गाड़ी रफ्तार पर थी और अधिकतर यात्रियों की नींद भी। विविध प्रकार के खर्राटों की आवाजे़ं बोगी में गूंज रही थीं। परन्तु शिवम की आँखों में नींद नहीं थी। वह अपनी बर्थ पर लेटा करवटें बदल रहा था। घर के सदस्यों के एक के बाद एक चेहरे उसकी आँखों में घूम रहे थे और साथ ही उनकी बातें अभी तक कानों में गूंज रही थी।
बुजुर्ग
गाड़ी रफ्तार पर थी और अधिकतर यात्रियों की नींद भी। विविध प्रकार के खर्राटों की आवाजे़ं बोगी में गूंज रही थीं। परन्तु शिवम की आँखों में नींद नहीं थी। वह अपनी बर्थ पर लेटा करवटें बदल रहा था। घर के सदस्यों के एक के बाद एक चेहरे उसकी आँखों में घूम रहे थे और साथ ही उनकी बातें अभी तक कानों में गूंज रही थी। पर सबसे अधिक गुस्सा उसे पिता पर था। जो सब कुछ जानकर भी या तो चुप रह जाते है या न्याय की बात न कहकर गलत के साथ खड़े हो जाते हैं। कहाँ गए उनके वे आदर्श जो बचपन में सिखाया करते थे - “किसी का हिस्सा मारना पाप है। माता-पिता की नजरों में सब बराबर हैं।” आज इस सबके विपरीत वे रात दिन बड़े भाई की तरफदारी में लगे हैं। जिसने सबसे कम कमाया उसी को सबसे बड़ा हिस्सा देना चाहते हैं। यह कैसी बराबरी है? छोटे सभी को आदेश है आयोजनों पर इकट्ठे हों और खर्च भी अपना करें। यह कैसा मेल-मिलाप है? दूर से आने वाले अपना घर, ड्यूटी छोड़कर आएं। किराया भाड़ा खर्च करें। बड़े भाई का इतना भी फर्ज़ नहीं जो सबके खाने की व्यवस्था कर सकें। यदि घर आकर भी खुद ही खाना जुटाना है तो आने का मतलब ही क्या है? इतने पर भी पिता का तर्क होता है - “उसके पास है ही क्या जो खर्च करे? तुम लोग बड़े-बड़े पदों पर हो अच्छा वेतन पा रहे हो। तुम्हारे लिए ये मामूली खर्च हैं। आते रहने और मिलते-जुलते रहने से बच्चों में प्यार बढ़ता है और जगह भी तो पिकनिक मनाने जाते हो। यहाँ भी पिकनिक मनाने आ जाया करो।” अब उन्हें कौन समझाए पिकनिक, पिकनिक होती है। वहाँ घरेलू झंझट और क्लेश तो नहीं होता है। आपसी तनातनी और कहा सुनी नहीं होती है। पर जिद्द है तो बस है। पिता के लिए उसकी परेशानी समझना मुश्किल है। क्योंकि स्वयं तो एक अर्से से कोई यात्रा की ही नहीं है। फिर रेलों के लम्बे सफर की परेशानियों का एहसास हो भी कैसे। शिवम् को कभी-कभी लगता कि परिवार में छोटा होना ही मुसीबत है। न किसी की बात को इन्कार किया जा सकता है न ही कोई सहारा बनता है।
शिवम् का शरीर थक कर चूर था। सिर भारी हो रहा था। पर चाह कर भी सो नहीं पा रहा था। आँखों से नींद गायब थी और दिल में ऐसे ही ख्याल न जाने क्यों रह-रह कर उठ रहे थे। वह जब भी घर से लौटता तो ऐसे ही विचार उसे कई दिनों तक परेशान करते रहते। पर न जाने अपनेपन में कैसा सम्मोहन है। कुछ दिन बाद सब भूल जाता और पिता से मिलने अपने पैतृक शहर पहुँच जाता। शिवम् को लगा शायद यह सब बड़े परिवारों की समस्याएँ हैं। पर नहीं, उसके दोस्तों के यहाँ ऐसे झमेले नहीं हैं। संभवतः उनके बुजुर्ग अधिक समझदार हैं या भाईयों में
एक दूसरे की जरूरतों को सोचने की समझ अधिक है। उसके दिमाग में विदेशी समाज भी घूम गया। सुना है विदेशों में सब अपनी जिम्मेदारी स्वयं सम्भालते हैं। बहुत कम उम्र में ही वहाँ बच्चे आत्मनिर्भर हो जाते हैं। यह अपने देश में ही है जो साठ साल की उम्र में भी परिवार के सहारे की जरूरत महसूस की जाती है। पिता, भाई को अपने जीते जी आत्मनिर्भर होने नहीं देंगे। फिर उसे लगा कि हिन्दुस्तान में भी शायद हिन्दू परिवारों में बुजुर्गों के ये व्यवहार हैं और ये ही आपसी झगड़ों के कारण भी हैं। देर रात तक शिवम् ऐसे ही वैचारिक झमेलों में फंसा रहा और न जाने कब उसकी आँख लग गई।
शिवम की नींद अभी अधकच्ची ही थी कि बौगी में सुबह की गहमागहमी शुरू हो गई। चाय, काफी वालों की टेर और यात्रियों की आवाजाही को लगातार नजरंदाज करते हुए शिवम मुँह ढके लेटा रहा। उठकर भी क्या करता? रोज की भागमभाग से उसे आज लम्बे समय के बाद निजात मिली थी। सोए रहना उसके वश में नहीं था तो क्या? लेटने पर तो कोई पाबंदी नहीं थी। उसने बर्थ का पूरा किराया दिया है तब क्यों अभी से सिकुड़ कर बैठे। वह तो पैर फैलाकर लेटेगा यही विचार कर शिवम जागकर भी सोता रहा। परन्तु सात बजते-बजते उसका लेटे रहना संभव न रहा। उसकी बर्थ पर धीरे से बैठने वाले अब उसे धकेल कर अपना पूरा स्थान लेने की कोशिश कर रहे थे। ऊपर की बर्थ पर बैठने की जगह तलाशते बच्चे बार-बार चढ़ते उतरते हुए पैरों से टकरा रहे थे और बोगी में रह-रह कर शोर उठ रहा था। हार कर शिवम उठ बैठा। कुछ ही देर में उसे समझ में आ गया कि कोई त्यौहार करीब है। उसी को मनाने की खुशी या मजबूरी में जन सैलाब बाल गोपालों को खसीटते, पीटने और दुलारते यात्रा करने पर उतारू है। शिवम खिन्न सा सोचने लगा - “भारत त्यौहारों का देश है। यही तो यहाँ की खासियत है या कहो ढेरों समस्याओं का केन्द्र इन त्यौहारी यात्राओं में ही है। हम जहाँ है वहाँ के रिवाजों और मनुष्यों को छोड़कर अपनों की तलाश में दौड़ते हैं। पर वहाँ भी अब अपने-अपने कहाँ रह गए हैं। वे शायद परायों से भी पराए हो गए हैं। तब भी यह अपनेपन का जुनून हर जाति, वर्ग, धर्म और समूह के लोगों को त्यौहारों के नाम पर इधर से उधर दौड़ाता ही रहता है।” शिवम खिड़की के बाहर भागते-दौड़ते पेड़ पौधों और खेत बस्तियों को देखने लगा। वह बोगी की चिलपौ से बचकर कुछ पल प्रकृति का आनंद ले रहा था। बचपन में याद किए और जवानी में सुने ढेरों काव्यांश व फिल्मी नगमें उसके मस्तिष्क में बाहरी प्राकृतिक दृश्यों की भाँति ही दौड़ने लगे और आहिस्ता से वह उन्हें एक के बाद एक गुनगुनाने लगा। इस समय वह रात के क्लेश से एकदम मुक्ति पा चुका था। कुछ देर बाद शिवम कॉफ़ी पीते हुए घर लौटकर कार्यों के निबटाने के विषय में विचारने लगा। इन चार दिनों में ढेरों काम घर और बाहर इकट्ठे हो गए होंगे। आज पहुँचते ही जितना जल्दी हो उन्हें करना है वरना कल से घर और दफ्तर के बीच की दौड़ शुरू हुई नहीं कि सारे काम छूटे।
गाड़ी में अब रात वाली रफ्तार नहीं रह गई थी। वह हर छोटे-बड़े स्टेशन पर थकी हारी सी विश्राम करते हुए आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही थी। यात्रियों में चाय, नाश्ते के साथ ही गाड़ी के समय से पहुँचने को लेकर चर्चा चल रही थी। सभी अपने-अपने अनुभवों और रेल विभाग की अकर्मण्यता को आँकते हुए फैसले सुना रहे थे। यहाँ हर कोई विशेषज्ञ था। दूसरे के बताए में कुछ न कुछ घट-बढ़ करना उसका दायित्व था। यह खुला मंच था सभी स्वेच्छा से अपने विचार रख रहे थे। न उम्र की बाध्यता थी न ही विषय की। इन्ही सब कयासों के चलते गाड़ी
अपर्णा शर्मा |
अपनी निर्धारित छवि चार छः घंटे देरी से पहुँचने के अनुरूप मंथर गति से मंजिल की ओर बढ़ रही थी।
दोपहर बारह बजे तक स्पष्ट हो गया कि गाड़ी तीन चार बजे से पहले पहुँचने वाली नहीं है। जो अभी तक घर जाकर भोजन करने का मन बनाए थे वे स्टेशन पर उतर कर भोजन की तलाश में लग गए। कितनों ने मोबाइल निकाल कर घर वालों और नातेदारों को सूचित करना प्रारंभ कर दिया और बहुतों के लिए फोन आने शुरू हो गए। वे सब मात्र संवेदना ही व्यक्त कर सकते थे। ‘काल गति टारे नहीं टरे’ की भाँति ट्रेन गति को घटाना-बढ़ाना भी उनके वश में नहीं था। हाँ इस देरी ने सहयात्रियों के वार्तालाप में इजाफा कर दिया था। जो अभी तक एकाकी थे या देर से मोबाइल में आँखे गड़ाए थे मुखर होने लगे थे। शिवम का ध्यान भी सामने बर्थ पर बैठे दो किशोरों पर गया। वे कभी नर्म और कभी गर्म जोशी से एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे। उनसे छोटे दो नटखट इधर-उधर भाग रहे थे। शिवम से एक बर्थ पहले संभवतः उनके परिवार के और लोग थे। वे उन्हीं के पास से आ जा रहे थे। सामने-साइड बर्थ पर झक सफेद दाढ़ी व कुर्ता पजामा में एक बुजुर्ग थे जो एक पुस्तक में नजर गड़ाए थे। तभी एक अधेड़ ने खाने का कुछ सामान लाकर उन बुजुर्ग के सामने रख दिया। पुस्तक बैग में रख कर वे खाने लगे। उन्हें कुछ ख्याल आया और उन अधेड़ से बोले- “तहजीब तुमने शौकत को फोन कर दिया कि गाड़ी लेट है।”
“नहीं। उसका फोन आया है। उसने पता कर लिया है। इसीलिए वो अपने परिवार के साथ गाँव को निकल रहा है।”
“और हम कहाँ जाएंगे?” बुजुर्ग हाथ में निवाला पकड़े हुए बोले।
“हम भी सवारी लेकर सीधे गाँव जाएंगे।”
“ऐसे क्यों जाएंगे। तुम उसको फोन करो और कहो रूक जाय। सब लोग साथ जाएंगे।”
“मैं क्यों फोन करूँ। उन्हें यह खुद नहीं सोचना चाहिए। जाना है तो जाएं। क्या हमें रास्ता मालूम नहीं है?” तहजीब ने थोड़ा ऊँची आवाज़ में कहा।
“उससे यह तो बूझते बकरा लिया या नहीं।”
“यह उसकी अपनी जिम्मेदारी है।”
“वह समझे तब तो।”
“न समझे तो मैं क्या करूँ?”
“तुम वही करो जो मैं कह रहा हूँ।”
“नहीं मैं फोन नहीं करूंगा। यह सब उसे खुद बताना चाहिए।”
“तुम बड़े भाई हो। तुम्हारा भी कुछ फर्ज हैं।”
“जो है मैं जाकर सम्भाल लूंगा।”
“बुजुर्ग बेचैन हो गए। खाना एक ओर सरका दिया और अफसोस सा जाहिर करते हुए बोले- “यही मोहब्बत है तुम भाइयों में? वो तीसरा विदेश से कल पहुँच रहा है त्यौहार मनाने। यही सब देखने-सुनने आ रहा है वो? यहाँ एक भाई दो घंटे दूसरे का इंतजार करने को तैयार नहीं है और दूसरा इंतजाम का मालूमात करने को एक फोन तक नहीं कर रहा है। तुम लोग क्यों नहीं समझते हो? साल भर का त्यौहार है। त्यौहार की रौनक तभी है जब पूरा परिवार हँसी-खुशी मिल-जुलकर मनाएँ।”
शिवम एकटक उन बुजुर्ग को देख रहा था। उनका एक-एक शब्द एक-एक वाक्य कल की घटना से मेल खाता नजर आ रहा था।
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा ने मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ. शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जल धारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागेदारी बनी रही है। सम्पर्क -
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, “विश्रुत”, 5, एम. आई .जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद (उ. प्र.), पिनः 211004, दूरभाषः + 91-0532-2542514 दूरध्वनिः + 91-08005313626 ई-मेलः <draparna85@gmail.com>
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