25 जुलाई भारत के महान समाजशास्त्री एवं साहित्यकार प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे की जयंती है। वे भारत के उन चुनिंदा ख्यातिलब्ध समाजशास्त्रियों में से थे.
पारिवारिकता से परे महान भारतीय समाजशास्त्री : प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे
स्मृतिलेख – डॉ. शुभ्रता मिश्रा
प्रारम्भ से ही मानवीय संस्कृति और सभ्यता में तिथियों का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। जयंतियाँ, पुण्यतिथियाँ या फिर विशिष्ट कार्यों के सम्पादन की तिथियाँ, प्रतिवर्ष जब अपने नियत समय पर नए संवत्/सन् के साथ आती हैं, तब संबंधित व्यक्तियों अथवा तथ्यों के पुनर्स्मरण, पुनरावलोकन और पुनर्विश्लेषण के साथ वे स्मृतियाँ क्रमशः पारिजात की मानिंद अम्लान होती जाती हैं। 25 जुलाई भारत के महान समाजशास्त्री एवं साहित्यकार प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे की जयंती है। वे भारत के उन चुनिंदा ख्यातिलब्ध समाजशास्त्रियों में से थे, जिनको हिन्दी साहित्यकार कांति कुमार जैन ने अपनी पुस्तक "जो कहूँगा सच कहूँगा" में डीलक्स प्रोफेसर की उपाधि से सम्मानित किया है। यूँ तो प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे अपने मित्रों, शिष्यों, सहकर्मियों और सहयोगियों के द्वारा प्रोफेसर दुबे, डॉक्टर दुबे या दुबेजी या सर आदि संबोधनों से संबोधित किए जाते थे, परन्तु मेरे लिए यह परम सौभाग्य का विषय है कि ईश्वर ने मुझे उनको "मामाजी" कहने का नैसर्गिक-आनुवांशिक अधिकार प्रदान किया।
प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे |
प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे का जन्म मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में 25 जुलाई 1922 को सिवनी में हुआ था। उनके पिता तत्कालीन छत्तीसगढ़ के दक्षिणपूर्व के सुदूर अंचल में बसी जमींदारीनुमा रियासत कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स के प्रबंधक थे और माता अति धर्मपरायण थीं। सात वर्ष की छोटी सी आयु में ही उनके सिर से माँ का साया उठ गया था। बचपन में मेरी माँ भी कभी कभी उनके यहाँ जाकर रहतीं थीं, क्योंकि वे दोनों भाई-बहन अपने अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। उस समय तो संयुक्त परिवारों में सगे या चचेरेपन में भेद कर पाना मुश्किल ही होता था। मेरी माँ की माँ का भी जब वे दो वर्ष की थीं तभी देहांत हो गया था। अतः ये दोनों भाई-बहन अपनी दादी के सानिध्य में लाड़ की पराकाष्ठाओं को तोड़कर पले बढ़े थे। बेहद लाड़ले, बेहद जिद्दी, उनके इस स्वभाव को हमने तक कभी कभी महसूस किया है क्योंकि जन्मजात स्वभाव मनुष्य के साथ ताजन्म जुड़े रहते हैं। माँ बतातीं हैं कि मामाजी ने ही उनका नाम बड़े प्यार से मालती रखा था और मामाजी को घर में छोटे बड़े सभी लोग श्याम भैया कहकर ही बात करते थे। मेरी माँ उनकी बेहद लाड़ली थीं।
प्रोफेसर दुबे की प्रारंभिक शिक्षा नरसिंहपुर के ही सरकारी प्राथमिक विद्यालय में हुई। मेरी माँ अक्सर मामाजी के बचपन का एक किस्सा सुनाया करतीं हैं कि जब मामाजी उस स्कूल में पढ़ते थे, तो एक बार उनके किसी शिक्षक ने किसी बात पर उनको डाँट लगा दी थी। इससे बचपन से ही प्रखर और कुशाग्र बुद्धि परन्तु गुस्सैल स्वभाव वाले श्याम भैया को इतना गुस्सा आया कि स्कूल की छुट्टी के बाद शिक्षक को धमकी दे डाली कि अब तुम मेरे घर के सामने से निकल कर दिखाओ मैं तुम्हें देख लूँगा। गुस्से से भरे श्याम भैया घर आए तो बस्ता एक तरफ पटका और एक लम्बा सा डण्डा लिए बैठ गए घर के मुख्य दरवाजे पर बुंदेलखण्डी में कुछ बड़बड़ाते हुए से। शिक्षक को बात समझ में आ गई थी कि श्याम कोई साधारण बच्चा नहीं है, चुपचाप दूसरे दरवाजे से घर के लोगों को मामला बताया और फिर दादी के कहने व समझाने पर बात समाप्त हुई। लेकिन कहीं न कहीं अपने जीवन की इस पहली सामाजिक घटना से ही मामाजी ने सामाजिकता की पहली परिभाषा को अपने मस्तिष्क में टंकित कर लिया होगा।
माँ बताती हैं कि उस समय मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ा मुश्किल होता था। पढ़ाई बहुत कठिन और पूरी अँग्रेजी माध्यम में होती थी, इसलिए अक्सर लड़कियाँ अधिक से अधिक सातवीं कक्षा तक पढ़कर पढ़ाई छोड़ देतीं थीं। परन्तु मेरा ननिहाल उस समय के आभिजात्य वर्ग का एक उत्कृष्ट परिवार था, जहाँ घर में ही मंदिर में कृष्ण के साथ साथ सरस्वती का पूजन भी किया जाता था। मेरी माँ भी एक कुशाग्र बुद्धि वाली विदुषी छात्रा थीं और इस बात का गर्व हमेशा मामाजी को भी रहा। एक बार बातों के दौरान उन्होंने ही हमें बड़े गर्व के साथ बताया था कि मालती (मेरी माँ) ही एकमात्र छात्रा थीं जिनका मैट्रिक में फर्स्ट डिवीजन आया था, जबकि उस समय मामाजी भी सेकण्ड डिवीजन आए थे। कुछ प्रारब्धों, कुछ सामाजिकताओं और कुछ रूढ़िवादिताओं के चलते प्रोफेसर दुबे की लाड़ली बहन ने भूगोल की स्नातक ही रहकर स्थानीय स्कूल की भूगोल और अँग्रेजी की शिक्षिका बनकर पूरा जीवन शिक्षा को समर्पित कर दिया। समय समय पर दोनों भाई-बहन मिलते रहते थे कभी पत्रों के द्वारा तो कभी टेलीफोनों के द्वारा। मामाजी पारिवारिकता से परे जाते जा रहे थे और एक महान समाजशास्त्री के नाम से अखबारों, पत्रिकाओं, रेडियों और बाद बाद में टेलिविजनों के माध्यम से हम तक सदैव पहुँचते रहे। परन्तु मेरी माँ की बातों में हमेशा जीवंत बने रहते थे।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा |
प्रोफेसर दुबे ने नागपुर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर ऑनर्स प्रथम श्रेणी में कर उच्च शिक्षा प्राप्त की। मानव विज्ञान को अपने शोध का विषय चुनकर उन्होंने विशेष रूप से छत्तीसगढ़ की कमार जनजाति को अपने अध्ययन का केंद्र बनाया। भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी उन्होंने विश्वविद्यालयों में सामाजिक नृविज्ञान और समाजशास्त्र के अध्ययन को एक नवीन दिशा प्रदान की। उन्होंने बिशप कॉलेज, नागपुर, महाराष्ट्र में एक व्याख्याता के रूप में अपने कैरियर की शुरूआत की। फिर उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में अध्यापन कार्य किया। इसके बाद वे उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद में रीडर के पद पर नियुक्त किए गए। माँ बताती हैं जब मामाजी हैदराबाद में थे, तब वे भी कुछ दिनों के लिए उनके साथ रहीं। मामाजी के बड़े बेटे मुकुल बहुत छोटे थे और हैदराबादी तहज़ीब में बात बात में सभी से अपनी मधुर तोतली बोली में "शुक्रिया" कहना सीख गए थे। परन्तु वे बतातीं हैं कि उन दिनों श्याम भैया की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गईं थीं। वे घर और घर के लोगों को ज्यादा तो क्या बिल्कुल भी समय नहीं दे पाते थे। उन दिनों वे भारतीय गाँवों पर अपना शोधकार्य कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वाँ शहरों से 25 किमी दूर बसे शामीरपेट नामक गाँव पर अपना समग्र शोधमस्तिष्क केंद्रित करते हुए गहन सामाजिक अध्ययन किया और उसके आधार पर ही उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडियन विलेज’ लिखी थी। उस किताब के अंतिम वाक्यों में उन्होंने लिखा, ‘कहा नहीं जा सकता कि शताब्दी के अंत तक शामीरपेट की नियति क्या होगी। संभव है वह विकराल गति से बढ़ते महानगर का अर्ध-ग्रामीण अंतः क्षेत्र बन जाए...।’ आज सन् 2016 में उनकी कही यह बात बिल्कुल सच लगती है। मामाजी की इंडियन विलेज पुस्तक ने इतनी तरुण उम्र में ही उनको नृविज्ञान और समाजशास्त्र का महानायक बना दिया था। उनकी इस पुस्तक का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। पुस्तक लेखन के दौरान ही वे स्कूल ऑफ ओरिएंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज़ (एसओएएस) और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में भी रहे। वहाँ उन्होंने अपनी पुस्तक के लिए रेमंड फर्थ सहित अनेक शिक्षाविदों के साथ गहन विचार विमर्श किया।
अब वे भारत के सबसे कम उम्र के जाने माने समाजशास्त्री के रुप में स्थापित होकर बेहद लोकप्रिय हो गए थे। उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद के बाद उनको नागपुर में भारत के मानव विज्ञान सर्वेक्षण के निदेशक का उत्तरदायित्व सौंपा गया। इसके बाद एक बार फिर नियति उनको अपनी जन्मस्थली से निकट दूरी पर स्थित विख्यात सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनाकर ले आई थी, जहाँ शीघ्र ही वे सद्य स्थापित किए गए नृविज्ञान और समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष भी बनाए गए। सागर आने पर मेरी माँ का सम्पर्क फिर अपने श्याम भैया से बढ़ गया था। मेरे मझले भाई साहब मुकेश और मामाजी के छोटे बेटे सौरभ हम-उम्र ही थे। दोनों साथ खेलते और पढ़ते थे। मेरे भाईसाहब की हिन्दी की लिखावट बड़ी सुंदर थी। तो सौरभ भैया बड़े अचरज से पूछते थे कि मुकेश तुम्हारी लिखाई इतनी सुंदर कैसे आती है। खैर ! इसका उत्तर सौरभ भैया को आज भी मैक्सिको में रहकर नहीं मिल पाया होगा। सागर में भी मामाजी बहुत व्यस्त रहते थे, परन्तु मामीजी पूरा खयाल रखतीं थीं एक धर्मनिष्ठ बहू की तरह, ऐसा मेरी माँ का कहना था। कांति कुमार जैन ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि प्रोफेसर दुबे वैसे तो सन् 1960 तक सागर में रहे, परन्तु इस पद से उनका औपचारिक नाता 1978 तक बना रहा। पारिवारिक तौर पर भी इस बात की पुष्टि होती है क्योंकि मेरी माँ और उनके परिवार के अन्य सदस्यगण भी इस दौरान मामाजी से काफी सम्पर्क में रहे।
सत्तर के दशकों में उन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए देश की समाजशास्त्रीय तथा साहित्यिक गतिविधियों में अपना अति सक्रिय व बहुमूल्य योगदान दिया। वे राष्ट्रीय सामुदायिक विकास संस्थान (ग्रामीण) के एक सलाहकार रहे और पहली बार उनके प्रयासों से यह संस्थान एक अनुसंधान केंद्र बन सका। 1972-77 के दौरान उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज शिमला के निदेशक के रूप में भी अपनी क्षमताओं का परिचय दिया। फिर वे 1975-76 में भारतीय सामाजिक संस्था के अध्यक्ष भी रहे। सन् 1978-80 के दौरान वे जम्मू विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर नियुक्त किए गए। इसके बाद उन्होंने आईसीएसएसआर के राष्ट्रीय फैलो होने के साथ साथ यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र संघ में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। ये वो अवधि थी, जब मामाजी का हमसे पारिवारिक सम्पर्क लगभग न के बराबर हो गया था। हालाँकि इस बीच कभी कभी वे सागर आते रहते थे और उन दिनों मेरी बहन मृदुला सागर विश्वविद्यालय के गणित विभाग में पढ़ रहीं थीं। तब वे मामाजी के सम्पर्क में आईँ और हमारी पारिवारिकता में जो कुछ हल्की सी धुँध छा गई थी, वह फिर हटने लगी थी। दीदी के कारण एक बार फिर मेरी माँ अपने प्रसिद्ध समाजशास्त्री भाई से मिल सकीं थीं। उस समय मैं बहुत छोटी थी और इन सभी तथ्यों और बातों से बड़ी ही अनभिज्ञ सी भी थी। मेरी दीदी में मामाजी को अपनी लाड़ली बहन का वो विदुषत्व दिखाई दिया, जिसे वे और उनकी बहन कभी सकारात्मक रुप न दे पाए थे और कहीं न कहीं शायद दीदी के रुप में उस अभिलाषा को पुनः साकार और जीवंत किया जा सकता था। मेरी दीदी मामाजी की चहेती भागिनेय बन गईं थीं और उनके माध्यम से एक बार फिर मामाजी अपने से होने लगे थे। वे हमेशा अपने विभिन्न कार्यक्रमों में दीदी को साथ ले जाया करते थे, चाहे वह कोई व्याख्यान का कार्यक्रम हो, या फिर कोई सम्मेलन या उनको मिले मूर्तिदेवी पुरस्कार का सम्मान समारोह रहा हो। इतने बड़े बड़े कार्यक्रमों के बीच में भी वे दीदी से चंद समय के लिए बुंदेलखण्डी में हल्का कुछ कहकर विनोद कर लिया करते थे। यही उनके व्यक्तित्व की सबसे महान जीवंतता थी।
इसी दौरान फिर स्थाईरुप से मामाजी पाँच वर्षों के लिए मध्य प्रदेश विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष बनकर भोपाल आए। तब मैं भी थोड़ा समझदार हो गई थी और मामाजी को पत्र लिखा करती थी। वे प्यार से मुझे शुभ्रा बुलाते थे और अक्सर मुझे कहते थे कि शुभ्रा तुम्हारी हिन्दी बहुत अच्छी है। तब मुझे इस बात का अहसास भी नहीं था कि हिन्दी का अच्छा या बुरा होना कैसा होता है। भोपाल में रहने के दौरान हमारा पारिवारिक प्रेम अपनी आनुवांशिकता से कहीं अधिक जुड़ाव महसूस करने लगा था, क्योंकि कभी कभी मामाजी नरसिंहपुर आ जाते थे और परिवार का प्रायः हर सदस्य ही उनके भोपाल के बंगले में रह आया था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी भोपाल में मामाजी के साथ कुछ दिन रहे। ये बात हमारे परिवार के लिए इतने आश्चर्य की इसलिए थी, क्योंकि वैचारिक स्तर पर हमने कभी मामाजी और पापाजी को एकरुप नहीं पाया था, बल्कि दोनों के रिश्तों में एक अजीब सी अकथनीय भिन्नता सदैव रही थी और कहीं न कहीं मामाजी के साथ हमारी पारिवारिकता में सम्पर्क असूत्रता के पीछे भी शायद कुछ नगण्य सा कारण यह भी था। प्रोफेसर दुबे मध्य प्रदेश विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रुप में प्रदेश के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों का आधुनिकीकरण करवाकर वापस दिल्ली लौट गए थे।
मामाजी अंत तक दिल्ली में ही रहे। उनके भोपाल में रहने के दौरान मैं भी उनको समझ पाई थी। अपनी हर छोटी बड़ी सफलताओं को मैं पत्रों के माध्यम से मामाजी से साझा करती थी। वे मेरे हर पत्र का उत्तर देते थे और उससे मुझे मार्गदर्शन भी बहुत अधिक मिला। वे अपनी किताबों की प्रति अवश्य ही मुझे भेजते थे। मैं आज तक भी उनके मुझे लिखे सारे पत्रों को बड़े सहेजकर रखे हुए हूँ, क्योंकि वे पत्र मेरे लिए सिर्फ पत्र नहीं वरन् उनका मुझे मिला लिखित प्रमाणित आशीर्वाद है। सन् 1996 में जब मैंने उनको बताया कि मुझे आईसीएआर, नई दिल्ली की फैलोशिप मिली है और मैं विक्रम विश्वविद्यालय से बॉटनी में पी. एचडी. करने उज्जैन जा रहीं हूँ। तो वे मेरे इस निर्णय से बहुत खुश हुए और मुझे कहा कि हिन्दी में अपना लेखन कभी मत छोड़ना। उनकी बड़ी इच्छा रही कि मैं उनकी किसी किताब का हिन्दी अनुवाद करुँ। पिछले वर्ष जब मैंने महान भारतीय अंटार्कटिक वैज्ञानिक डॉ. एस.ज़ेड. कासिम की एक अँग्रेजी किताब का हिन्दी अनुवाद किया, तो इस पूरे कार्य के दौरान मैंने हमेशा मामाजी को अपने साथ अनुभूत किया। कुछ दिन पहले ही वंदना मिश्रा द्वारा हिन्दी में अनुवादित प्रोफेसर दुबे की पुस्तक भारतीय समाज अकस्मात् ही मुझे मिली और उनकी जताई अभिलाषा मुझे स्मरण हो आई। लेकिन अभी तक भी मैं उनकी इस इच्छा को पूरी नहीं कर पाई हूँ। हाँलाकि जब उस समय वे अपनी ये अभिलाषा मुझसे जताते थे तब शायद दूर दूर तक मुझे भी अंदाज़ा नहीं था कि लेखन मेरा पेशा बन जाएगा। ये शायद मेरे मामाजी की दूरदृष्टि ही थी जो उन्होंने मुझमें पहचान ली थी, पर मैं नहीं समझ पाई थी। मुझे उज्जैन में पी.एचडी. करते हुए लगभग एक ही माह हुआ था और 4 फरवरी 1996 को मुझे मामाजी के देहावसान की खबर फोन पर मिली। मैंने अपने प्रिय मामाजी के साथ साथ अपने एक नैसर्गिक ईश्वरीय मार्गदर्शक को सदा के लिए खो दिया था। मेरी माँ को उनके श्याम भैया हमेशा के लिए छोड़कर चले गए थे।
आज भी जब मैं कभी मामाजी की अँग्रेजी और हिन्दी में लिखीं अनेक किताबों जैसे इंडियाज चैलेंजेज विलेजेज, मॉरडनाइजेशन ऐंड डेवलपमेंट, सर्च फोर अलटरनेटिव पैराडाइम्स, इंडियन सोसायटी तथा मानव और संस्कृति, परंपरा इतिहास बोध और संस्कृति, शिक्षा समाज और भविष्य में संक्रमण की पीड़ा आदि को देखती हूँ, तो उनमें मुझे हमेशा मामाजी के उन दूरदृष्टा चक्षुओं के दर्शन होते हैं, जैसे कह रहे हों, कि हिन्दी की सेवा करने का मेरा उत्तरदायित्व मैंने आनुवांशिकतौर पर तुम्हें दिया है, इस परम्परा को तुम्हें बनाए रखना है। मेरा सदैव प्रयास रहता है कि मैं मामाजी के आदेश का दृढ़ता से पालन करती रहूँ। उनकी जयंती पर उनकी स्मृतियों के पुनर्स्मरण के साथ मेरी उनको यह शब्द-सुमन श्रृद्धांजलि है।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
संपर्क सूत्र - डॉ. शुभ्रता मिश्रा ,स्वतंत्र लेखिका, वास्को-द-गामा, गोवा, मोबाइलः :08975245042,
ईमेलः shubhrataravi@gmail.com
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