सब अच्‍छा लगता है

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पति से न कोई मतभेद होता है, न मनभेद हो सकता है और न ही कोई शिकायत । बच्‍चे की मासूमियत में सब कुछ और भी प्‍यारा सा लगता है । सब अच्‍छा ही चल रहा है । अच्‍छा लगता है अब तो और भी । क्‍योंकि ख़ुद से ही थी थोड़ी बहुत शिक़ायत, अब वह भी नहीं रही ।

सब अच्‍छा लगता है 

मन की दरो-दीवार शरीर के हर रोम-रोम से सम्‍पृक्‍त होती है । कुछ ऐसी कि दर्द मन में होता है और कष्‍ट झेलता है शरीर । शायद शरीर की तकलीफ़ मन को उस सीमा तक विचलित नहीं कर पाती जिस सीमा तक मन की अवस्‍था शरीर और दिमाग़ को दही की तरह जमा देती है । और जब मन भीतर तक शान्‍त हो तो उस शान्ति की स्निग्‍ध स्‍वरलहरी रोम-रोम में इस कदर असीम आनन्‍द की अनुभूति करा पाने में सक्षम होती है कि सब कुछ विशुद्ध सरिता सा प्रवाहित होता चलता है, जीवन के सारे कार्य-कलाप, दैनिक जीवन के झंझट भी, सुख भी, दुख भी, कठिनाइयॉं भी और मुश्किलें भी । ऐसा नहीं होता कि हर दिन सिर को पका देने वाली घटनाओं से दो-चार नहीं होना पड़ता लेकिन पता नहीं दिमाग की नसों में कहॉं से इसे सह जाने की क्षमता आ जाती है और न जाने वे घटनाऍं, दुश्‍वारियॉं जो लगता था कि निगल जाएंगी, या सॉंस कैसे आएगा इस बंद में-ऐसा प्रतीत होता था,, इतनी सरलता से सिर झुका कर हमसे हार मान जाएगी, कभी-कभी यकीन नहीं होता । यकीन नहीं होता कि मन की शान्ति में इतना भी अधिक दम होता होगा । और जब मन की शान्ति में इतना दम है तो जिस वजह से अवतरित हो पाती है शान्ति की गंगा इस मन के विशाल समुंदर में, वह वजह कितनी सशक्‍त होगी, इसकी थाह पाना अध्‍यात्‍म के गूढ़ रहस्‍यों में ही निहित हो सकता है । कमोबेश ऐसी ही मनोदशा किसी योगी, संत की भी तो होती होगी, जब जो है, जैसा है, में ही अपार शान्ति और संतुष्टि  लगे ।   सहज लगता है सब कुछ ऐसे में । अच्‍छा लगता है सब कुछ । 
आभा के साथ भी पिछले कुछ एक साल से ऐसा ही हो रहा है  । आभा के दैनन्दिन के कामों में कोई परिवर्तन
भारतीय माँ
चित्र साभार - thestorypedia.com
नहीं आया है । वही हर दिन की तरह सुबह जल्‍दी उठना, अभि को उठाना, उसे तैयार करना, उसका स्‍कूल बैग तैयार करना, स्‍कूल भिजवाना । रोज़ की ही बात है । अभि को उठाना और उसे तैयार करना एक बहुत बड़ा मुद्दा होता है । बच्‍चे की आनाकानी को देखकर मन करता है, क्‍यों हम बचपन को खॉंचों में बंद कर रहे हैं । कैसी सामाजिक व्‍यवस्‍था बना रखी है हमने ! छोड़ क्‍यों नहीं पा रहे छोटे-छोटे बच्‍चों को उन्‍मुक्‍त आकाश को छूने, उसे स्‍वतंत्र रूप से अनुभव करने और उनके वज़न से भी भारी स्‍कूल बैग के बजाय प्रकृति के सान्निध्‍य में, बुजु़र्गों की छत्रछाया में, और व्‍यावहारिक जीवन की प्रायोगिक पाठशाला में । जब बच्‍चा मॉं-बाप के साथ रात के 11 बजे सोयेगा तो उससे 4-5 बजे उठने की उम्‍मीद रखना उसके मानसिक विकास से खिलवाड़ ही तो है । महानगर में फ्लैट सिस्‍टम में दो कमरों के मकान में बच्‍चों के लिए अलग से कमरा कहॉं से हो या ऐसी जगह जहॉं न किचन की आवाज़ जाए और न लाइट की समस्‍या हो । टी वी का त्‍याग भी  बच्‍चे के लिए तो कर ही सकते हैं, लेकिन कुल मिलाकर होता ही है आधा, पौना या एक घण्‍टा जिसके बीच टी वी भी देख कर थोड़ी विश्रान्ति भी मिल जाती है, मनोरंजन भी हो जाता है और कुछ ज़रूरी बातों का आदान-प्रदान भी हो जाता है । वरना अलग से वक्‍त ही कहॉं होता है ।  और सुबह भी हम ही कहॉं उठ पाते हैं नींद पूरी करके । हमेशा आधी-अधूरी नींद में उठना तो वर्षों का रुटीन हो गया है । मजबूरी है । चार बजे न उठें या उठाऍं तो पॉंच बजे तक बच्‍चे को दैनिक कार्यों से फा़रिग़ करवाना, नहलाना और कुछ दूध आदि देना सम्‍भव ही नहीं हो पाता । महाशय आधा घण्‍टा तो सिर्फ़ उठने न उठने की आनाकानी में निकाल देते हैं । फिर  कितना भी कुछ कर लो, रात को सोने में 11 बज ही जाते हैं । पति नाम का प्राणी भी दिन भर ऑफि़स के बाद भी जब घर पर बैठकर वास्‍तव में काम ही कर रहा हो मजबूरीवश, तो स्‍त्री-पुरुष अधिकार और वैयक्तिक स्‍वतंत्रता की बातें बेमानी भी लगती हैं और अरुचिकर  भी । बल्कि दया आती है यथाि‍स्थति देखकर पति की । सहायता तो करने की कोशिश करते ही हैं लेकिन वस्‍तुि‍स्थति जानकर भी अनदेखा करूँ और जानकर सिर्फ़ स्‍त्री स्‍वातंत्रय के नाम पर बेकार का बोझ डालूँ उन पर, मुझसे होगा नहीं यह- और यह सोचकर आभा घर और ख़ुद के ऑफिस का काम संतोष और ख़ुशी से संभालती रहती है । सब कुछ तो ठीक हो गया है । बस थोड़ी सुबह की मारा-मारी है । काश  ऑफिस दस बजे से होता तो कम से कम दैनिक काम नहाना-धोना  भी इत्‍मीनान से हो पाता और पूरे दिन की आपा-धापी से लेकर रात को जल्‍दी सोने का असफल दबाव और दोस्‍तों रिश्‍तेदारों से समय के अभाव में सिमटते रिश्‍ते कुछ बेहतर तरीके से बहाल रखे  जा सकते थे  ।  कौन समझाए किसको  कि पॉंच दिन सुबह सात-आठ  बजे औसतन घर छोड़ देना और रात के साढ़े सात आठ बजे घर वापस आना – एक रोबोट सी जि़न्‍दगी हो गयी है । पति बच्‍चों से बात करने का समय भी नहीं बचता । सुबह तो कोई बात ही नहीं होती और रात को अगला दिन सम्‍भालने  के दबाव में मन मसोसकर रह जाना पड़ता है कि चलो कल करते हैं ।  शनिवार को कुछ बाहरी काम और रविवार को हफ्ते भर के कपड़े  समेटना, बदलना,  धोना, धुलवाना, सब्‍ज़ी किराना लाना या मंगवाना आदि-आदि और कुछ अपने निजी काम जैसे बालों की संभाल, तेल आदि लगाना । कहीं बहुत ही ज्‍़यादा ज़रूरी हुआ तो किसी के घर में उत्‍सव, ग़मी आदि में सम्मिलित होना । इससे तो बेहतर होता सुबह दस बजे तक का ऑफिस । कम से कम रोज़ की दिनचर्या तो संभली होती, भले ही एक ही दिन अवकाश का मिलता । लेकिन दैनिक  कामों के तीसों दिन के दबाव के कारण स्‍वास्‍थ्‍य पर लगातार बुरा असर पड़ रहा है, पता नहीं इसकी अनदेखी हम क्‍यों कर रहे हैं । काम के घण्‍टों पर फिर से अध्‍ययन होना ही चाहिए । अंग्रेज़ों के हिसाब के काम के घण्‍टे हम हिन्‍दुस्‍तानियों के खॉंचे  में फिट नहीं बैठते । अब तो दीपावली भी तीन दिन और सच कहें तो एक ही दिन की रह गयी है । होली के आस-पास हमेशा परीक्षाऍं होती हैं । कैसे तो बच्‍चों को पैतृक स्‍थानों पर रिश्‍तेदारों के घर ले जाऍं और उन्‍हें त्‍यौहार का वास्‍तविक मर्म पढ़ाऍं, उसकी शिक्षा दें । धनतेरस को भी जब आभा ही घर सही समय पर नहीं पहुँच पाती तो पूजा कैसे सही समय पर हो । साढ़े  सात बजे आकर, ग्‍यारह बज जाते हैं पूजा की तैयारी करते  और पूजा शुरू करते-करते   । ग्‍यारह बजे पति आएंगे फिर नहा-धो कर पूजा में  बैठेंगे  और अगले दिन फिर ऑफिस जाना ही है रुटीन में । क्‍या तो पूजा करेंगे और  क्‍या  संस्‍कार सिखाएंगे बच्‍चे को रात के साढ़े ग्‍यारह बजे । अगर यह बात किसी से कहो तो अपने आप से ही शिकायत हो जाती है कि कोई समझेगा कि कामचोरी की मानसिकता तो यह नहीं बोल रही । और कितनी छुट्टी चाहिए इनको । भारत तो छुि‍टटयों का देश है ही, फिर भी  शिकायत ।  लेकिन ये बात  बिलकुल नहीं है ।  मूलत: भारत त्‍यौहारों, उत्‍सवों का देश है । हर मनोदशा को स्‍वस्‍थ मनोदशा में बहाल रखने,  परिवर्तित करने का  दम है भारतीय त्‍यौहारों में  ।  चाहे होली हो,  दीवाली हो,  भाई दूज हो, राखी  हो,  लोहड़ी, पोंगल, आदि आदि कोई भी त्‍यौहार उत्‍सव हो । हमारा स्‍वभाव हो गया है कि हम किसी की भी कही बात को अतिशयता की चोटी तक ले जाते हैं,  सहजता से किसी का वैयक्तिक विचार मानकर उस पर विचार नहीं करते, सबसे पहले उसे सिरे से ख़ारिज कर देते हैं । हम कितनी सुविधाजनक स्थिति में  होने के बावजूद कुछ बुनियादी कमियों पर ध्‍यान  आकर्षित करते या कराते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि जो कुछ है उससे ज्‍़यादा की हवस ही यह सब बोल रही है । अगर हम बच सकें ऐसी अतियों से, तो बेहतर विचार दर्शन सामने आ सकते हैं जो अस्‍वीकार्यता के डर से जन्‍म ही नहीं ले पाते । अगर ऐसा हो जाए तो न ही औवेसी का विचार आम जन को परेशान कर पाएगा और  न ही  साध्‍वी निरंजना के अतिशयता  वाले  बयानों से किसी को लेश मात्र भी फर्क पड़ेगा  ।  न ही योगी आदित्‍यनाथ की बात को अन्‍यथा लिया जाएगा और न ही सुब्रहमण्‍यम स्‍वामी  जैसे लोगों  के  लीक से हटे हुए मुद्दे लोगों  को  परेशान  करेंगे  ।
क्‍या-क्‍या सोचते हुए  आभा कहॉं से  कहॉं  पहुँच  जाती  है  । बस ऐसे ही चल रही है जि़न्‍दगी आभा की । हॉ,  सुखी और संतुष्‍ट  जीवन है और मानसिक शान्ति  है । पति से न कोई मतभेद होता है, न मनभेद हो सकता  है  और न ही कोई शिकायत । बच्‍चे की मासूमियत में सब कुछ और भी प्‍यारा सा लगता है । सब अच्‍छा  ही  चल रहा है । अच्‍छा लगता है अब तो और भी । क्‍योंकि ख़ुद से ही थी थोड़ी बहुत शिक़ायत,  अब वह भी नहीं रही । 
हाल ही में शहर निपटा है सनकीवाल के सम और विषम से । हालांकि भास्‍कर को कड़ी आपत्ति है आभा के सनकीवाल उपाधि  से और इस बारे में दोनों में कुछ वाद-प्रतिवाद भी हो ही जाता है । चलो, और किसी बात पर नहीं तो एक मुद्दा तो है, कुछ विपरीत तर्कों के आदान-प्रदान का । वरना जि़न्‍दगी में सिर्फ अच्‍छा ही अच्‍छा हो तो कभी-कभी अपने और अपनी किस्‍मत पर अहंकार होने का भय रहता है । लेकिन उन दिनों तो जि़न्‍दगी और दूभर हो गई थी । अभि को अलग जाना होता, आभा को अलग और भास्‍कर को अलग जाना होता था । ऑटो वालों से खिच-खिच, सही समय पहुँच पाने का कोई ठिकाना नहीं । हर दूसरे दिन पूरे दिन की छुट्टी लो या आधे दिन की छुट्टी  ।  पैसा अधिक  खर्च, और बिना किसी ठोस वजह के, बिना कुछ ठोस परिणाम हासिल हुए, बिना  पर्याप्‍त तैयारी कुछ भी योजना सड़क पर उतार देना,  बिना इस बात का आकलन किए कि कितने प्रतिशत लोग उससे प्रभावित होंगे और उससे हासिल कितने प्रतिशत होगा और क्‍या दूसरे तरीकों को अपनाकर इससे 50 गुना अधिक परिणाम हासिल किए जा सकते हैं,  सोची-समझी योजना कम और जल्‍दबाज़ी में बस ‘कुछ करते दिखने’ का उत्‍साह अधिक नज़र आता है और यह सब दूरगामी योजना के मार्ग का रोड़ा ही होते हैं । अब ज़रा विरोध करो किसी का भी, तो विपक्षी पार्टी के एजेंट होने का तमगा मिल जाता है । ऐसा लगता है कि दो लोगों की सोच का अन्‍तर गुनाह है या विपक्ष की साजि़श । स्‍वस्‍थ रूप से ख़ुले दिमाग से आजकल कुछ भी लिया ही नहीं जाता । 
तो ऐसे माहौल में दिमाग का दही होना तो तय था ।  रोज तो अभि और आभा दोनों को ही छोड़ने का काम भास्‍कर कर देते थे । आते वक्‍़त आभा  स्‍वयं आ जाती थी और अभि स्‍कूल बस से  । अभि की स्‍कूल बस उसे लेने 6 बजे सुबह ही पहुँच जाती है, अभि को पहले पिक-अप मिलता है और उसके बाद बस दूसरे बच्‍चों को लेने
पुष्पलता शर्मा
पुष्पलता शर्मा
जाती है । कुछ रूट ही ऐसा तय है कि बस पहले अभि को लेने आ जाती है कभी कभी तो सुबह 6 बजे के भी पहले । अ‍ब किन-किन बातों पर माथापच्‍ची करें । शिकायत करने लग जाऍं तो लगता है आधी जि़न्‍दगी शिकायत में ही निकल जाएगी । फिर भी समाधान निकलेगा  या नहीं, कहा नहीं जा सकता और अगर निकल भी आए समाधान, तो तब तक उस समाधान की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी ।  अब हमारे पास है एक कार और जानेवाले तीन । या तो मैं ले जाऊँ, या भास्‍कर । अब जब भास्‍कर मुझे छोड़ते हुए ऑफिस जा ही सकते हैं और लौटते हैं रात 10 बजे, घर पहुँचते-पहुँचते 11 बज जाते हैं रात के । तो स्‍वाभाविक सी बात है कि कार की ज़रूरत उनको अधिक है । अब दो-दो कार रखना बजट के लिहाज़ से इतना आसान भी तो नहीं । और फिर अलग-अलग सिर्फ ऑफिस ही तो जाना होता है, बाकी सब जगह तो तीनों को एक साथ ही जाना होता है । फिर दो कार का वित्‍तीय बोझ और क्‍यों लादा जाए, अनावश्‍यक ही । महानगर में खर्च कोई कम तो नहीं होता । कहने के लिए तीन प्राणी हैं लेकिन खाने-पीने का खर्च तो वैसे भी बहुत ज्‍़यादा नहीं होता । ये बाहरी खर्चे ही दोनों के वेतन की कमर तोड़ देते हैं  । ऐसा नहीं कि दोनों को मिलाकर कम पैसा मिलता हो दूसरों के मुकाबले । जि़न्‍दगी आसानी से चल ही जाती है । लेकिन इतनी भी नहीं कि एक फुल-टाइम मेड रख लें ताकि मैं अपना क्‍वालिटी समय अभि की पढ़ाई और भास्‍कर के रात तक के काम में कुछ मदद कर पाऊँ और इस तरह साथ में कुछ अधिक समय भी बिता  पाऍं और रुटीन भी थोड़ा सहज हो जाए । रात को जल्‍दी सो पाऍं तो कम से कम सुबह आसानी होगी अभि का स्‍कूल और भास्‍कर और मेरा ऑफिस मैनेज करने में होगी ।
आज का खूबसूरत घर-संसार देखकर यकीन ही नहीं होता कि कुछ साल पहले भास्‍कर और आभा के बीच की दूरी इतनी बढ़ गई थी कि दोनों ही एक दूसरे को, अपनी नहीं बल्कि  दूसरे की ख़ुशी के लिए ही सही, छोड़ देना चाहते थे । न भास्‍कर और न ही आभा दोनों के बीच कोई मनभेद था । लेकिन संवाद का अंतराल इतना बढ़ गया था कि साधारण ढंग से कही गई बात के पीछे भी दोनों को कोई छिपा हुआ मंतव्‍य समझ आने लगा था । आभा को लगता कि भास्‍कर उससे परेशान हैं और उसकी हर बात भास्‍कर को बुरी लगती है, यहॉं तक कि आभा का भास्‍कर के देर से भोजन करने, बिना नाश्‍ता किए निकल जाने, दवाइयॉं समय पर नहीं लेने जैसी बातों के बीच भी एक अनकही बाध्‍यता और बोझ महसूस करने लगी थी आभा । उसे लगता था कि भास्‍कर उसे प्‍यार नहीं करते । शायद भास्‍कर के जीवन में उसकी जगह औपचारिक रिश्‍ते से अधिक कुछ नहीं । तो क्‍यों जबरदस्‍ती किसी को बॉंधकर  रखा जाए । अपने मन की कमजोरी और स्‍वार्थ के लिए किसी को विवश तो नहीं किया जा सकता न कि दूसरा भी आपको अपने  मन में जगह दे,  जबरदस्‍ती भी । रिश्‍ता चाहे पति-पत्‍नी का ही क्‍यों न हो, जहॉं आपको अपना अधिकार मॉंगना पड़ जाए, वह एक दबाव का रिश्‍ता है । अगर किसी के मन में स्‍थान पाने की मॉंग करनी पड़ जाए, तो भले ही वह रिश्‍ता कानूनी हक का एक दस्‍तावेज़ बन जाए, लेकिन मन की गहराइयों के अनकहे बॉंध, ( जो किसी कागज़ से न टूटते हैं न बनाए जा सकते हैं ) निर्मित नहीं हो सकते दो जीवित इकाइयों  के बीच । शुक्र है वह दौर गुज़र गया अब । भास्‍कर के लिए आभा जो कुछ थी, वह कभी कह नहीं पाया, लेकिन अगर आभा और वह सच में अलग हो जाते, दूर हो जाते तो पता नहीं वह कितने दिन खुद को समझा पाता । कोशिश वह भी करता सब कुछ ठीक करने की लेकिन कभी-कभी उसे लगता कि वह आभा को वह सब कुछ नहीं दे पाया, एक आरामदायक जीवन भी, उसे घर का खर्च सुगमता से चलाने के लिए नौकरी भी करनी पड़ रही है और उसकी अति व्‍यस्‍तता की वजह से घर का काम पूरा संभालना पड़ रहा है । यह तो ज्‍़यादती है न आभा के साथ । फिर भी आभा उसकी चिन्‍ता में घुली रहती है । और भास्‍कर ! वह तो आभा के फोन या मैसेज का जवाब भी नहीं दे पाता । और वह मैसेज भी भास्‍कर के लिए ही होते हैं, कभी दवा की याद दिलाने को तो कभी खाना खा लेने को तो कभी और दूसरी छोटी-छोटी सी बातों के लिए, जो अगर आभा याद न दिलाए तो पता नहीं कहॉं-कहॉ और क्‍या-क्‍या घालमेल हो जाए । बहुत ग्‍लानि महसूस होती है उसे । और कभी-कभी लगता था कि खुलकर बात करे कि क्‍या आभा उससे अलग होकर बेहतर जीवन नहीं जी लेगी । अभी तो जीवन शुरु  ही हुआ था । शायद मुझसे कोई बेहतर आभा के लिए उचित हो, उसका ध्‍यान रख पाए, उसे सहेज पाए, उसे एकदम ऐशो-आराम की जि़न्‍दगी दे पाए । उसे यूँ खटना न पड़े दो कमरों के फ्लैट में, एक छोटी सी नौकरी के लिए दिन और रात के सिरे मिलाने की कोशिश में , मशीन बन जाने की मजबूरी में । छुई-मुई सी आभा की नज़ाकत को भास्‍कर की परिस्थितियों का  तीखा तेज झुलसा न दे पूरी तरह । उसे भी तकलीफ होती थी आभा को इस तरह सुबह से शाम जूझते देखकर । लेकिन यह समझ नहीं आता था कि हो सकता है आभा की ख़ुशी इसी में हो ।  भास्‍कर इसी तरह के विचारों में उलझा रहता । ऐसे उहा-पोह में न ही भास्‍कर और न ही आभा एक दूसरे से खुलकर बात कर पा रहे थे और न ही इस घर के माहौल के विषव्‍याप्‍त समुद्र मंथन में विष बाहर निकालने का अति महत्‍वपूर्ण काम ही हो पा रहा था । चुप्‍पी दोनों की, और एक दूसरे से दूर ले जा रही थी । भले ही मन की दुनिया में आभा और भास्‍कर और अधिक एक दूसरे के करीब आ रहे थे  लेकिन बाहरी दुनिया  में इसका प्रतिबिम्‍ब उलट दिखाई पड़ रहा था । 
अब आभा और भास्‍कर सोचते हैं कि अगर ये दूरी सच हो जाती तो आज की खूबसूरत दुनिया जो अभि के रूप में साकार है, दोनों के सामने, उसके साक्षी बनने से वंचित रह जाते दोनों । कितना सुकून,  कितनी शान्ति,  कितना आनन्‍द, सब भविष्‍य के ऐसे गर्त में समा जाता जो न दोनों कल्‍पना कर सकते हैं और न ही सहन कर  पाते दोनों ही । 
संवाद की महत्‍ता क्‍या होती है, और संवाद की कोख में सृजन की कितनी असीम सम्‍भावनाऍं रहती हैं, यह तो कोई भास्‍कर और सीमा से पूछे । क्‍या हो सकता था और क्‍या विध्‍वंस होने से बच गया । हालांकि पीड़ा के घनघोर दौर से दोनों किस तरह गु़जरे और किस तरह निकल पाए, यह किसी दुर्गम पहाड़, घाटी की सैर से कम नहीं था । लेकिन अन्‍तत: मन को यही कहकर समझा लेते  हैं कि अन्‍त भला तो सब भला । पता नहीं प्रारम्‍भ और अन्‍त के बीच की अवधि इतनी बेमानी क्‍यों हो जाती है अन्‍त भला हो जाने पर । पर इसके अलावा कोई और विकल्‍प भी तो नहीं !
भास्‍कर और आभा बैठे आज उसी दिन को याद कर रहे थे और अभि घर के कमरे में ही फुटबॉल उछाल-उछाल कर खेल रहा था । दोनों अभि के भीतर अपने आपको महसूस कर रहे थे, उतने ही खुश, उतने ही आनंदित और उतने ही सुखी तथा संतुष्‍ट । अगर उस दिन दोनों घर के बड़े लोग दोनों से एक जैसे पॉंच प्रश्‍न न पूछते और उन पॉंचों प्रश्‍नों का जवाब दोनों का एक ही न होता तो मुश्किल था इतनी प्‍यारी दुनिया का साकार हो पाना ।  पॉंच प्रश्‍न तो ठीक लेकिन आश्‍चर्य की बात तो यह न कि आभा और भास्‍कर दोनों के हर प्रश्‍न के जवाब एकदम समान थे । पहला- दूर जाना चाहते हो एक दूसरे से ? – जवाब: हॉं । दूसरा- किसके लिए ? जवाब – एक दूसरे की खुशी के लिए । तीसरा- प्‍यार करते हो अभी भी एक दूसरे से ? जवाब: हॉं । चौथा- अलग  रहकर खुश रह पाओगे, जीवन में कभी बात भी नहीं करोगे एक दूसरे से ?  जवाब : नहीं । पॉंचवा- अगर भास्‍कर आभा का और आभा भास्‍कर का साथ मॉंगे तो देंगे क्‍या हॉं कहेंगे, एक दूसरे की ख़ुशी के लिए साथ रह सकते हो, एक और मौका जीवन में रिश्‍ते को देंगे ? जवाब : हॉं । 
और संवर गया था एक दिल का अटूट रिश्‍ता फिर से बल्कि रिश्‍ता ही नहीं घर भी जुड़ा था और पक्‍के धागों से क्‍योंकि रिश्‍ता तो कभी टूटा ही नहीं था । और दुनिया की भाषा में कहें तो एक घर टूटने से बच गया था,  सम्‍भावना उत्‍पन्‍न हो  गई थी एक सृजन के साकार की ।  हॉं  किसी गहरे चुप की अनकही दूरी आ गई थी जिसके  सम्‍भावित नकारात्‍मक स्‍वर गूंजने के डर से ही आभा और भास्‍कर दोनों ने अपने कानों के कपाट तक आने वाले सम्‍प्रेषण  के सारे रास्‍ते बन्‍द कर लिए थे । दोनों ही नहीं सुनना चाहते थे कोई नकार की ध्‍वनि जो डस ले किसी सकार की सम्भावित ध्‍वनि को  । एक हिम्‍मत की दोनों ने और देखिए न मन की शान्ति का सुखी संसार कैसे पलक पॉंवड़े बिछाए मोहित सुखी और प्रसन्‍न कर रहा है दोनों को । आभा और भास्‍कर दोनों की ऑंखें एक दूसरे से अभी भी संवाद कर रही थी और अभि की फुटबॉल दोनों के बीच आकर उनकी ऑंखों के संवाद को आभास करा रही है कि ‘’सपना नहीं  सच है यह’’  । अभि दौड़कर आभा और भास्‍कर के बीच आ गया है अपनी फुटबॉल लेने । दोनों ने शान्ति और सुकून की गहरी सॉंस  लेते हुए अभि को अपने बीच बैठा लिया है और उसके दोनों गालों पर दोनों तरफ से स्‍नेह की छाप अंकित कर रहे हैं  और बिन कहे एक दूसरे से कह रहे हैं कि  सब कुछ सुन्‍दर है न ! कितना सुन्‍दर !  वैसा ही जैसा हमने चाहा था ! 



यह रचना पुष्पलता शर्मा 'पुष्पी' जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्‍कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्‍ली फिर ढिल्‍ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने....?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्‍प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्‍पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्‍दी अकादमी दिल्‍ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।

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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: सब अच्‍छा लगता है
सब अच्‍छा लगता है
पति से न कोई मतभेद होता है, न मनभेद हो सकता है और न ही कोई शिकायत । बच्‍चे की मासूमियत में सब कुछ और भी प्‍यारा सा लगता है । सब अच्‍छा ही चल रहा है । अच्‍छा लगता है अब तो और भी । क्‍योंकि ख़ुद से ही थी थोड़ी बहुत शिक़ायत, अब वह भी नहीं रही ।
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