स्वाभिमान और संस्कृति को आज ज़्यादा ही मज़बूत करने की ज़रूरत है , बच्चों के पाठ इस तरह के हों कि जीवन में काम आने वाली चीजें वे ज़रूर सीखें .
मैं हूं ........
क्षेत्रपाल शर्मा
स्वाभिमान और संस्कृति को आज ज़्यादा ही मज़बूत करने की ज़रूरत है , बच्चों के पाठ इस तरह के हों कि जीवन में काम आने वाली चीजें वे ज़रूर सीखें .
ध्रुव स्वामिनी, मैथिली शरण गुप्त , भूषण आदि जैसे कवियों, लेखकों के पाठ कंठस्थ हों सरल रूप में कीचक वध , कंस संस्कृति पर बताना चाहिए .
देना लेना उठना बैठना आदि की व्यावहारिक समझ पैदा करने वाले पाठ निर्मित किए जाएं तो हम नींव सही रख पाएंगे , जो कि अब कहीं है , तो कहीं नहीं है
****
जुलाई माह में केंद्रीय विद्यालय अलीगढ के एक शिक्षण कार्यक्रम में मुझे यह बताना कई सवालों को जन्म दे गया कि इसका सही अनुवाद इट इज आई है इस पर कुछ शिक्षक खडे होकर बोले कि यह तो पुराने ज़माने की अंग्रेजी है अब तो इट इज मी ठीक है , सेंट्स्बरी व नेस्फील्ड के हवाले दिए गए . इस अंग्रेजी ने बोलचाल की विसंगति पर जोर्ज बर्नार्ड शा को भी परेशान किया था . लेकिन बीसवीं शती का अंग्रेजी कवि टी ईस ईलियट लव सोंग में “ लेट अस कम टुगेदर , यू एंड आई “ तब फिर क्यों कहता ? आई नोमीनेटिव केस है , जबकि मी एक्यूसेटिव केस है .
अंग्रेज़ी में भी स्वर व 16 व्यंजनों का मुख के अवयवों पर आधारित फोनेमिक और फोनेटिक वर्गीकरण है .
यह वही अंग्रेजी है जिस के बारे में कहा जाता था कि भारत में ढाई लोग ंअंग्रेजी जानते हैं एक नेहरू जी , दूसरे फ़िराक़ साहब , आधे में बाकी सब . फिर नीराद चोधरी ने तो ए बायोग्रीफी ओफ एन अन्नोन इंडियन में कह दिया कि बंगाली , अंग्रेजियत में , पहले हैं .
यह वही भाषा है जो बुजुर्गों के प्रति आदर सूचक शब्द नहीं रखती और ऊपर से तुर्रा यह कि वे बुज़ुर्ग वार को भी नाम लेकर बोलाते हैं , यह केसी संस्कृति?
कुल मिलाकर यह बात सामने आई कि हिंदी भाषा और उसे पढाने वालों का विद्यार्थी मान नहीं रखते और न हिंदी भाषा के प्रति पठन पाठन की कोई रूचि है . होगी भी केसे , जब वे नेग और न्योछावर का अर्थ नहीं जानते ? भूषण, अमृत लाल नागर ( एकदा नेमिषारण्य ), मुरदहिया , सूर , तुलसी , बिहारी ,राम दरश मिश्र ( आग की हंसी ) , हरिओध , संस्कृति के चार अध्याय , वैशाली की नगर वधू आदि अन्यान्य साहित्यिक अनूठी कृतियों के रहते !
****
स्वाभिमान और संस्कृति को आज ज़्यादा ही मज़बूत करने की ज़रूरत है , बच्चों के पाठ इस तरह के हों कि जीवन में काम आने वाली चीजें वे ज़रूर सीखें .
ध्रुव स्वामिनी, मैथिली शरण गुप्त , भूषण आदि जैसे कवियों, लेखकों के पाठ कंठस्थ हों सरल रूप में कीचक वध , कंस संस्कृति पर बताना चाहिए .
देना लेना उठना बैठना आदि की व्यावहारिक समझ पैदा करने वाले पाठ निर्मित किए जाएं तो हम नींव सही रख पाएंगे , जो कि अब कहीं है , तो कहीं नहीं है
****
जुलाई माह में केंद्रीय विद्यालय अलीगढ के एक शिक्षण कार्यक्रम में मुझे यह बताना कई सवालों को जन्म दे गया कि इसका सही अनुवाद इट इज आई है इस पर कुछ शिक्षक खडे होकर बोले कि यह तो पुराने ज़माने की अंग्रेजी है अब तो इट इज मी ठीक है , सेंट्स्बरी व नेस्फील्ड के हवाले दिए गए . इस अंग्रेजी ने बोलचाल की विसंगति पर जोर्ज बर्नार्ड शा को भी परेशान किया था . लेकिन बीसवीं शती का अंग्रेजी कवि टी ईस ईलियट लव सोंग में “ लेट अस कम टुगेदर , यू एंड आई “ तब फिर क्यों कहता ? आई नोमीनेटिव केस है , जबकि मी एक्यूसेटिव केस है .
अंग्रेज़ी में भी स्वर व 16 व्यंजनों का मुख के अवयवों पर आधारित फोनेमिक और फोनेटिक वर्गीकरण है .
क्षेत्रपाल शर्मा |
यह वही भाषा है जो बुजुर्गों के प्रति आदर सूचक शब्द नहीं रखती और ऊपर से तुर्रा यह कि वे बुज़ुर्ग वार को भी नाम लेकर बोलाते हैं , यह केसी संस्कृति?
कुल मिलाकर यह बात सामने आई कि हिंदी भाषा और उसे पढाने वालों का विद्यार्थी मान नहीं रखते और न हिंदी भाषा के प्रति पठन पाठन की कोई रूचि है . होगी भी केसे , जब वे नेग और न्योछावर का अर्थ नहीं जानते ? भूषण, अमृत लाल नागर ( एकदा नेमिषारण्य ), मुरदहिया , सूर , तुलसी , बिहारी ,राम दरश मिश्र ( आग की हंसी ) , हरिओध , संस्कृति के चार अध्याय , वैशाली की नगर वधू आदि अन्यान्य साहित्यिक अनूठी कृतियों के रहते !
****
कानून एवं शासन
प्रजातंत्र वरदान ज़रूर है लेकिन कुछ तत्व इसे घुन की तरह खोखला कर चुके हैं .
ज़रमा : मैंने सुना है कि आज़ादी के आसपास जोधपुर जेल में जो जेल गया उसकी जाते समय जूतों से ठुकाई की जाती थी 3 बार , अगर वह आयु में ज़्यादा था तो पीठ पर अन्यथा सर पर , इसे ज़रमा बोलते थे , और एक जूता सुबह जब जेलर साहब के सामने पेशी पर . था न बढिया ढंग .
शेर शाह सूरी ने जब जी टी रोड बनाई तो खुद सडक के गांव में जाकर एलान किया और कराया कि अगर छिंनताई की घटना हुई तो सब भरपाई गांव से वसूली जाएंगी
खिलज़ी ने कम तौलने वाले दूकानदारों पर कुछ इसी तरह की सख्ती की थी . अब लगता है कि कानून जैसा भी है समय की मांग पर खरा नहीं उतर रहा , बदलाव की सख्त ज़रूरत है . आम नागरिक में या तो कानून के प्रति सम्मान हो या भय हो , तब बात बनेगी .
ज़रमा : मैंने सुना है कि आज़ादी के आसपास जोधपुर जेल में जो जेल गया उसकी जाते समय जूतों से ठुकाई की जाती थी 3 बार , अगर वह आयु में ज़्यादा था तो पीठ पर अन्यथा सर पर , इसे ज़रमा बोलते थे , और एक जूता सुबह जब जेलर साहब के सामने पेशी पर . था न बढिया ढंग .
शेर शाह सूरी ने जब जी टी रोड बनाई तो खुद सडक के गांव में जाकर एलान किया और कराया कि अगर छिंनताई की घटना हुई तो सब भरपाई गांव से वसूली जाएंगी
खिलज़ी ने कम तौलने वाले दूकानदारों पर कुछ इसी तरह की सख्ती की थी . अब लगता है कि कानून जैसा भी है समय की मांग पर खरा नहीं उतर रहा , बदलाव की सख्त ज़रूरत है . आम नागरिक में या तो कानून के प्रति सम्मान हो या भय हो , तब बात बनेगी .
यह रचना क्षेत्रपाल शर्मा जी, द्वारा लिखी गयी है। आप एक कवि व अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाएँ विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी कोलकाता, मद्रास तथा पुणे से भी आपके आलेख प्रसारित हो चुके है .
SHARMA JI ACHCHA ARTICLE
जवाब देंहटाएंDHANYAVAD...............KEEP IT UP!!!!!!!!!!
Great!
जवाब देंहटाएं