रेणु बुआ दूर के रिश्ते में पापा की बहन लगती थीं। उनके पिताजी को पापा मौसाजी बोलते थे। बुआ जब हमारे पड़ोस में रहने आई थीं तो गुड़िया उनकी गोद में थी।
बुआ
‘तुम बैठो मैं अभी आई, चाय का पानी उबल गया होगा’,कहकर रेणु बुआ अंदर चली गईं। जब बाहर आईं तो उनके हाथ में दो कप थे। मुझे चाय का कप थमाते हुए बोलीं -
‘बता तेरा काम कैसा चल रहा है? तुझसे मिलने का बहुत मन कर रहा था, अच्छा हुआ जो तू आ गई। अभी रहेगी या चली जाएगा।’
‘नहीं, अभी 15 दिन रहूंगी’, मैंने कहा।रेणु.... अंदर से एक कराहती हुई आवाज आई।
‘आती हूं’, कहकर रेणु बुआ अंदर चली गईं।
‘बड़ी देर लगा दी बुआ आपने और अंदर कौन है।’
‘निर्मला दीदी।’
मैं चैंक पड़ी थी।
‘लेकिन वो यहां क्या कर रही हैं।’
‘बीमार हैं, सारे शरीर को लकवा मार गया है। चल-फिर भी नहीं सकती हैं। उन्हीं के कपड़े बदलवा रही थी, तभी तो इतनी देर लग गई।’
रेणु बुआ ने बताया।
‘‘बदलवा रही थीं मतलब।’
‘दीदी की देखभाल के लिए एक आया रखी है।’
‘ठीक है बुआ मैं चलती हूं। फिर आऊंगी।’
चय पीने के बाद मैं बुआ के यहां से चली आई थी।
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‘अनु कहां है तू, देख गुड़िया की शादी का एलबम लाई हूं। उस दिन तू बिना देखे ही चली आई थी।’
‘अरे बुआ आप, आइए ना बैठिए, ढेर सारी बातें करेंगे। मां भी सो गई हैं।’
‘लेकिन तू तो तैयार दिख रही है। कहीं जा रही है क्या?’
बुआ ने मुझसे पूछा।
अरे नहीं बुआ, मैं तो बस आपके घर ही आ रही थी।
थोड़ी देर बैठने के बाद बुआ जाने को उठ खड़ी हुई थीं, ‘मैं चलती हूं अनु, दीदी को दवा पिलानी है। तू, एलबम रख ले। जब आएगी तो लेती आना।’
‘ठीक है बुआ।’
बुआ चली गई थीं। लेकिन मैं उनके बारे में रात भर सोचती रही थी।
रेणु बुआ दूर के रिश्ते में पापा की बहन लगती थीं। उनके पिताजी को पापा मौसाजी बोलते थे। बुआ जब हमारे पड़ोस में रहने आई थीं तो गुड़िया उनकी गोद में थी। उनके पिता रघुनाथ बाबू और गुड़िया, कुल तीन लोग ही थे उनके घर में। मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। गुड़िया से खेलने के बहाने मैं अकसर उनके घर पहुंच जाया करती थी।
शुरू-शुरू में सबने सोचा कि बुआ के पति शायद बाहर रहते हैं और नौकरी की वजह से बुआ यहां अपने पिता के पास रहती हैं। लेकिन धीरे-धीरे सबको पता चल गया था कि बुआ के पति ने दूसरी शादी कर ली है और अब उनका आपस में कोई संबंध नहीं है।
देखते-देख्ेाते गुड़िया सातवीं कक्षा में आ गई थी और मैं भी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर काॅलेज में आ गई थी। हमारी और बुआ की उम्र में फर्क होने के बावजूद हमदोनों में काफी दोस्ती हो गई थी। हम घंटों आपस में बातें किया करते थे। स्कूल से आने के बाद बुआ गुड़िया को लेकर हमारे घर आ जाया करती थीं और रात होने पर ही घर जाती थीं। तब तक उनके पिता ट्यूशन पढ़ाकर घर लौट आया करते थे। लेकिन इधर कुछ दिनों से रघुनाथ बाबू घर पर ही ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। इस कारण बुआ का हमारे घर आना बिल्कुल ही बंद हो गया था। कभी-कभार मैं ही बुआ के घर चली जाया करती थी।
बढ़ती उम्र, ऊपर से बुआ की चिंता ने रघुनाथ बाबू को बीमार बना दिया था। जीवट वाले आदमी थे, सो किसी तरह खुद को संभाले रखा था। अवकाश प्राप्त करने के बाद तो उन्होंने गुड़िया के आस-पास ही अपनी दुनिया बसा ली थी। लेकिन चिंता से अकेले कब तक लड़ सकते थे। उनकी हालत दिन पर दिन खराब होती चली गई और अवकाश प्राप्त करने के सात साल के भीतर ही उन्होनंे खाट पकड़ ली। पिता के खाट पकड़ लेने से बुआ एकदम ही टूट गई थीं।
एक दिन सुबह-सुबह ही गुड़िया आई थी मुझे बुलाने, बुआ ने उसे भेजा था।
‘अनु जरा गुड़िया का नाश्ता बना दे, मैं बाबूजी को नहलाने ले जा रही हूं। रात बाबूजी की तबियत बहुत खराब हो गई थी, सो मैं रात भर सो नहीं सकी। सुबह आंख लग गई और देर हो गई।’
‘कोई बात नहीं बुआ, मैं अभी बना देती हूं। लेकिन बुआ आप दादाजी को इतनी सुबह-सुबह क्यों नहला रही हैं।’
‘बाबूजी को डाॅक्टर के पास लेकर जाना है। सोचा, गुड़िया को स्कूल छोड़ने जाऊंगी तो साथ में इन्हें भी लेती जाऊंगी।’
लेकिन रघुनाथ बाबू को डाॅक्टर के यहां ले जाने की नौबत ही नहीं आई। अभी बुआ नहलाने के लिए उनके कपड़े उतार ही रही थी कि वो जोर-जोर से खांसने लगे। खांसते-खांसते बेदम हो गए।
‘रात भर ऐसी ही रही है इनकी तबियत’, बुआ ने बताया।
‘बाबूजी सोइए नहीं, बस नहा लीजिए और चलिए डाॅक्टर के पास।’ बुआ ने रघुनाथ बाबू को संभालते हुए कहा।
लेकिन ये क्या? रघुनाथ बाबू तो एकदम से बिछावन पर लेट गए। बुआ के हिलाने-डुलाने पर भी नहीं हिल रहे थे, न बोल रहे थे। बस टुकुर-टुकुर बुआ का मुंह निहारे जा रहे थे।
पहले तो बुआ को लगा कि खांसी के कारण शायद थक गए हैं, इसलिए लेट गए हैं। लेकिन जब बुआ उन्हें दुबारा उठाकर बैठाने लगी तो वो नीचे बिछावन पर गिर पड़े। बुआ समझ गई कि रघुनाथ बाबू नहीं रहे। वह जोर से चिल्ला पड़ी - ‘बाबूजी’।मैंने तुरंत पापा को फोन करके डाॅक्टर बुलाने को कहा। आधे घंटे बाद पापा डाॅक्टर लेकर आए। डाॅक्टर ने रघुनाथ बाबू को मृत घोषित कर दिया। बुआ और गुड़िया के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बुआ का तो एकमात्र सहारा ही रघुनाथ बाबू थे। और गुड़िया ने तो पिता का प्यार भी उन्हीं से पाया था। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था।
पापा ने ही बुआ के भाई-बहनों को फोन करके रघुनाथ बाबू के मरने की सूचना दी। बुआ के एक भी भाई-बहन इस शहर में नहीं रहते थे, सो उस दिन उनके आने का प्रश्न ही नहीं था। पापा ने ही रघुनाथ बाबू के दाह-संस्कार का पूरा इंतजाम किया। बुआ के भाई-बहन दूसरे दिन सुबह-सुबह ही आ गए थे। सिर्फ एक बहन निर्मला दीदी नहीं आई थीं। उनसे दादाजी ने रिश्ता तोड़ लिया था। दादाजी ही क्यों, किसी भी भाई-बहन के साथ उनका रिश्ता नहीं था। बुआ घर में सबसे छोटी थीं इसलिए सभी उन्हें बहुत प्यार करते थे।
दादाजी की तेरहवीं के बाद बुआ को उनकी बड़ी बहन एक महीने के लिए अपने साथ अपने घर ले गई थीं। दो दिन पहले ही गर्मी की छुट्टी हुई थी, इसलिए बुआ चली गई थीं। बुआ और गुड़िया के चले जाने के बाद मेरा मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे करके मैंने एक महीना गुजारा। बुआ और गुड़िया आ चुके थे। दोनों अब सामान्य हो चुके थे। गुड़िया अपने स्कूल जाने लगी थी और बुआ अपने।
पति से अलगाव के बाद दादाजी ने बुआ को बीएड कराकर अपने ही स्कूल में डेली वेज टीचर के तौर पर रखवा दिया था। बाद में बुआ उसी स्कूल में स्थायी हो गई थीं। इस मामले में स्कूल के सभी शिक्षकों ने रघुनाथ बाबू का साथ दिया था। सभी के मन में बुआ के प्रति सहानुभूति थी।
23 की उम्र, गोद में दूधमुंही बेटी और पति का होना न होना बराबर। ऐसे में जीवन चलाने के लिए कमाना तो था ही। पहले-पहल बुआ ने सेल्स गर्ल का काम किया। घर-घर जाकर सामान बेचा। इस बीच उनकी बेटी उनकी मां सम्भालती थीं। धीरे-धीरे बेटी बड़ी हुई और स्कूल जाने लगी। बेटी के स्कूल जाना शुरू करते ही बुआ को पैसे कम पड़ने लगे। भगवान की दया से तब तक बुआ का बीएड पूरा हो चुका था और दादाजी के प्रयास से उन्हीं के स्कूल में उन्हें टीचर की नौकरी भी मिल गई थी।
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मुझे अब तक सिर्फ इतना ही पता था कि बुआ के पति ने बुआ की शादी के कुछ ही दिनों बाद ही उनसे नाता तोड़ लिया था और दूसरी शादी कर ली थी।
दादाजी को गुजरे पांच साल हो गए थे। अब तो गुड़िया भी 12वीं में आ गई थी। रेणु बुआ के चेहरे पर भी उम्र के निशान दिखने लगे थे। जीवन अपनी गति से चल रहा था। बुआ अपनी बेटी के साथ खुश थीं। मैंने कभी भी उनके चेहरे पर उदासी या दुःख की छाया नहीं देखी थी। शायद गुड़िया की खातिर उन्होंने अपना दुख अंदर ही पी लिया था।
उस दिन स्कूल से आने के बाद बुआ बाहर बालकनी में नजर नही आईं तो मुझे लगा कि शायद वो बीमार हैं। इसीलिए मैं उन्हें देखने उनके घर चली गई। वहां जाकर पता चला कि बुआ के यहां कुछ मेहमान आए थे। गुड़िया उनकी आवभगत में लगी थी, जबकि बुआ दूसरे कमरे में थीं। बुआ बीमार तो नहीं लग रही थीं, हां, उदास व गुमसुम अवश्य थीं। बुआ को पहली बार इतना गुमसुम देखा था। समझ नहीं आया कि उन्हें क्या हुआ है? पर मैं इतना जरूर समझ गई थी कि जो मेहमान आए हैं, उनके आने से बुआ खुश नहीं हैं। ऐसे माहौल में ज्यादा देर वहां रुकना मैंने सही नहीं समझा और घर चली आई। दूसरे दिन रविवार था इसलिए बुआ घर पर ही थीं। बुआ के घर के मेहमान शायद सुबह-सुबह ही जा चुके थे। आज बुआ थोड़ा सहज दिखाई दे रही थीं। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ से इशारा कर अपने घर बुलाया। मैं बुआ के बुलाते ही उनके घर चली गई।
बुआ ने बताया कि कल गुड़िया के पापा आए थे। गुड़िया ने अपने मामा से नंबर लेकर उन्हें फोन किया था। पिछले साल से ही गुड़िया उन्हें लगातार फोन कर रही थी। सो उन्हें आना पड़ा। पहली बार बाप-बेटी मिले थे। गुड़िया के लिए उसके पापा घड़ी लाए थे, जिसे गुड़िया ने वापस लौटा दिया था। गुड़िया के चेहरे पर सुख-दुःख के मिले-जुले भाव थे। पिता से मिलने की खुशी और उनके जाने का दुःख शायद।
बुआ ने बताया कि पिता का प्यार उन्हें यहां खींचकर नहीं लाया था, वर्ना एक साल पहले ही वो गुड़िया के फोन करने पर चले आते। गुड़िया ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर वो उससे मिलने यहां नहीं आते हैं, तो वह उनके आॅफिस आकर उनके बारे में सबको बता देगी।
‘लेकिन गुड़िया को अपने पापा को यहां बुलाने की क्या जरूरत थी।’
‘वो उन्हें दिखाना चाहती थी कि उनके बिना भी दोनों मां-बेटी बहुत खुश हैं। उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है। अपना घर है सुख-सुविधा की सारी वस्तुएं मौजूद हैं। इससे ज्यादा गुड़िया को विजय से कुछ भी नहीं चाहिए था।’
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गुड़िया की गेजुएशन पूरी हो गई थी और वह बीएड कर रही थी। बुआ जल्द से जल्द उसकी शादी कर देना चाहती थी। बुआ ने लड़का भी देख रखा था। पैसे भी थे, लेकिन वह जहां भी बात करने जाती लोग पिता के बारे में पूछने लगते। बुआ उन्हें क्या बताती गुड़िया के पिता के बारे में। मन मार कर बुआ ने गुड़िया से अपने पति विजय को फोन करवाया था। लड़का बैंक में था। बुआ नहीं चाहती थीं कि यह रिश्ता हाथ से निकल जाए। गुड़िया के साधारण नैन-नक्श और सांवले रंग की वजह से पहले ही बुआ काफी चिंतित रहती थीं। ऊपर से पिता का साथ न होना उनकी चिंता और बढ़ा देता था। लेकिन भगवान को शायद बुआ पर दया आ गई थी। इस बार गुड़िया के एक बार फोन करने पर ही उसके पिता आ गए थे। कुंडली तो पहले ही मिल चुकी थी। लेन-देन भी फाइनल हो गया था। अब तो बस लड़की दिखाना था।
गुड़िया के भविष्य की चिंता में बुआ रात भर सो नहीं पाई थी। पूरी रात आंखों में काटी थी उन्होंने। सुबह होते ही घर को ठीक करना शुरू कर दिया था बुआ ने। गुड़िया भी अपनी मां का हाथ बंटा रही थी। लेकिन विजय मेहमानों की तरह बस सोफे के एक कोने में बैठे फोन पर बातें करने में मगन थे। उन्हें किसी बात की चिंता नहीं थी।
शाम को लड़के वाले तय समय पर गुड़िया को देखने आ पहुंचे थे। लड़की पसंद आ गई थी उन्हें। गुड़िया सुंदर नहीं थी लेकिन पढ़ाई-लिखाई और घर के काम-काज में होशियार थी। लड़की पसंद आते ही बुआ का चेहरा खिल उठा था। मां ने ये सारी बातें मुझे फोन पर बताई थी।
आज गुड़िया की शादी थी। लेकिन अब तक विजय नहीं आए थे। फोन भी नहीं लग रहा था उनका। पिछले दो दिनों से मेरा पूरा समय बुआ के घर पर ही बीत रहा था। दोपहर में विजय के आने के बाद मां-बेटी ने चैन की सांस ली थी।
गुड़िया के विदा होते ही बुआ फफक पड़ी थीं। उनके पति स्टेशन के लिए निकल गए थे। न ही बुआ ने उन्हें रुकने के लिए कहा, न ही उनके चेहर पर ऐसे कोई भाव दिखे। काफी देर रोने के बाद शांत हुई थीं बुआ। ऐसा लगा जैसा बरसों के गुबार आज आंखों के रास्ते बह गए थे। बेहद शांत दिख रही थीं वह। शाम होते-होते सारे मेहमान चले गए थे। जो रह गए थे, वे भी दूसरे रिश्तेदारों से मिलने चले गए थे। एकदम अकेली रह गई थीं बुआ। बुआ मैं भी चलूं? धीमी आवाज में मैंने पूछा। तू एक मिनट रुक मैं अभी आई। थोड़ी देर में मिठाई का बड़ा पैकेट लेकर बुआ बाहर्र आइं। ये ले। तूने कुछ नहीं खाया इनमें से। बस भाग-दौड़ में ही लगी रही।
जब मैं चलने लगी तो लपककर बुआ ने मेरा हाथ पकड़ लिया। अनु आज रात तू मेरे पास रुक सकती है, बहुत सी बातें करनी है तुझसे। इस बीच पापा का फोन आ गया था।
‘हैलो, कब तक आ रही हो?’
‘पापा, वो मैं आ...’ इससे पहले की मैं अपनी बात पूरी कर पाती, बुआ ने झट से मेरे हाथ से फोन ले लिया था।
‘भैया... रेणु। आज रात अनु अगर मेरे पास रुक जाती तो? ठीक है भैया आप भाभी को बता दीजिएगा। हां, अभी देती हूं। ये लो अनु, भैया तुमसे बात करेंगे।’ बुआ ने मुझे फोन पकड़ाते हुए कहा।
‘हां, पापा।’
‘बेटा आज तू रेणु के पास ही रूक जा। अकेला महसूस कर रही है।’ उस रात मैं बुआ के पास ही रुक गई थी।
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जाने किसका दुःख था बुआ को, गुड़िया के जाने का या पति के जाने का। पूरी रात रोती रही थीं वो। उस रात अपनी पूरी कहानी बता दी थी मुझे उन्होंने।
बुआ पांच भाई-बहन थीं। तीन बहन, दो भाई। सबकी शादी हो चुकी थी, बस बुआ ही बची थीं। रघुनाथ बाबू चाहते थे कि नौकरी में रहते ही वो बुआ की शादी करके निश्चिंत हो जाएं। सो वो दिन-रात बुआ के लिए लड़का ढूंढने में लगे थे। बहुत जल्द ही उन्हें एक सरकारी नौकरी वाला लड़का भी मिल गया। असल में इस रिश्ते के बारे में खुद बुआ की बड़ी बहन निर्मला दीदी ने बताया था। निर्मला दीदी एजुकेशन विभाग में क्लास वन अधिकारी थीं। लड़का उन्हीं के अधीन क्लर्क था। बुआ की शादी में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी। उन्होंने ग्रेजुएशन कर रखा था। धूमधाम से दोनों की शादी हो गई। पूरी शादी में निर्मला दीदी की सबसे ज्यादा पूछ रही। बुआ के यहां भी और लड़के वालों की ओर से भी। शादी के 10 दिन के बाद ही बुआ के पति उन्हें अपने मां-पापा के पास छोड़कर नौकरी पर चले गए थे। बुआ को बोल गए थे कि 20 दिन बाद लेने आऊंगा। 20 दिन तो नहीं, लेकिन एक महीने बाद वो आए थे बुआ को लेने। बहुत खुश थीं बुआ नए शहर में आकर। उनके चेहरे की खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी। स्टेशन पर उतरते ही उन्होंने अपने पति विजय से पूछा,
‘कितनी दूर है यहां से हमारा घर।’
‘बस 15 मिनट का रास्ता है।’
तरू श्रीवास्तव |
काॅल बेल बजते ही दरवाजा खुला। यह क्या? निर्मला दीदी। दीदी को देख आश्चर्य से भर उठी थीं बुआ।
‘दीदी आप यहा?’
‘हां, मैंने सोचा, मेरी बहन थकी-हारी आएगी तो क्यों न उसके स्वागत के लिए मैं यहां खड़ी रहूं। सो विजय से तुम्हारे घर की चाबी ले ली थी।’
‘अंदर आ ना। बाहर ही खड़ी रहेगी क्या। क्या सोच रही है? तेरा ही घर है पगली। मैं यहां बगल में ही रहती हूं। चल आ, नहा-धो ले। तब तक मैं खाना परोसती हूं, फिर हम तीनों खा लेंगे।’
लेकिन बुआ का माथा ठनक चुका था। उनके चेहरे का रंग उड़ गया था। यहां आने की खुशी उनके चेहरे से गायब हो चुकी थी। सब खाना खा चुके थे। बुआ को निर्मला दीदी का अपने घर में रहना अच्छा नहीं लग रहा था। घर आने के बाद उनके पति ने एक बार भी उनसे बात नहीं की थी। वे हर बात निर्मला दीदी से ही पूछ रहे थे। घर पर तो दीदी विजय की बाॅस नहीं हैं, फिर क्यों ये इनकी इतनी जी-हजूरी कर रहे हैं। बुआ को यह बात समझ नहीं आ रही थी।
शाम के 7 बज चुके थे। निर्मला दीदी अभी तक यहीं थीं।
‘रेणु बता तू रात में क्या खाएगी? आज तेरी पसंद का खाना बनाती हूं।’
‘दीदी आप रहने दीजिए, मैं बना लूंगी। आप अपने घर जाइए, जीजाजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’ तल्खी से बुआ ने कहा।
‘देख रेणु, मैं तुझे समझा देती हूं, अब तेरे जीजाजी से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। पिछले दो साल से हम अलग रह रहे हैं। मेरा बेटा भी उन्होंने ले लिया है। अब मैं तेरे साथ ही रहूंगी। तेरी शादी होने से पहले ही मैंने और विजय ने मिलकर यह घर खरीद लिया था।’
तब तक विजय भी आ गए थे।
‘हां रेणु, निर्मला दीदी अब हमारे साथ ही रहेंगी। एक बात और रेणु, तुम यहां पास-पड़ोस में कहीं मत जाना, यहां अच्छे लोग नहीं हैं।’ विजय ने रेणु बुआ को समझाया था।
रात में दीदी ऊपर अपने कमरे में चली गई थीं। इससे पहले की बुआ कमरे में आतीं, विजय सो चुके थे। सफर की थकान होगी, बुआ ने सोचा और वह भी एक ओर मुंह करके सो गईं। थकी थीं सो सुबह ही आंखें खुली। सुबह जब आंखें खुली तो विजय को बगल में न पाकर वह आशंका से भर उठी। इधर-उधर देखा, आवाज भी लगाई, लेकिन विजय कहीं नहीं दिखे। दबे पांव बुआ ऊपर निर्मला दीदी के कमरे की ओर चल दीं। वहां देखा तो दीदी और विजय चाय पी रहे थे। बुआ जैसे ही मुड़ने लगी कि निर्मला दीदी ने आवाज लगाई -
‘आ जा रेणु। तू सोई थी इसलिए तेरी चाय नहीं बनाई मैंने। मुझे आॅफिस के काम के बारे में कुछ बात करनी थी इसलिए विजय को ऊपर अपने कमरे में बुला लिया था।’
बेमन से बुआ निर्मला दीदी के कमरे में आ गईं।
‘बैठ, तेरे लिए भी चाय बनाकर ले आती हूं।’
‘नहीं दीदी, मैं ब्रश करके चाय पीती हूं।’
‘ठीक है रेणु मैं निकल रही हूं,’ कहकर दीदी सुबह-सुबह ही निकल गई थीं।
‘दीदी टूर पर गई हैं क्या?’ बुआ ने विजय से पूछा।
‘हां’, बेहद संक्षेप में जवाब दिया था विजय ने।
‘आप क्या खाएंगे?’
‘जो भी मन करे बना लो, मुझे खाने में कोई नखरा नहीं है।’
शाम में निर्मला दीदी और विजय साथ ही आफिस से घर आए थे। लेकिन ये क्या, विजय आते ही चुपचाप अपने कमरे में चले गए थे। दीदी भी बिना कुछ बोले ऊपर अपने कमरे में चली गई थीं। बुआ चाय बनाने रसोई में चली गई थीं।
चाय पीते हुए निर्मला दीदी ने विजय से कुछ इशारा किया।
‘रेणु आज दिनभर तुम घर में ही थी ना।’
‘हां, क्यों?’
‘कोई तुमसे मिलने तो नहीं आया था।’
‘नहीं, कोई आने वाला था क्या।’ बुआ ने पूछा।
‘नहीं।’ एक लंबी खामोशी के बाद विजय ने कहा।
‘रेणु तुम्हें यहां कोई तकलीफ तो नहीं है?’
‘कैसी बातें कर रहे हैं आप, मुझे भला यहां क्या तकलीफ होगी।’
‘मैं भी यही चाहता हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में।’
‘मैं समझी नहीं।’
‘मैं समझाती हूं’, निर्मला दीदी ने कहा।
‘रेणु मैं और विजय एक-दूसरे से प्यार करते हैं। एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। तुम्हारे यहां रहने से हमें कोई तकलीफ नहीं है, लेकिन तुझे विजय को अपना बहनोई मानना होगा।’
‘ये... क्या... कह....।’
गला रूंध गया था बुआ का। कुछ भी नहीं पूछ पाई थीं, इससे आगे।
‘रेण तुझे विजय को जीजाजी कहना होगा। अभी हम इस शहर में नए आए हैं, इसलिए लोगों को हमारे बारे में कुछ पता नहीं है। तुम घर पर रहोगी तो मुझे भी आराम रहेगा।’
विजय चुपचाप सारी बातें सुन रहे थे। बुआ ने रूंधे गले से उनसे पूछा -
‘फिर शादी क्यों की मुझसे? मेरी जिंदगी बर्बाद क्यों की?’ लेकिन विजय ने कोई जवाब नहीं दिया, वो चुप ही रहे।
‘मुझे बाबूजी के पास वापस भेज दीजिए।’
पति के पास 10 दिन रहने के बाद ही बुआ मायके चली आई थीं। वहां रहती भीं तो किसके सहारे, जब पति ही किसी और का हो चुका था। बहन सौतन बन चुकी थी। मायके आने के बाद बुआ को पता चला कि वह गर्भवती हैं। जब गुड़िया के आने का पता चला तो बुआ ने विजय को फोन कर इसकी सूचना भी दी। लेकिन उन्होने साफ-साफ कह दिया कि बुआ और उनके होने वाले बच्चे से उनका कोई संबंध नहीं है। उसके बाद एक बार भी बुआ ने पलटकर पीछे नहीं देखा था। विजय और निर्मला दीदी से अपने सारे संबंध तोड़ लिए थे उन्होंने। नए सिरे से अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ जिंदगी की शुरुआत की थी उन्होंने।
क्या करती बुआ। सारे आस जो टूट चुके थे। छल किसी और ने नहीं, खुद की बड़ी बहन ने किया था। ऐसे में संबंध रखने का फायदा भी क्या था। बुआ ने किसी को भी दोष दिए बिना इसे अपना भाग्य मान लिया था। वह तो बस अपने होने वाले बच्चे की चाह में तड़प रही थीं। दोष देती भीं तो किसे। उस अनजान व्यक्ति को जिसे उन्होंने पति माना था। या, अपनी उस बहन को जिसने उनकी पूरी जिंदगी को एक मजाक बना दिया था। गुड़िया के जन्म के साथ ही बुआ की उदासी दूर हो गई थी।
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अगले दिन जब मैं एलबम लौटाने बुआ के घर गई तो मेरे मन में ढेरों सवाल थे गुड़िया के पापा विजय और निर्मला दीदी को लेकर।
इस बार पूरे तीन साल के बाद मैं अपने शहर वापस आई थी। काम से फुर्सत ही नहीं मिलती थी। सो इस बार पूरे 15 दिन की छुट्टी पर आई थी। गुड़िया की शादी के बाद इस बार ही आई थी मैं।
‘आ अनु बैठ, रात का खाना खाकर जाना।’
‘हां बुआ, आज खा के ही जाऊंगी। बुआ, एक बात पूछू?’
‘पूछ ना। तुझे मुझसे झिझकने की कोई जरूरत नहीं है।’
‘बुआ, निर्मला दीदी यहां हैं, तो गुड़िया के पापा कहां हैं?’
‘वो गुड़िया के पास हैं।’
‘मतलब उन्हें भी लकवा मार गया है।’
‘मैं दो लोगों को तो संभाल नहीं सकती थी, सो दीदी को यहां ले आई।’
बड़ी विचित्र सी हंसी बुआ के होंठों पर उस दिन देखी थी मैंने।
‘लेकिन क्यों बुआ, क्यों ले आई आप इस धोखेबाज को अपने पास? और ऐसे कैसे दोनों को लकवा मार गया?’
‘एक कार एक्सीडेंट में दोनों बुरी तरह घायल हो गए थे। मनाली गए थे घूमने।’
‘ये कब की बात है?’
‘गुड़िया की शादी के 6 महीने बाद ही हो गया था यह सब। मेरी आह तो इन्हें लगनी ही थी अनु।’
‘तो क्या गुड़िया के पति को सब पता है।’
‘हां, पता है। शादी के कुछ समय बाद ही पता चल गया था। भले लोग हैं। गुड़िया को कुछ नहीं कहते। उल्टा उनकी नजरों में मेरा सम्मान और भी बढ़ गया है। इसलिए तो वो विजय को अपने पास ले गए हैं और दीदी को मेरे पास छोड़ गए हैं। साथ रहने का बहुत शौक था ना दोनों को। उसके लिए मेरा इस्तेमाल किया था। आज देख कैसे तड़प रहे हैं दोनों एक-दूसरे के बिना। पूरी जिंदगी अब दोनों ऐसे ही बिताएंगे एक-दूसरे से अलग रहकर और तड़पकर। जैसे मैंने अपनी पूरी जिंदगी बताई है। यही इनका दंड है। अब जाकर भगवान ने मेरे साथ न्याय किया है अनु। अब जाकर मेरे मन को शांति मिली है।’
हंसते-हंसते जोर-जोर से रो पड़ी थीं बुआ।
सच है, यहां का किया यहीं भुगतना पड़ता है। कर्म का फल तो मिलता ही है और जरूर मिलता है। किसी को देर, तो किसी को सबेर।
- तरु श्रीवास्तव
परिचय : वास्तविक नाम आरती श्रीवास्तव, तरू श्रीवास्तव के नाम से कविता, कहानी, व्यंग्य लेखन।
शैक्षणिक योग्यता : जंतु विज्ञान में एमएससी, बीजेएमसी, कथक और हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन में प्रभाकर।
कार्यानुभव :
पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्ष 2000 से कार्यरत। हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, हरिभूमि, कादिम्बिनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में बतौर स्वतंत्र पत्रकार विभिन्न विषयों पर कई आलेख प्रकाशित। हरिभूमि में एक कविता प्रकाशित।
दैनिक भास्कर की पत्रिका भास्कर लक्ष्य में 5 वर्षों से अधिक समय तक बतौर एडिटोरियल एसोसिएट कार्य किया। तत्पश्चात हरिभूमि में दो से अधिक वर्षों तक उपसंपादक के पद पर कार्य किया। वर्तमान में एक प्रोडक्शन हाऊस में कार्यरत।
आकाशवाणी के विज्ञान प्रभाग के लिए कई बार विज्ञान समाचार का वाचन यानी साइंस न्यूज रीडिंग किया।
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