'परिवर्तन' प्रकृति का शाश्वत नियम है | यह मैं बचपन से सुनती,गुनती,और पढ़ती आई हूँ | मुझे लगता है आवश्यक भी है |
हंस चुगेगा दाना दून का ........
'परिवर्तन' प्रकृति का शाश्वत नियम है | यह मैं बचपन से सुनती,गुनती,और पढ़ती आई हूँ | मुझे लगता है आवश्यक भी है | यदि बदलाव न होगा तो जीने का मज़ा नहीं आएगा | अरे ! आप समझे नहीं - अब देखिए रोज एक तरह का खाना,एक तरह की वेशभूषा और तो और एक तरह की सुबह की शुरुआत और एक ही तरह की रात्रि की समाप्ति | बताइए क्या कोई चाहेगा | नहीं न ! तो बस बदलाव आवश्यक है |
अब बदलाव आवश्यक है तो जब लोगों को हम बदलते देखते हैं तो आपत्ति किस बात की | भई वह भी तो प्रकृति के नियम का अनुसरण कर रहें हैं | आप सोच रहे हो,लोग बदलते है भला कैसे हम तो जब भी उन्हें देखते हैं (जान पहचान वालों को) वो वैसे ही दिखते हैं,जैसे छ: महीने पहले देखा था | आँख,नाक,कान और थोबड़े का आकार सब तो वैसे था और तो और नाम भी वही था | हाँ सच में | पता नहीं लोग ऐसे क्यों कहते है कि फलां बदल गया है |
जयश्री जाजू |
शायद लोग इसलिए कहते होंगे क्योंकि जैसे मैं अपना अनुभव उंडेल देती हूँ | वो हुआ यूँ था मैं एक कार्यालय में काम करती थी | मेरे साथ वहाँ और भी लोग थे | मैं अपने काम के प्रति बड़ी समर्पित थी | भई यह बीमारी मुझे बचपन से है | दिए काम को समय से और रचनात्मक तरीके से करने की | खैर थोड़े दिन तो मैं अपना काम बिना किसी से बात किए अर्थात दोस्त बनाए अकेली ही करती रही |
अब बात करने के रोग से कब तक बची रहूँगी | सो इस संक्रमण रोग से मैं भी ग्रसित हो गई | मेरी और मेरे सहकर्मी की,दोनों की अच्छी पटने लगी | उसके साथी मेरे साथी हो गए | हम अपने पतियों की,बच्चों की बुराइयाँ आपस में खुलकर करते | मुझे एक और बीमारी है-- भरोसे की | मैं सभी पर 'भरोसा' बहुत जल्दी कर लेती हूँ | तो इन सबको मैं अपना "लंगोटिया यार" समझ बैठी |
अब बदलाव तो नियम है तो है | मेरा तबादला उसी कार्यालय के दूसरे विभाग में हो गया | लेकिन हमारी मुलाकातों पर इसका कोई असर नहीं हुआ | कार्यालय की छुट्टी के बाद हम अवश्य मिलते | गिले शिकवे (अफसर से लेकर कर्मचारी तक की,परिवार के सदस्यों की ) कर लेते | मैंने पहले ही बता दिया कि मुझे कई बड़ी- बड़ी बीमारियाँ हैं | जैसे भरोसा करना,कोई अच्छे से बात कर ले तो उसे अपना यार समझ लेना आदि | अब मैंने भी अपने इस सहकर्मी को अपना नजदीकी रिश्तेदार अरे.... यार समझ लिया | और मुझे पता ही नहीं चला कि वह मेरा बात-बात में हँसी-हँसी में हर जगह मज़ाक उडाता रहता था | अफसरों से मेरी बातों को बदलकर मेरी नौकरी में विघ्न डाले जा रहा था |
लेकिन प्रकृति में जैसे बदलाव आवश्यक है और वह किसी राज़ को राज़ नहीं रहने देती,उगल देती है | मुझे भी पता चला एक दिन मेरे सहकर्मी का यह बदलाव | मुझे थोडा बुरा भी लगा,लेकिन मनुष्य की प्रकृति भी प्रकृति से मेल तो खानी ही चाहिए | तभी तो वह इस समाज में,दुनिया में, और अपनी नौकरियों में पदोन्नति पा सकता है |
वरना मुझ जैसे जो प्रकृति के परिवर्तन को तो मानते है लेकिन मनुष्य में हुए स्वयं की स्वार्थसिद्धि के बदलाव को पाप समझते है तथा अपने को इससे दूर रखते हैं उन जैसो का तो समाज में,दुनिया में और नौकरियों में पदोन्नति के अवसर का बंटाधार होना ही है |
तो जागो मनुष्य जागो ये कलयुग है जहाँ हंस चुगेगा दाना दून्न का,कोव्वा मोती खाएगा ।
यह रचना जयश्री जाजू जी द्वारा लिखी गयी है . आप अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं . आप कहानियाँ व कविताएँ आदि लिखती हैं .
सच कहा. आजकल तो यही हालात हैं
जवाब देंहटाएंसच में आज कलयुग में तो इंसान की भावनाएं जो मर चुकी है | वह अपने माता-पिता के बारे मे नहीं सोचता है वहाँ पर भी तो वह अपने स्वार्थ को देखता है तो फिर दूसरों के लिए क्या भावना रखेगा ..... |
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