परिवार नियोजन की योजनाओं ने मध्यम वर्ग को छोटे परिवारों के रूप में थोड़ी राहत क्या दी कि बच्चों की परवरिश ही टेढ़ी खीर हो गई।
उदार
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा
परिवार नियोजन की योजनाओं ने मध्यम वर्ग को छोटे परिवारों के रूप में थोड़ी राहत क्या दी कि बच्चों की परवरिश ही टेढ़ी खीर हो गई। इसका भी अहम् हिस्सा बच्चों की शिक्षा के व्यय और व्यस्तता ने माता-पिता की सारी सोच और सामाजिक परिवेश को ही बदल दिया। पहले महानगरों में और अब छोटे कस्बों तक में बच्चों के स्कूल में प्रवेश से कक्षा पास होने तक का समय इतना संजीदा हो गया कि माता-पिता का हर दिन बालकों के शैक्षिक कार्यक्रमों से तय होने लगा। बालक का स्कूल प्रवेश न हुआ मानो माता-पिता का दाखिला हो गया। बालक परीक्षा दे और माता-पिता पाठ रटे यह आम रिवाज़ चल निकला। आहिस्ता-आहिस्ता मौहल्ले पड़ौस, रिश्तेदारी और मित्र वर्गों में बालको की शिक्षा की बढ़ती प्रतियोगिता ने लोगो को आपसी मेल-जोल, दूसरे की
प्रशंशा करना, अपने बच्चे की सहज क्षमता को आँक पाना आदि बहुत से संवेदनात्मक मुद्दों पर रूढ़ बना दिया। अब यह शायद अनिवार्यता ही बन गई है। इस परिश्रम के परिणाम तो कुछ हद तक सुखद मिल रहे हैं। परन्तु यह पूरी प्रक्रिया इतनी तनावग्रस्त हो चली है कि बच्चों की परीक्षा खत्म होते ही बच्चे माता-पिता सब उससे कुछ समय के लिए दूर भाग जाना चाहते हैं। पर्यटन की बढ़ती सुविधाएँ इस पलायन को और प्रोत्साहित कर रही है। माता-पिता बच्चे इसी बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पर्यटन पैकेज पर नज़र बनाए रखते हैं और मौका पाते ही अपने बजट व छुट्टियों के हिसाब से निकल पड़ते हैं।
उस दिन का माहौल भी खुशनुमा था। एक दिन पहले ही बच्चों की वार्षिक परीक्षा समाप्त हुई थी। साल भर पस्त पाँच छः हम उम्रों के परिवार ने एक छोटी सी पिकनिक का आयोजन किया था। घूमने खाने के बाद थोड़े विश्राम के ख्याल से वे एक पार्क में बैठ गए। शीघ्र ही बच्चे अपनी टीम बनाकर भाग दौड़ के खेल में व्यस्त हो गए। बड़े बारी-बारी से अपनी-अपनी रुचि अनुसार कोई गाना, कोई किस्सा, तो कोई चुटुकुला सुनाकर सबका मनोरंजन करने लगे। परन्तु कुछ देर बाद ही बातों का सिलसिला चल निकला। जो विभिन्न मुद्दों से होता हुआ एक खास चर्चा पर आकर ठहर गया और इस मुद्दे पर शीघ्र ही गर्मागर्म बहस छिड़ गई। अभी तक का एक जुट दल दो गुट्टों में बँट गया-पुरुष और महिला वर्ग। बहस की जड़ में वही आए दिन कि साल दर साल चलती समस्या थी कि परिवार में किस तरह काम का नियोजन किया जाय और बच्चों को अधिकाधिक समय दिया जाय। इसमें पुरुष वर्ग से तमाम तर्क उदाहरण और दलीलें आ रहीं थीं कि हमारी अब कोई निजी दिनचर्या नहीं है। हम हर समय बच्चों के कार्य को तैयार रहते हैं। पर महिला वर्ग इतने से संतुष्ट नहीं था। उधर से अभी भी असंख्य घरेलू कार्यों की फ़हरिश्त पेश की जा रही थी जिन पर पुरुष ध्यान नहीं देते थे या करते भी थे तो इतना बिगाड़ कर की उल्टा लेने के देने पड़ जाय। जितना समय काम करने में न लगे उससे अधिक संवारने में लग जाय। महिलाओं का तर्क था कि आज महिलाओं का बाहरी कार्य और व्यस्तता बढ़ रही है। अतः पुरुषों को अब अपनी सदियों पुरानी बेतुकी अकड़ को छोड़ कर घरेलू काम में महिलाओं की पूरी तरह मदद करनी चाहिए। पुरुष वर्ग आसानी से हार मानने वाला नहीं था। वे इमानदारी से अपनी क्षमता और समझ से घरेलू काम सम्भालने का दावा कर रहे थे। अंत में सबको अलग-अलग अपने-अपने अनुभवों और कार्यों को बताना तय हुआ। दो चार ने अपने कार्य गिनवाए। उनकी बीवियों ने भी हामी भरी और दोनों के सहयोग से घर के खुशनुमा माहौल को स्वीकारा।
कुछ की पत्नियां नौकरी वाली थीं। उनका कहना था कि हमारी तो गृहस्थ बगैर दोनों के बराबर सहयोग किए चल ही नहीं सकती है। उनकी पत्नियों ने भी सहमति जताई- “अब हमारी तो इसे मजबूरी कहो या जरूरत। दोनों को सुबह पाँच बजे से रात ग्यारह बजे तक दौड़ना ही पड़ता है। न करें तो बच्चे बर्बाद हो जाएंगे।”
पुरुषों में एक अति उदार या यूँ कहें पूरी तरह नर-नारी के दायित्व भेदों को मिटा चुके पति बोल पड़े- “मेरे घर में मर्दों की परम्परा केवल बाहरी कार्य सम्भालने की रही है। हमारे पिता, ताऊ, चाचाओं ने कभी घर में पानी का गिलास भी भर कर नहीं पिया। पर मुझे अपनी बीवी को घर में बंद नहीं रखना था। सो मैंने उसे बाहरी काम सौंपे। जिन्हें वह खुशी-खुशी निभाती है। मैं भी अपने परिवार की पुरानी मान्यताओं को छोड़कर स्वयं खाना लेकर खा लेता हूँ और जरूरत पड़ने पर बच्चों को भी खिला देता हूँ।” कुछ ने उनकी पत्नी की ओर देखा। उसने सहमति में सिर हिलाया और बोलीं- “हाँ जी यह तो सही है। ये छोटा मोटा काम करने में संकोच नहीं करते हैं। वरना इनकी पहली पीढ़ी के किस्से सुनकर तो घबराहट होती है।”
अपर्णा शर्मा |
साथियों ने थोड़ी प्रशंसक नजरों से उन्हें देखा। महिला वर्ग से आवाज़ आई- “भाई साहब समय का यही तकाजा है। आप सही कर रहे हैं।” इस सबसे वे इतने जोश में आ गए कि एक ऐसा वाक्य बोल दिया जो शायद घर से बाहर जाना उचित नहीं था। पत्नी की ओर इशारा करते हुए कह गए- “मैं तो इनके छोटे कपड़े धोने तक से परहेज नहीं करता हूँ।”
इस बात पर साथी कुछ व्यंग से मुस्कुराए और उनकी अर्धांग्नि जरा शर्मा गई पर महफिल हम उम्रों की थी। अतः सभी ने कुछ पल एक दूसरे की ओर देखा और फिर पूरा वातावरण जोरदार ठहाकों से गूंज गया। पर शत प्रतिशत सहमति, खुशी या सुख कहीं भी होना संभव नहीं हैं। यह इन्सानी समाज है। जब लगता है सब सहमत हैं तभी कोई न कोई अपनी असहमति दर्ज कराने आगे आ जाता है। इसी वृत्ति के चलते यहाँ भी एक असंतुष्ट ने खुशनुमा माहौल का रूख बदल दिया। शायद ये अपने पति की असमय, अनावश्यक, निरर्थक और बेतुकी सेवाओं से त्रस्त थीं। बोल पड़ी- “भाई साहेब ये कैसी पत्नी सेवा है। सेवा ही करनी है तो बर्तन उठाकर रखने से क्या भला होगा? कभी पूरे चौके के बर्तन मांज कर भी देखो। खाना परसा खाया बस। कभी यह जानने की भी कोशिश करो कि उस खाने के बनाने में कितना पसीना बहाना पड़ता है? दिन के कितने घंटे बीवी को चौके में बिताने पड़ते हैं और उनके आंतरिक वस्त्र धोकर तो आपने जैसे पत्नी सेवा का झंडा ही गाड़ दिया है। भाई साहब मदद ही करनी है तो कभी डबल बैड के चादर और कंबल धोकर देखो या होली, दिवाली चार छः पर्दे ही धो लिया करो। बच्चों का फैलाया घर और बूढ़ो के पसारे कामों से निबटने का अंदाजा है आपको। मेहमानों का आना और जाना कितना काम छोड़ता है इस पर तो शायद आपने कभी सोचा भी नहीं होगा....।”
वे अपने आवेग में बोल रहीं थीं और पति महोदय की सारी पत्नी सेवाओं पर पानी फिर गया था। अभी तक की उनकी खुशहाल पत्नी पर लोग तरस खाने लगे थे।
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लेखिका
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा ने मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ. शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जल धारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागेदारी बनी रही है।
शिक्षा - एम. ए. (प्राचीन इतिहास व हिंदी), बी. एड., एम. फिल., (इतिहास), पी-एच. डी. (इतिहास)
प्रकाशित रचनाएं –
भारतीय संवतो का इतिहास (शोध ग्रंथ), एस. एस. पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994, ISBN: 81-85396-10-8.
खो गया गाँव (कहानी संग्रह), माउण्ट बुक्स, दिल्ली, 2010, ISBN: 978-81-90911-09-7-8.
पढो-बढो (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012, ISBN: 978-81-8097-167-9.
सरोज ने सम्भाला घर (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012, ISBN: 978-81-8097-168-6.
जल धारा बहती रहे (कविता संग्रह), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2014, ISBN: 978-81-8097-190-7.
चतुर राजकुमार (बाल उपन्यास), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-800-0 (PB).
विरासत में मिली कहानियाँ (कहानी संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-801-7 (PB)
मैं किशोर हूँ (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-802-4 (PB).
नीड़ सभी का प्यारा है (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-808-6 (PB).
जागो बच्चो (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-803-1 (PB).
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं एवं कहानियाँ प्रकाशित । लगभग 100 बाल कविताएं भी प्रकाशित । दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं काव्यगोष्ठियों में भागीदार।
सम्पर्क -
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, “विश्रुत”, 5, एम. आई. जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद, (उ. प्र.), पिनः 211004, दूरभाषः + 91-0532-2542514, दूरध्वनिः + 91-08005313626, ई-मेलः <draparna85@gmail.com>
बहुत बढ़िया आपका नया लेख अच्छा लगा, शुभकामनाये !
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