अपनी बेटी की शादी की तैयारियाँ करते वक़्त अचानक मेरी नज़र राधा पापड़ के पैकेट पर पड़ी, और मुझे अचानक ही राधाबाई की याद आ गई। राधाबाई हमारे घर के पीछे वाली गली में रहने वाली एक बेहद दुखियारी विधवा महिला थी।
राधाबाई
अपनी बेटी की शादी की तैयारियाँ करते वक़्त अचानक मेरी नज़र राधा पापड़ के पैकेट पर पड़ी, और मुझे अचानक ही राधाबाई की याद आ गई। राधाबाई हमारे घर के पीछे वाली गली में रहने वाली एक बेहद दुखियारी विधवा महिला थी। उसकी आँखें हमेशा ही डबडबाई हुई होतीं। माँ से बाते करते हुए वह कई बार अपने आँसू पोछा करती थी। हम उसके दुःख से पूरी तरह अनजान थे। वह अभावां का दौर था। उस समय हम सभी भाई-बहनों के कपडे़ माँ घर में ही सीलती थी, और बची हुई चिन्दियों को संभाल कर रखती थी। इन चिन्दियों से वो पैर पोछने का फुट-मैट, बैठने के लिए आसनी आदि बनवाया करती थी। खराब साड़ी और फटे-पुराने कपड़ों से कथरियां (गुदड़ियां) बनवाया करती थी। ये गुदड़ियां ही हमें भयंकर ठण्ड से बचाती थीं। फटे-पुराने कपड़ों और चिन्दियों को उपयोगी वस्तु बनाने में राधाबाई को महारत हासिल थी। माँ उन्हें पूरा का पूरा गट्ठर उठाकर दे देती थी। इन चिन्दियों से जब उपयोगी चीजें़ बनकर आती थीं तो हमे ऐसा लगता था कि घर में नई-नई चीज़ें आ गई हैं। उस समय हमें जो खुशी मिलती थी, आज वह मॉल से हज़ारों रूपये की शॉपिंग करने के बाद भी नहीं मिलती है।
चित्र साभार - भास्कर.कॉम |
अक्षय तृतीया(अक्ति) के दिन हम सभी-भाई बहन गुड्डे-गुडियों की शादी किया करते थे। बाज़ार में मिलने वाले गुड्डे-गुड़ियों की कीमत पचास पैसे मात्र होने के बावज़ूद उसे खरीदने की हमारी हैसियत नहीं थी। ख़ैर अक्षय तृतीया के दिन राधाबाई सुबह से ही हमारे घर पर आ जाती थी। उसे देखकर हम सभी भाई-बहन बेहद खुश हो जाते थे। वह हमारे साथ-साथ मुहल्ले के दूसरे ग़रीब बच्चों के लिए भी गुड्डे-गुड़िया बनाने के लिये चिन्दियाँ ले जाया करती थीं। शाम पाँच बजते-बजते वो गुड्डे-गुड़ियां को दूल्हा-दुल्हन के रूप में सजाकर ले आती थी। अपने उत्साह के अतिरेक में हम चार-पाँच बार अपने गुड्डे-गुड़ियां के बनने की प्रक्रिया को देखने के लिये राधाबाई के घर हो आते थे। हमें राधाबाई किसी देवदूत से कम नहीं लगती थी।
इस बीच हम बांस की खपच्चियों से विवाह का मण्डप बनाकर तैयार रखते थे। आम की पत्तियों से मण्डप की छत बनाया करते थे। हम एक लोटे में पानी रखकर उसके चारों ओर आम की पत्तियाँ सजाते, और उसके बीच में दिया जलाया करते थे। गुड्डे-गुड़ियों की शादी को लेकर हमारे मन में बडा़ उत्साह होता था। हम दिन-भर आस-पास के घरों में टिकावन टिकने का न्योता दे आते थे। अभावों के उस दौर में लोग टिकावन के रूप में दस-बीस पैसे के सिक्के ही डालते, पर हमें खज़ाना मिलने का अहसास सा होता था।
राधाबाई की सबसे बडी़ विशेषता यह थी कि वह ग़रीब होने के बावजूद पैसों के लिये यह काम नहीं करती थी। वह कहती कि उसे गुड्डे-गुड़िया बनाना बहुत अच्छा लगता है, इसलिए वह बनाती है। तो भी लोग उसे बदले में चावल, आटा या शक्कर आदि चीज़ें दे दिया करते थे। एक तरह से वह दूसरों पर आश्रित ही थी। मेरी बहन की कुछ सहेलियां उसके घर के पास ही रहा करती थी। वे बताती थीं कि राधाबाई का लड़का एकदम नालायक़ है, और अपनी माँ पर हाथ उठाता है। इसी कारण वह दुःखी रहती है। राधाबाई का लड़का हमसे चार-पाँच साल बडा़ था, और चौथी कक्षा तक ही पढ़ पाया था। उसकी संगत बेहद ख़राब लोगों के साथ थी। यह बात पता चलने पर कि वह अपनी देवी जैसी माँ पर हाथ उठाता है, हमें उससे बेहद नफ़रत सी हो गई थी। हम उससे बचकर ही चलते थे। रफ़्ता-रफ़्ता समय बीत रहा था। एक दिन राधाबाई हमारे घर पर आई और हमारी माँ के सामने फूट-फूटकर रोने लगी। अब तक हमारी समझ विकसित हो चुकी थी। वह रोते-राते माँ को बता रही थी कि उसके बेटे ने एक नीच जाति की लड़की से मंदिर में शादी कर ली है, और उसे घर में ले आया है। राधाबाई हमारी माँ से राय लेना चाह रही थी कि अब क्या किया जाये। माँ ने उसे समझाया कि उन्होंने शादी कर ही ली है, और दोनों ही बालिग़ हैं तो तुम्हें तो उसे अपनी बहू स्वीकारना ही होगा। ख़ैर, उसकी बहू बेहद ख़ूबसूरत होने के साथ-साथ बडी़ प्रतिभा सम्पन्न भी थी। उसमें नेतृत्व क्षमता भी गज़ब की थी। वह एक मिलनसार महिला थी और लोगां से तुरंत ही घुल-मिल जाती थी। वह अक्सर अपनी सास के साथ ही हमारे घर पर आती और हमारी बड़ी बहनों से कुछ-कुछ जानकारियाँ हासिल करती रहती। उसने नये ज़नरेशन की दुखती रग को पकड़ लिया था कि यह जनरेशन श्रम साध्य कामों से बचना चाहता है। जल्द ही उसने एक महिला समूह बना लिया और पापड़, बड़ी और अचार के बिज़नेस में कूद पड़ी। कुछ ही सालों में उसके बनाये पापड,़ बडी़ और अचार एक ब्राण्ड के रूप में जाना जाने लगा। ब्राण्ड का नाम भी उसने अपनी सास के नाम से राधा ही रखा था। उसकी बहू राधाबाई से बेहद प्रेम करती थी। राधाबाई के दिन अब पूरी तरह से फिर चुके थे। उसका बेटा भी आवारागर्दी छोड़कर अब अपनी पत्नी के कामों में हाथ बंटाने लगा था। राधाबाई इतनी सुयोग्य बहू को पाकर बेहद खुश थी। आमतौर पर दूल्हे-दुल्हन को बड़े आशीर्वाद देते हैं, पर हमें लगता था कि अक्षय तृतीया पर चिन्दियों से बने गुड्डे-गुड़ियों ने राधाबाई को आशीर्वाद दे दिया था कि उसे सर्वगुण संपन्न लक्ष्मी जैसी बहू मिले।
यह रचना आलोक कुमार सातपुते जी द्वारा लिखी गयी है . आप हिन्दी और उर्दू में समान रूप से लेखन कार्य करते हैं . आपकी देश के अधिकांश हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। पाकिस्तान के अंग्रेजी अख़बार डान की उर्दू वेबसाईट में धारावाहिक रूप से लघुकथाओं का प्रकाशन हो चुका है . संग्रह का प्रकाशन- 1 शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली के नवचेतन प्रकाशन,से लघुकथा संग्रह अपने-अपने तालिबान का प्रकाशन। 2 सामयिक प्रकाशन समूह दिल्ली के कल्याणी शिक्षा परिषद से एक लघुकथा संग्रह वेताल फिर डाल पर प्रकाशित। 3 डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह मोहरा प्रकाशित । 4 डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से किस्से-कहानियों का संग्रह बच्चा लोग ताली बजायेगा प्रकाशित । 5 उर्दू में एक किताब का प्रकाशन। अनुवाद - अंग्रेजी उड़िया ,उर्दू एवम् मराठी भाषा में रचनाओं का अनुवाद एवं प्रकाशन ।
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बेहतरीन रचना है.
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