किसी पेड़ के तने में अमिट रहूँगा दिल का निशान बन कर किसी कपड़े की तहों में बचा रहूँगा सुरक्षित एक परिचित गंध बन कर
1. खो गई चीज़ें
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--- सुशांत सुप्रिय
वे कुछ आम-सी चीज़ें थींजो मेरी स्मृति में से
खो गई थीं
वे विस्मृति की झाड़ियों में
बचपन के गिल्ली-डंडे की
खोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं
वे पुरानी एल्बम में दबे
दाग-धब्बों से भरे कुछ
श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थीं
वे पेड़ों की ऊँची शाखाओं में
फड़फड़ाती फट गई
पतंगों-सी अटकी हुई थीं
वे कहानी सुनते-सुनते सो गए
बच्चों की नींद में
अधूरे सपनों-सी खड़ी हुई थीं
कभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ में
हम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थे
तब हम अपनी स्मृति के
किसी ख़ाली कोने को
फिर से भरा हुआ पाते थे ...
खो गई चीज़ें
वास्तव में कभी नहीं खोती हैं
दरअसल वे उसी समय
कहीं और मौजूद होती हैं
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2. स्वप्न
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--- सुशांत सुप्रिय
वह एक स्वप्न था
मेरी नींद में
आना ही चाहता था कि
टूट गई मेरी नींद
कहाँ गया होगा वह स्वप्न --
भटक रहा होगा कहीं
या पा ली होगी उसने
किसी और की नींद में ठौर
डर इस बात का है कि
यदि किसी की भी नींद में
ठिकाना न मिला उसे तो
कहीं निराश हो कर
आत्म-हत्या न कर ले
आज की रात एक स्वप्न
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3. वे जो वग़ैरह थे
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--- सुशांत सुप्रिय
वे जो वग़ैरह थे
वे बाढ़ में बह जाते थे
वे भुखमरी का शिकार हो जाते थे
वे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थे
वे दंगों में मार दिए जाते थे
वे जो वग़ैरह थे
वे ही खेतों में फ़सल उगाते थे
वे ही शहरों में भवन बनाते थे
वे ही सारे उपकरण बनाते थे
वे ही क्रांति का बिगुल बजाते थे
दूसरी ओर
पद और नाम वाले
सरकार और कारोबार चलाते थे
उन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थे
किंतु वे जो वग़ैरह थे
उन्हीं में से
क्रांतिकारी उभर कर आते थे
वे जो वग़ैरह थे
वे ही जन-कवियों की
कविताओं में अमर हो जाते थे ...
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4. जब तक
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--- सुशांत सुप्रिय
जब तक स्थिति पर
क़ाबू पाने
पुलिस आती है
जल चुके होते हैं
दर्जनों घर आगज़नी में
जब तक
फ़्लैग-मार्च के लिए
सेना आती है
मारे जा चुके होते हैं
दर्जनों लोग दंगों में
सुशांत सुप्रिय |
जब तक शांति-वार्ता की
पहल की जाती है
आ चुकी होती है
एक बड़ी दरार मनों में
जब तक
सूरज दोबारा उगता है
अँधेरा लील चुका होता है
इंसानियत को ...
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5. यहीं रहूँगा मैं
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--- सुशांत सुप्रिय
जा कर भी
यहीं रहूँगा मैं
किसी-न-किसी रूप में
किसी प्रिय की स्मृति में
बसा रहूँगा जीवन भर
अपना बन कर
किसी पुस्तक के पन्नों में
पड़ा रहूँगा बरसों तक
हाशिए की टिप्पणी बन कर
किसी पेड़ के तने में
अमिट रहूँगा
दिल का निशान बन कर
किसी कपड़े की तहों में
बचा रहूँगा सुरक्षित
एक परिचित गंध बन कर
या हो सकता है
बन जाऊँ मैं --
किसी थके मज़दूर
की आँखों में
गहरी नींद
किसी मासूम बच्ची
के होठों पर
एक निश्छल मुस्कान ...
कहा न
जा कर भी
यहीं रहूँगा मैं
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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