख रही।’
‘वो झाड़ियों में दो टाँगें दिख रही हैं।’ पत्नी ने इतनी धीमी आवाज में कहा कि मैं ठीक से सुन नहीं पाया।
‘कहाँ? ठीक से कहो। तुम्हारी आवाज से वह दूर पड़ी लाश जाग नहीं जावेगी।’ मैंने कहा। पर तभी मैंने देखा कि हाँ, सच में किसी की लाश झाड़ियों में छिपी पड़ी थी। पत्नी वाकई सच कह रही थी।
खिड़की के बाहर सिर निकाल कर मैंने मुँह में उँगली रख कर शीटी बजायी। सोचा पुलिस को बता दूँ उस लाश के बारे में। पर सड़क पर कोई नहीं था। पुलिसवाले भी नहीं थे। मैं फौरन सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। उतरते समय सोचने लगा कि नीचे पड़ोस में डाक्टर चटर्जी रहते हैं और उनके यहाँ फोन भी है। उनसे कहूँगा कि पुलिस को फोन कर दें। मैं सीढ़ियों से उतरकर दीवार से चिपकता डाक्टर के घर तरफ बढ़ा। कर्फ्यू में यों बाहर निकलना जोखिम भरा होता है। मुझे लगा कि कहीं मैं भीतर ही भीतर डर न जाऊँ। डर जाने का डर बड़ा खतरनाक होता है। साँसें फूलती नहीं पर गले तक आकर रुक जाती हैं। जिगर धकधक करता है पर फैफड़े सुप्त पड़े रहते हैं। ऐसे समय पाँव जमीन से उठते तो हैं पर आगे रखे नहीं जाते। आँखों के सामने हवा भी अपारदर्शी हो जाती है। शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है पर होंठ सूखने लगते हैं। कानों में साँय-साँय का आवाज गूँजने लगती है पर और कुछ सुनाई नहीं पड़ता। हाथ काँपने लगते हैं तो पैर सुन्न पड़ जाते हैं और जब पैर काँपने लगते हैं तो हाथ सुन्न पड़ जाते हैं। परन्तु ऐसे डर जाने के भय के समय मस्तिष्क चुस्त-तंदरुस्त बना रहता है, परन्तु वास्तविक डर चिपक जाने पर तो मस्तिष्क भी काम करना बंद कर देता है। इस कारण मैंने उनके दरवाजे पर लगी ‘काल बेल’ बिना किसी पशोपेश में पड़े दबा दी। घंटी सुनते ही डाक्टर ने हड़बड़ाकर दरवाजा खोला।
मुझे देख उन्होंने पूछा ,‘क्या है?’ पर मैं एकदम दरवाजे के अंदर घुस गया। ‘ आपको एक काम करना है,’ मैंने झटपट बात खत्म करने के अंदाज में कहा। डाक्टर चुप रहे। बिना कुछ बोले मेरी पूरी बात सुनने लगे।
‘वहाँ सड़क पार झाड़ियों में एक लाश पड़ी है। अच्छा हो आप पुलिस को फोन कर दें।’
यह सुन डाक्टर साहब को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया। वे चिल्ला पड़े, ‘आप क्या कह रहे हैं? क्या मेरा दिमाग खराब है? मैं पुलिस को फोन करूँ और पुलिस मुझे ही दबोच ले। आप जानते हैं कि पुलिस सारी लाशें उठा चुकी है। अब इस लाश की खबर पाकर वे सबसे पहले मुझे ही दबोचेंगे। फिर पेशी-दर-पेशी करते हुए मेरा दम निकाल देंगे।’
‘इसका मतलब है कि कोई मरता है तो मर जावे और मैं या आप उसकी कोई चिन्ता न करें।’
वे बोले, ‘क्या चिन्ता करने का मैंने ठेका ले रखा है।’
‘तो मैं ही फोन कर देता हूँ,’ मैंने कहा। पर डाक्टर मुझ पर चिल्ला पड़े, ‘फोन मेरा है। फजीयत तो मुझे ही झेलना पड़ेगी। आप जाईये और भगवान के लिये मुझे इस झंझट से दूर रखिये।’
डाक्टर साहब के इन शब्दों ने करीब करीब मुझे दरवाजे के बाहर ही ढ़केल दिया। मैं दुबक कर वापस अपने घर लौट आया। अपने सिर पर का भारीपन दूर करने मैंने पत्नी से चाय बनाने कहा, तो वह मेरा मुँह ताकती खड़ी रही। उसने कहा, ‘रसोई की खिड़की से लाश दिख रही है और मैं चाय बनाऊँ।’
‘तो’ क्या आज खाना भी नहीं बनेगा?’ मैंने पूछा।
‘जी,’ पत्नी का संक्षिप्त-सा उत्तर सुन मैं चुप न रह सका।
‘ तुम तो ऐसा समझ रही हो कि वह लाश अपने किसी रिश्तेदार की है।’ मेरी यह बात सुन पत्नी के चेहरे का रंग यकायक उड़ गया। वह करीब करीब चीख-सी पड़ी, ‘कहीं यह अपना बबलू तो नहीं? वह इस दिवाली पर आने का कह गया था।’
‘पर अभी तो दशहरा भी नहीं हुआ। दिवाली अभी तो हफ्तों दूर है।’ कहने को तो मैं यह कह गया किन्तु शंका का कीड़ा मेरे मस्तिष्क में किलबिलाने लगा। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि औरतों की छटी इंद्रिय बहुत तीक्ष्ण होती है। यह विचार आते ही सारे शरीर में बिजली-सी कोंघ गई। मैं फिर से खिड़की के पास जाकर उस लाश को देखने की कोशिश करने लगा। सड़क पर दो-तीन कुत्ते घूम रहे थे। एक विचार मन में उठ खड़ा हुआ। वह अभी मरा नहीं है, वरना कुत्ते उसे अवश्य नोच रहे होते। कुत्तों को मौत का अहसास सबसे पहले होता है। अब वह लाश मुझे जिन्दा दिखायी देने लगी। मन यह भी कहने लगा कि वह बबलू है और मैंने दौड़कर उसके लिये कुछ करना चाहिये। एक बार फिर डाक्टर चटर्जी का दरवाजा खटखटाना चाहिये।
‘कालबेल’ सुन डाक्टर ने दरवाजा तो खोला पर उनके चेहरे पर खीज सातवें आसमान को लांधती नजर आई।
‘वह लाश,’ मैंने कहा।
‘तो मैं क्या करूँ?’ डाक्टर ने झल्लाकर कहा।
‘मेरे ख्याल से आपने उसे चलकर देख लेना चाहिये।’
‘
भूपेन्द्र कुमार दवे |
‘शायद उसमें कुछ जान हो--’ मेरे ये शब्द पूरे भी ना हुए थे कि डाक्टर तैश में आकर बोले, ‘अगर वो जिन्दा भी है तो क्या होगा? पुलिस फिर भी मुझे ही परेशान करेगी।’ इतना कह कर उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया।
मुझे वापस आते देख मेरी पत्नी बदहवास-सी दौड़ती मेरे पास आयी और कहने लगी, ‘बबलू जिन्दा है। मैंने अभी उस झाड़ियों में उसकी टाँगें हिलती हुई देखी हैं।’
मैं उछलकर रसोईघर की खिड़की पर पहुँच गया। मैंने भी उन टाँगों को झाड़ियों के भीतर खिसकते देखा। ‘बबलू, मेरा बबलू’ शायद यही आवाज मेरे फैफड़ों के भीतर से बाहर आती मुझे सुनायी दी। मैं एक बार फिर डाक्टर के पास आ गया।
‘डाक्टर साहब, मैं हाथ जोड़कर फिर एक बार कहता हूँ। आप उसे देख तो लें। हो सकता है कि उसमें प्राण बाकी हैं और आप उसे बचा सकते हैं।’
‘वो आपका कोई लगता है?’ डाक्टर साहब चिल्लाये।
‘हाँ, शायद वो मेरा बबलू है।’ मैंने कहा।
डाक्टर साहब ने चेहरे पर की व्यंगात्मक हंसी को और अधिक कड़वी करते हुए कहा, ‘हूँ, आपका बबलू दिल्ली में है और लाश यहाँ है। तुम पागल हो और मुझे भी पागल बनाने आये हो।’
मुझे लगा कि डाक्टर ठीक कह रहे हैं और मैं अपनी पत्नी की बातों में आकर सच में अपनी अक्ल खो बैठा हूँ। बबलू आने वाला होता तो वह खबर जरूर करता। हर वक्त वह आने के पहले यहां इसी डाक्टर के टेलीफोन पर खबर करता रहा है। मुझे अब पूरा विश्वास हो गया कि वह लाश या वह अधमरा आदमी हमारा बबलू हरगिज नहीं हो सकता। मैंने वापस आकर सारे तर्क पत्नी के सामने रखे। पर तर्क से जैसे विश्व की संपूर्ण नारी जाति को चिढ़ है। मेरी पत्नी रोने लगी।
मेरी पत्नी अब जिद करने लगी कि मैं स्वयं वहाँ जाकर देख आऊँ।
‘मैं सड़क पारकर उधर जाऊँ इस कर्फ्यू में।’ मैंने कहा। मेरे मन में आया कि कहूँ कि इस बेवकूफ भरी हरकत से मैं पुलिस की गोली का शिकार भी बन सकता हूँ। इस पगली को तो अपने सुहाग की भी फिक्र नहीं। पर मेरी पत्नी आँसू बहाये जा रही थी--शायद मेरी अकर्मण्यता पर, मेरी लाचारी पर, मेरी बुझदिली पर।
बाहर कुछ गाड़ियों के चलने की आवाज आयी। मैंने खिड़की से बाहर देखा। पुलिस की गाड़ी थी। झाड़ियों के पास खड़ी थी। वर्दीधारी सिपाही थे और वे लाश उठाकर गाड़ी पर रख रहे थे। एक सिपाही हाथ में सूटकेस पकड़ा था और उसे भी गाड़ी में रखने जा रहा था। सूटकेस शायद उसी आदमी का था जिसकी लाश गाड़ी पर रखी जा चुकी थी। मैंने सूटकेस पहचानने की कोशिश की। कहीं वह हमारे बबलू का तो नहीं है। पर गाड़ी आगे बढ़ गई और मैं ठीक से देख नहीं पाया।
कुछ दूर जाकर वह गाड़ी यकायक रुक गई और दो सिपाही उससे उतरकर हमारी ओर आने लगे। एक सिपाही के हाथ में डायरी थी, जो वह दूसरे सिपाही को दिखा रहा था। मुझे लगा कि वह डायरी उन्हें लाश के पास मिली थी और सिपाही उसमें लिखे पते को पाकर इस ओर आ रहे थे। मेरी तो जैसे साँसें रुक गई। हृदय की धड़कने भी बढ़ने लगी। मेरी अक्ल थम-सी गई। आँखों के सामने धुंध-सी छा गई। मैंने खिड़की के चौखट की पकड़ मजबूत कर ली। सिपाही सड़क पार कर चुके थे। उन्होंने हाथ हिलाकर गाड़ी के ड्राइव्हर को इशारा किया। अब गाड़ी से लाश को उतारा जा रहा था और वे लाश को उठा कर इसी ओर आने लगे थे। मेरे बबलू की लाश --उफ् --मैं कंप उठा।
पर तभी यह विचार आया कि शायद वे सब डाक्टर से जाँच करवाने उनके घर तरफ जा रहे थे। वह लाश मेरे बबलू की नहीं, और किसी की भी हो सकती है। मुझे कालबेल बजने की आवाज का भी अहसास हुआ, पर शायद वह भ्रम मात्र था। यदि सच में वे डाक्टर के घर पर गये हैं तो वे उन पर बरस पड़ेंगे।
पर कुछ क्षण बाद मुझे किसी की दहाड़ मार कर रोने की आवाज आयी।
हाँ, याद आया डाक्टर साहब का लड़का भी तो इस दशहरे में कोलकत्ता से आने वाला था। वह रोने की आवाज उन्हीं के घर पर से आ रही थी।
यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
thanks for sharing it…
जवाब देंहटाएंShri Gayani Panditji,
जवाब देंहटाएंI am unable to understand as what you mean by sharing this story by me? Kindly elucidate.
इंसान स्वार्थ में अँधा हो जाता है, एक डॉक्टर को अपने पेशे की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए |
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