मैं छत पर बैठी थी,सर्दियों की गुनगुनाती धूप में | अचानक मेरी नज़र उस अकेली बैठी लड़की पर गई ; आश्चर्य इसलिए हो रहा था क्योंकि कुछ लडकियाँ वहाँ पर हँसी मजाक में तल्लीन थी |
वो लड़की
मैं छत पर बैठी थी,सर्दियों की गुनगुनाती धूप में | अचानक मेरी नज़र उस अकेली बैठी लड़की पर गई ; आश्चर्य इसलिए हो रहा था क्योंकि कुछ लडकियाँ वहाँ पर हँसी मजाक में तल्लीन थी | यह लड़की अकेली गुमसुम निर्विकार किसी से कोई सरोकार नहीं ; चुपचाप बैठी थी |
उस लड़की में मेरी जिज्ञासा बढ़ी | मैं छत से नीचे उतर आई | चाय बनाकर चुस्कियाँ लेने लगी | दिमाग में
उसी लड़की की छवि घूम रही थी | मैं उसे झटक देना चाहती थी किन्तु वह मुझपर हावी होती जा रही थी |
जयश्री |
खैर समय सरक रहा था | हमेशा की भांति, तैयार होकर बाजार में सामान खरीदने गई | घर का थोडा सामान लिया | दो घंटे कैसे गुजरे पता ही नहीं चला , इन दो घंटों में उस लड़की का याद न आना मुझे चकित कर गया | सच में इंसान कितनी जल्दी चीजों को भूल जाता है | मुझे याद आता है वो दिन जब पिताजी का देहांत हुआ और हम चीख-चीख कर रो रहे थे | ये क्या बिलकुल तीन चार दिन के बाद माहौल हलका फुल्का होने लगा | मैं सोचती हूँ यदि ईश्वर इंसान को विस्मृति न देता तो इंसान दुखों को कहाँ तक ढोता फिरता |
ये क्या आज मैं उस लड़की को फिर से देख रही हूँ | ठीक वैसे ही अकेली | आज वह बाजार में कुछ खरीद रही थी या देख रही थी , पता नहीं | मैंने अपनी जरुरत का सामान लिया और रिक्शा को आवाज देने लगी | ये क्या वह भी बिलकुल मेरे समीप आ गई और कहने लगी "क्या मैं भी आपके साथ आ सकती हूँ |"
मैंने कहा "हाँ मुझे कोई आपत्ति नहीं , लेकिन क्या तुम मुझे जानती हो |"
उसने कहा "हाँ , आप हमारे मोहल्ले में तो रहती है |"
मैंने रिक्शा किया उसे बिठाया और रिक्शे वाले को पता बताकर मैं भी बैठ गई | मेरे मन में प्रश्न घूम रहा था और मैंने पूछ ही लिया - "मैंने तो तुम्हे छत से एक बार ही देखा था , लेकिन तुम मुझे कैसे जानती हो |"
उसने कहा "मैं मेरे कमरे की खिड़की से आपको रोज देखती हूँ |"
मैंने पूछा " अच्छा वो जो लड़कियाँ खेलती रहती है तुम्हारी बहने हैं |"
उसने संक्षिप्त उत्तर दिया "नहीं"
मैंने पूछा " तुम्हारी इच्छा नहीं होती उनके साथ खेलने की |"
उसने कहा "होती है लेकिन ..... "
वह चुप हो गई | आगे उसने कोई बात नहीं की | हमारा मोहल्ला आ गया | हम अपने - अपने घर चले गए | मैंने शाम का काम निबटाया | खाना खाकर मई अपनी आदत के अनुसार पुस्तक पढ़ने बैठ गई | जब सोने का समय हुआ तो सोने चली गई | सुबह उठकर रोज का काम निबटाकर कॉलेज चली गई | अपने व्याख्यान देकर दो बजे तक घर आ गई | रोज की तरह भोजन कर आराम कर शाम को बाजार चली गई | सामान खरीदा , रिक्शा किया और रिक्शे के पास उस लड़की का मिलना और रिक्शे में बैठ जाना | आश्चर्य कर गया | खैर उस दिन मैंने उसका नाम नहीं पूछा था | आज सबसे पहले मैंने उसका नाम पूछा |
उसने अपना ना" शीतल' बताया | आज मैंने उसमे कुछ बदलाव देखा मैं उससे बात करने की कोशिश कर रही थी, किन्तु वह अनजान बन रही थी | बस हर बात पर हाँ ,हूँ कर रही थी | आखिरकार मैंने उसकी पढ़ाई पर बात छेड़ दी |
"कौनसी कक्षा में पढ़ती हो "
मैंने देखा उसकी आँखों में पानी भर आया | उसने कोई जवाब नहीं दिया | आज मैंने उसे अपने घर चलने का आग्रह किया तो बिना झिझक उसने स्वीकार कर लिया | घर आकर वह बिना झिझक मेरे कामों में हाथ बटाने लगी | सच में अकेलेपन से ऊबी हुई मैं , मुझे यह साथ अच्छा लगा | हम दोनों ने चाय पी, चाय के साथ थोडा स्नेक्स खाया और गपशप करने लगे |
क्रमश:
यह रचना जयश्री जाजू जी द्वारा लिखी गयी है . आप अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं . आप कहानियाँ व कविताएँ आदि लिखती हैं .
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