पति से न कोई मतभेद होता है, न मनभेद हो सकता है और न ही कोई शिकायत । बच्चे की मासूमियत में सब कुछ और भी प्यारा सा लगता है । सब अच्छा ही चल रहा है । अच्छा लगता है अब तो और भी । क्योंकि ख़ुद से ही थी थोड़ी बहुत शिक़ायत, अब वह भी नहीं रही ।
सब अच्छा लगता है
मन की दरो-दीवार शरीर के हर रोम-रोम से सम्पृक्त होती है । कुछ ऐसी कि दर्द मन में होता है और कष्ट झेलता है शरीर । शायद शरीर की तकलीफ़ मन को उस सीमा तक विचलित नहीं कर पाती जिस सीमा तक मन की अवस्था शरीर और दिमाग़ को दही की तरह जमा देती है । और जब मन भीतर तक शान्त हो तो उस शान्ति की स्निग्ध स्वरलहरी रोम-रोम में इस कदर असीम आनन्द की अनुभूति करा पाने में सक्षम होती है कि सब कुछ विशुद्ध सरिता सा प्रवाहित होता चलता है, जीवन के सारे कार्य-कलाप, दैनिक जीवन के झंझट भी, सुख भी, दुख भी, कठिनाइयॉं भी और मुश्किलें भी । ऐसा नहीं होता कि हर दिन सिर को पका देने वाली घटनाओं से दो-चार नहीं होना पड़ता लेकिन पता नहीं दिमाग की नसों में कहॉं से इसे सह जाने की क्षमता आ जाती है और न जाने वे घटनाऍं, दुश्वारियॉं जो लगता था कि निगल जाएंगी, या सॉंस कैसे आएगा इस बंद में-ऐसा प्रतीत होता था,, इतनी सरलता से सिर झुका कर हमसे हार मान जाएगी, कभी-कभी यकीन नहीं होता । यकीन नहीं होता कि मन की शान्ति में इतना भी अधिक दम होता होगा । और जब मन की शान्ति में इतना दम है तो जिस वजह से अवतरित हो पाती है शान्ति की गंगा इस मन के विशाल समुंदर में, वह वजह कितनी सशक्त होगी, इसकी थाह पाना अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों में ही निहित हो सकता है । कमोबेश ऐसी ही मनोदशा किसी योगी, संत की भी तो होती होगी, जब जो है, जैसा है, में ही अपार शान्ति और संतुष्टि लगे । सहज लगता है सब कुछ ऐसे में । अच्छा लगता है सब कुछ ।
आभा के साथ भी पिछले कुछ एक साल से ऐसा ही हो रहा है । आभा के दैनन्दिन के कामों में कोई परिवर्तन
चित्र साभार - thestorypedia.com |
क्या-क्या सोचते हुए आभा कहॉं से कहॉं पहुँच जाती है । बस ऐसे ही चल रही है जि़न्दगी आभा की । हॉ, सुखी और संतुष्ट जीवन है और मानसिक शान्ति है । पति से न कोई मतभेद होता है, न मनभेद हो सकता है और न ही कोई शिकायत । बच्चे की मासूमियत में सब कुछ और भी प्यारा सा लगता है । सब अच्छा ही चल रहा है । अच्छा लगता है अब तो और भी । क्योंकि ख़ुद से ही थी थोड़ी बहुत शिक़ायत, अब वह भी नहीं रही ।
हाल ही में शहर निपटा है सनकीवाल के सम और विषम से । हालांकि भास्कर को कड़ी आपत्ति है आभा के सनकीवाल उपाधि से और इस बारे में दोनों में कुछ वाद-प्रतिवाद भी हो ही जाता है । चलो, और किसी बात पर नहीं तो एक मुद्दा तो है, कुछ विपरीत तर्कों के आदान-प्रदान का । वरना जि़न्दगी में सिर्फ अच्छा ही अच्छा हो तो कभी-कभी अपने और अपनी किस्मत पर अहंकार होने का भय रहता है । लेकिन उन दिनों तो जि़न्दगी और दूभर हो गई थी । अभि को अलग जाना होता, आभा को अलग और भास्कर को अलग जाना होता था । ऑटो वालों से खिच-खिच, सही समय पहुँच पाने का कोई ठिकाना नहीं । हर दूसरे दिन पूरे दिन की छुट्टी लो या आधे दिन की छुट्टी । पैसा अधिक खर्च, और बिना किसी ठोस वजह के, बिना कुछ ठोस परिणाम हासिल हुए, बिना पर्याप्त तैयारी कुछ भी योजना सड़क पर उतार देना, बिना इस बात का आकलन किए कि कितने प्रतिशत लोग उससे प्रभावित होंगे और उससे हासिल कितने प्रतिशत होगा और क्या दूसरे तरीकों को अपनाकर इससे 50 गुना अधिक परिणाम हासिल किए जा सकते हैं, सोची-समझी योजना कम और जल्दबाज़ी में बस ‘कुछ करते दिखने’ का उत्साह अधिक नज़र आता है और यह सब दूरगामी योजना के मार्ग का रोड़ा ही होते हैं । अब ज़रा विरोध करो किसी का भी, तो विपक्षी पार्टी के एजेंट होने का तमगा मिल जाता है । ऐसा लगता है कि दो लोगों की सोच का अन्तर गुनाह है या विपक्ष की साजि़श । स्वस्थ रूप से ख़ुले दिमाग से आजकल कुछ भी लिया ही नहीं जाता ।
तो ऐसे माहौल में दिमाग का दही होना तो तय था । रोज तो अभि और आभा दोनों को ही छोड़ने का काम भास्कर कर देते थे । आते वक़्त आभा स्वयं आ जाती थी और अभि स्कूल बस से । अभि की स्कूल बस उसे लेने 6 बजे सुबह ही पहुँच जाती है, अभि को पहले पिक-अप मिलता है और उसके बाद बस दूसरे बच्चों को लेने
पुष्पलता शर्मा |
आज का खूबसूरत घर-संसार देखकर यकीन ही नहीं होता कि कुछ साल पहले भास्कर और आभा के बीच की दूरी इतनी बढ़ गई थी कि दोनों ही एक दूसरे को, अपनी नहीं बल्कि दूसरे की ख़ुशी के लिए ही सही, छोड़ देना चाहते थे । न भास्कर और न ही आभा दोनों के बीच कोई मनभेद था । लेकिन संवाद का अंतराल इतना बढ़ गया था कि साधारण ढंग से कही गई बात के पीछे भी दोनों को कोई छिपा हुआ मंतव्य समझ आने लगा था । आभा को लगता कि भास्कर उससे परेशान हैं और उसकी हर बात भास्कर को बुरी लगती है, यहॉं तक कि आभा का भास्कर के देर से भोजन करने, बिना नाश्ता किए निकल जाने, दवाइयॉं समय पर नहीं लेने जैसी बातों के बीच भी एक अनकही बाध्यता और बोझ महसूस करने लगी थी आभा । उसे लगता था कि भास्कर उसे प्यार नहीं करते । शायद भास्कर के जीवन में उसकी जगह औपचारिक रिश्ते से अधिक कुछ नहीं । तो क्यों जबरदस्ती किसी को बॉंधकर रखा जाए । अपने मन की कमजोरी और स्वार्थ के लिए किसी को विवश तो नहीं किया जा सकता न कि दूसरा भी आपको अपने मन में जगह दे, जबरदस्ती भी । रिश्ता चाहे पति-पत्नी का ही क्यों न हो, जहॉं आपको अपना अधिकार मॉंगना पड़ जाए, वह एक दबाव का रिश्ता है । अगर किसी के मन में स्थान पाने की मॉंग करनी पड़ जाए, तो भले ही वह रिश्ता कानूनी हक का एक दस्तावेज़ बन जाए, लेकिन मन की गहराइयों के अनकहे बॉंध, ( जो किसी कागज़ से न टूटते हैं न बनाए जा सकते हैं ) निर्मित नहीं हो सकते दो जीवित इकाइयों के बीच । शुक्र है वह दौर गुज़र गया अब । भास्कर के लिए आभा जो कुछ थी, वह कभी कह नहीं पाया, लेकिन अगर आभा और वह सच में अलग हो जाते, दूर हो जाते तो पता नहीं वह कितने दिन खुद को समझा पाता । कोशिश वह भी करता सब कुछ ठीक करने की लेकिन कभी-कभी उसे लगता कि वह आभा को वह सब कुछ नहीं दे पाया, एक आरामदायक जीवन भी, उसे घर का खर्च सुगमता से चलाने के लिए नौकरी भी करनी पड़ रही है और उसकी अति व्यस्तता की वजह से घर का काम पूरा संभालना पड़ रहा है । यह तो ज़्यादती है न आभा के साथ । फिर भी आभा उसकी चिन्ता में घुली रहती है । और भास्कर ! वह तो आभा के फोन या मैसेज का जवाब भी नहीं दे पाता । और वह मैसेज भी भास्कर के लिए ही होते हैं, कभी दवा की याद दिलाने को तो कभी खाना खा लेने को तो कभी और दूसरी छोटी-छोटी सी बातों के लिए, जो अगर आभा याद न दिलाए तो पता नहीं कहॉं-कहॉ और क्या-क्या घालमेल हो जाए । बहुत ग्लानि महसूस होती है उसे । और कभी-कभी लगता था कि खुलकर बात करे कि क्या आभा उससे अलग होकर बेहतर जीवन नहीं जी लेगी । अभी तो जीवन शुरु ही हुआ था । शायद मुझसे कोई बेहतर आभा के लिए उचित हो, उसका ध्यान रख पाए, उसे सहेज पाए, उसे एकदम ऐशो-आराम की जि़न्दगी दे पाए । उसे यूँ खटना न पड़े दो कमरों के फ्लैट में, एक छोटी सी नौकरी के लिए दिन और रात के सिरे मिलाने की कोशिश में , मशीन बन जाने की मजबूरी में । छुई-मुई सी आभा की नज़ाकत को भास्कर की परिस्थितियों का तीखा तेज झुलसा न दे पूरी तरह । उसे भी तकलीफ होती थी आभा को इस तरह सुबह से शाम जूझते देखकर । लेकिन यह समझ नहीं आता था कि हो सकता है आभा की ख़ुशी इसी में हो । भास्कर इसी तरह के विचारों में उलझा रहता । ऐसे उहा-पोह में न ही भास्कर और न ही आभा एक दूसरे से खुलकर बात कर पा रहे थे और न ही इस घर के माहौल के विषव्याप्त समुद्र मंथन में विष बाहर निकालने का अति महत्वपूर्ण काम ही हो पा रहा था । चुप्पी दोनों की, और एक दूसरे से दूर ले जा रही थी । भले ही मन की दुनिया में आभा और भास्कर और अधिक एक दूसरे के करीब आ रहे थे लेकिन बाहरी दुनिया में इसका प्रतिबिम्ब उलट दिखाई पड़ रहा था ।
अब आभा और भास्कर सोचते हैं कि अगर ये दूरी सच हो जाती तो आज की खूबसूरत दुनिया जो अभि के रूप में साकार है, दोनों के सामने, उसके साक्षी बनने से वंचित रह जाते दोनों । कितना सुकून, कितनी शान्ति, कितना आनन्द, सब भविष्य के ऐसे गर्त में समा जाता जो न दोनों कल्पना कर सकते हैं और न ही सहन कर पाते दोनों ही ।
संवाद की महत्ता क्या होती है, और संवाद की कोख में सृजन की कितनी असीम सम्भावनाऍं रहती हैं, यह तो कोई भास्कर और सीमा से पूछे । क्या हो सकता था और क्या विध्वंस होने से बच गया । हालांकि पीड़ा के घनघोर दौर से दोनों किस तरह गु़जरे और किस तरह निकल पाए, यह किसी दुर्गम पहाड़, घाटी की सैर से कम नहीं था । लेकिन अन्तत: मन को यही कहकर समझा लेते हैं कि अन्त भला तो सब भला । पता नहीं प्रारम्भ और अन्त के बीच की अवधि इतनी बेमानी क्यों हो जाती है अन्त भला हो जाने पर । पर इसके अलावा कोई और विकल्प भी तो नहीं !
भास्कर और आभा बैठे आज उसी दिन को याद कर रहे थे और अभि घर के कमरे में ही फुटबॉल उछाल-उछाल कर खेल रहा था । दोनों अभि के भीतर अपने आपको महसूस कर रहे थे, उतने ही खुश, उतने ही आनंदित और उतने ही सुखी तथा संतुष्ट । अगर उस दिन दोनों घर के बड़े लोग दोनों से एक जैसे पॉंच प्रश्न न पूछते और उन पॉंचों प्रश्नों का जवाब दोनों का एक ही न होता तो मुश्किल था इतनी प्यारी दुनिया का साकार हो पाना । पॉंच प्रश्न तो ठीक लेकिन आश्चर्य की बात तो यह न कि आभा और भास्कर दोनों के हर प्रश्न के जवाब एकदम समान थे । पहला- दूर जाना चाहते हो एक दूसरे से ? – जवाब: हॉं । दूसरा- किसके लिए ? जवाब – एक दूसरे की खुशी के लिए । तीसरा- प्यार करते हो अभी भी एक दूसरे से ? जवाब: हॉं । चौथा- अलग रहकर खुश रह पाओगे, जीवन में कभी बात भी नहीं करोगे एक दूसरे से ? जवाब : नहीं । पॉंचवा- अगर भास्कर आभा का और आभा भास्कर का साथ मॉंगे तो देंगे क्या हॉं कहेंगे, एक दूसरे की ख़ुशी के लिए साथ रह सकते हो, एक और मौका जीवन में रिश्ते को देंगे ? जवाब : हॉं ।
और संवर गया था एक दिल का अटूट रिश्ता फिर से बल्कि रिश्ता ही नहीं घर भी जुड़ा था और पक्के धागों से क्योंकि रिश्ता तो कभी टूटा ही नहीं था । और दुनिया की भाषा में कहें तो एक घर टूटने से बच गया था, सम्भावना उत्पन्न हो गई थी एक सृजन के साकार की । हॉं किसी गहरे चुप की अनकही दूरी आ गई थी जिसके सम्भावित नकारात्मक स्वर गूंजने के डर से ही आभा और भास्कर दोनों ने अपने कानों के कपाट तक आने वाले सम्प्रेषण के सारे रास्ते बन्द कर लिए थे । दोनों ही नहीं सुनना चाहते थे कोई नकार की ध्वनि जो डस ले किसी सकार की सम्भावित ध्वनि को । एक हिम्मत की दोनों ने और देखिए न मन की शान्ति का सुखी संसार कैसे पलक पॉंवड़े बिछाए मोहित सुखी और प्रसन्न कर रहा है दोनों को । आभा और भास्कर दोनों की ऑंखें एक दूसरे से अभी भी संवाद कर रही थी और अभि की फुटबॉल दोनों के बीच आकर उनकी ऑंखों के संवाद को आभास करा रही है कि ‘’सपना नहीं सच है यह’’ । अभि दौड़कर आभा और भास्कर के बीच आ गया है अपनी फुटबॉल लेने । दोनों ने शान्ति और सुकून की गहरी सॉंस लेते हुए अभि को अपने बीच बैठा लिया है और उसके दोनों गालों पर दोनों तरफ से स्नेह की छाप अंकित कर रहे हैं और बिन कहे एक दूसरे से कह रहे हैं कि सब कुछ सुन्दर है न ! कितना सुन्दर ! वैसा ही जैसा हमने चाहा था !
यह रचना पुष्पलता शर्मा 'पुष्पी' जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्ली फिर ढिल्ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने....?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्दी अकादमी दिल्ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।
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