जर्मन विद्वान मेक्समूलर ने भारत को संस्कृति का पालना बताया था .आज इस को पोषित और पल्लवित करने की घडी आ गई है .
उर वैजंती माल
.......क्षेत्रपाल शर्मा
पूर्व संयुक्त निदेशक, ईएसआईसी मुख्यालय (श्रम मंत्रालय), नई दिल्ली
'ओल्ड इज गोल्ड', पुराने समय में ऐसा क्याथा , क्या है जो उसे संजोया जाए । इसे हम यों भी जान सकते हैं , पुराने समय में ऐसा क्या नहीं है जो उसे संजोया न जाए । आज के युवकों में सम्यक शिक्षा की कमी, संस्कारों की कमी एवं विकारों की भरमार है । जिसका सूत्रपात 'प्रोफेशनल क्वालीफाइड बहू' से प्रारंभ होता है और अदम गोंडवी ने जो कहा कि आज के युग में युवक इंटरनेट के मायावी जंगल में उलझे हैं । धन की अदम्य लालसा और आपाधापी के चलते परिवार 'एकल' हो चले जो अलिखित व्यवहारजन्य बातें जीवन के लिए अनिवार्य थीं जैसे यह जानना कि अंश वंश सिद्धांत आदि उससे हमारे नौनिहाल वंचित हो गए ।
विक्रम सेठ की एक कविता दी फ्राग एंड नाइटेंगिल है ।
उस पेड़ की जड़ में रहने वाले मेढक की सनक, ईर्ष्या और छल के चलते नाइटेंगिल मर गई । जो धूर्त मेढ़क उस कथा का नायक था, वह आज समाज में विचरण कर रहा है । धूर्त लोग जाहिरा तौर पर नजर भले ही न आएं, बातचीत भी उनकी मिलनसारिता की होगी, लेकिन उनसे सावधान रहें । हर दंपत्ति चाहता है कि वह
किसी के सामने न हारे, लेकिन वे अपने पुत्र से जीतना नहीं चाहते, हारना ही चाहते हैं । लेकिन चलते-चलते समय इतना घिस चुका है कि औलाद ही अब बुजुर्गों को हराने पर उतारू है । जीतें भी तो कैसे ? होना तो यह चाहिए कि यदि कोई गैर-मौजूद है तो उसकी कमियॉं , दोष उस समय कहे जाएं, जब वे मौजूद हों, लेकिन अब औरों की बात छोड़िए, कुछ परिवारों के युवक अपने ही मॉ-बाप के दोष ढूँढ़ने लग जाते हैं ।जो पुत्र अपने उद्यम और परिश्रम से अपने पिता से अधिक बुद्धि, वीरता,यश और धन अर्जित करे हो उसे सपूत ,जो पिता जैसा वह वह पूत और जो पुत्र अपनी कारस्तानी से शर्मसार कर दे , वह कपूत होता है . अपने बुजुर्गों के दोष आप मत देखिए , हो सके तो कुछ अच्छा पक्ष देख लो . युवाओं को बुजुर्गों की तरफ जोश और जवानी में चूर होकर नहीं बल्कि उस पडाव से गुजरे हुए मानकर सही बर्ताव करना चाहिए . सार बात यह है कि बुरे काम से दूर रहना चाहिए . पाप और श्राप से सदैव बचें . इन से बचने के लिए तप करना होता है जो सत्य बोलना , सदाचारी होना , पात्र और कुपात्र का राजा भरत की तरह फर्क जानना और तमाम बातें हैं अगर आप सेवा करना चाहें तो बिना कहे कर दें यह सोचकर कि इस चीज़ की ज़रूरत है तो यह उत्तम सेवा है और अगर कहने पर की तो बस एसे ही है , गर कहने पर भी न करें तो अधम सेवा है .याद रखें कि मारने वाले से बचाने वाला बहुत बडा है .
कहने को कई दृष्टांत यहॉं दे देना समीचीन रहेगा , तब हम केवल उनको देना चाहेंगे जो ज्यादा सार्थक हैं । कोई भी दूसरे को छोटा बनाकर बड़ा नहीं हो सकता । ओछापन टिकाऊ नहीं होता । परमार्थ , परिश्रम एवं सत्यवादिता ही ऐसी कसौटी है, जिससे मनुष्य के गुणों की परख की जा सकती है ।
सन् 2000 के आसपास कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू पर फुटपाथ पर चाय बेचने वाला जब रात 9:30 बजे सामान समेटने को हुआ तो उसकी घरवाली ने बताया कि एक करेंसी नोटों से भरा थैला कोई भूल गया है । दोनों थाने पहुँचे – वाकया बताया । थानेदार ने हैरानी से पूछा कि तू चाहता तो तेरी जिन्दगी आसानी से कट जाती, तू उसे अपने पास भी रख सकता था । तब उसने कहा कि '' मैं किसी दूसरे को दु:ख देकर अपने सुख की कामना नहीं करता। ''
तो ऐसे ही महान नहीं बना मेरा भारत देश । यहॉं अशोक, बुद्ध, गॉंधी, विक्रमादित्य, शिवानंद, विवेकानंद और संत और महान पुरूषों ने जन्म लिया है । विश्व के हर भू भाग में हर युग में श्रेष्ठ पुरुष हुए हैं यह श्रुतियों और स्मृतियों में अपनी कार्यों के लिए सदैव आदर के साथ जाने जाएंगे इस लिए ये अमर हैं सुकरात बहुत कुरूप थे एक बार वे दर्पण देख रहे थे तो उनका शिष्य पूछ बैठा कि आप दर्पण देख रहे हैं तो उन्होंने कहा कि मैं इसलिए देख रहा हूं कि मैं एसे सुंदर कार्य करूं जो मेरी कुरूपता को ढक लें तब शिष्य ने कहा कि इस तर्क से सुंदर लोगों को दर्पण नहीं देखाना चाहिए इस पर सुकरात का जवाब था कि ह्न्हें और अधिक देखना चाहिए कि उनकी कुरूपता ढक न लें !
ऐसे ही एक बार जस्टिस आशुतोष मुखर्जी से एक अंग्रेज अधिकारी ने पूछा कि आपकी माँ क्या पढ़ी-लिखी हैं- इस पर जबाब भी हाजिर था कि पढ़ी-लिखी तो नहीं हैं सर, लेकिन उन्हें दुनियादारी की काफी समझ है ।
क्षेत्रपाल शर्मा |
ऐसे ही एक नौजवान ने अपनी पत्नी के हाथ पर जुएं/सट्टे में जीते तीन-चार हजार रूपए रखते हुए कहा कि कोई अधिकारी भी इतने नहीं कमा पाएगा, जितना मैं जीत लाया हूँ ।
तो बात नेक नीयत से आचरण करने की है जो कि कठिन और जोखिम भरा प्रतीत हेाता है । 'जे आचरहिं सो नर न घनेरे' । बुजुर्गवार के पास अनुभव है, परंतु परिवार इतना आपाधापी में है कि इन वैचारिक पूँजी के लिए समय नहीं है । अब अच्छी बातें बताने वाले कम हैं तो उन बातों को मानने वाले उनसे भी कम हैं । मुझे याद है कि जब मैं पहली बार नौकरी पर नागपुर जा रहा था तो मेरे बाबा जी ने यह नसीहत दी थी कि '' हाथ का सच्चा और लंगोट का पक्का रहना । ''
जीवन कोई जुआ नहीं है । इसे जीने का सही ढंग न आया तो कोई जीवन नहीं जिया । इस सही ढंग को अपनाने में कठिनाई, विषम परिस्थितियां आ सकती हैं , पर उनसे घबराकर हारकर प्रयत्न आपने पूरे मन से न किया था या आधा प्रयत्न करके रह गए तो परिणाम आपके लिए शुभ नहीं होंगे । कठिनाइयों, विषम परिस्थितियों से पद्धतिबद्ध तरीके से पार पाएं । आपके ये व्यक्तित्व निखार की एक परीक्षा है ।
पश्चिम से तुलना :
शिक्षा मंदिरों के पास मद्यपान की दुकान एवं उसके सहारे रात में तितर-बितर पड़े गिलास पीने वालों की संख्या का सहज अनुमान लगाया जा सकता है । यह एक स्वस्थ समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है । दो चीजें व्यक्ति सापेक्ष हैं माया और छाया , उसके जाने ही ये भी चली जाती हैं
क्या उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में मद्यपान की जरूरत हो सकती है । नकल की भरमार और अभिभावकों की बच्चों की अवांछित तरफदारी से बच्चे इतने बिगड़ गए कि स्मृति और श्रुति परंपरा का लोप हो गया । कोई अध्यापक सख्ती से बच्चे से कुछ कह ही नहीं सकता । इस स्थिति में बदलाव की जरूरत है, सोपान तलाशने चाहिए । मेरे परम हितैषी एवं ज्ञानवृद्ध मित्र श्री विजय कुमार जी जो भारत सरकार में ऊँचे पद पर विराजमान रहे हैं, ने स्पष्ट किया कि हममें जो नकल की वृत्ति पनप चुकी है, वह शुभ नहीं । मॉं-बाप व सभी बुजुर्गों की देखभाल, छोटे बच्चों को प्यार, महिलाओं को सम्मान एवं सभी के बच्चों को स्नेह देना तो जीवन जीने की यहॉं अनिवार्य शर्त रही है । उन्होंने हिन्दी फिल्म 'क्रांति' का हवाला देकर कहा कि 'कर्त्तव्य' के दौरान कोई अन्य बात नहीं । आज इन चीजों का क्षरण हो रहा है । क्योंकि 'परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम' नहीं हो रहा है । 'छलावा' हो रहा है। कंस और कसाई व्यवहार के दुत्कार की आवश्यकता है ।
आवेश एवं अपराध बोध :
भावुक, कुतर्की एवं क्रोध के आवेश में आकर काम न करें । जिस तरह माली , बाग में बेतरतीब जा रही शाखों को काटता-छांटता (प्रूनिंग) है, वह काम आप अपनी गलत आदतों को पहचान करके , उन्हें दूर करके करें । पाप, अंधेरी कोठरी में किया भी उजागर होता है । कहते हैं पाप सिर चढ़कर बोलता है अर्थात् पीछा नहीं छोड़ता । जीवन भर अपराध बोध से ग्रसित होने की बजाए ऐसे में उनका प्रायश्चित करके एक सभ्य जीवन जीने की पहल होनी चाहिए । संताप की अग्नि (दाह) को यज्ञ की अग्नि से ( पश्चाताप ) शांत किया जाए । न्याय विधा के मनीषी भी यह मानते हैं कि रिफार्मेटिव एप्रोच ज्यादा कारगर होती है, बनिस्पत दमनकारी या दंडात्मक एप्रोच के ।
'पांसा अपने हाथ है, दॉंव न अपने --- '
बड़े-बड़े दिग्गज, महारथी, विद्वान एवं वीर काल के प्रवाह, गति को रोक नहीं पाए । उनमें एक शकुनि भी थे , बालि भी आदि अन्यान्य । यह अपनी गति से चलता है । काल का परोक्ष रूप से प्रकृति के नियमों के साथ तादात्म्य है । इसीलिए प्रकृति की इच्छा के प्रतिकूल बर्ताव न कीजिए अर्थात् अनायास हथेली पर सरसों उगाने का प्रयास मत कीजिए । कृषि को एग्रीकल्चर , सर्वश्रेष्ठ कल्चर इसलिए कहा गया है कि पहली बार जंगलीपन से हटकर फसल के बोने से कटाई तक प्रतीक्षा में एक जगह झोपड़ी बनाकर आबादी बसी और सभ्यता की ओर चंद कदम बढ़े ।
सद बुद्धि एक सर्वोत्कृष्ट गुण है । संकट हो अथवा न हो, सद्बुद्धि से हर संकट, हर समय आप निरापद रहेंगे ।
देशाटन, विद्वान सत्संगियों के अनुभव, धर्मग्रंथों का स्वाध्याय एवं महान पुस्तकों का अध्ययन आपके ज्ञान के खजाने में भारी वृद्धि करेगा । जैसे तिरुवल्लुवर के कुरल , स्वामी चिन्मयानंद जी की मेकिंग आफ में लाला हर दयाल की हिंट्स आफ सेल्फ कल्चर , तिलक की गीता रहस्य
मुझे कानपुर प्रवास के दौरान एक कविता सुनने को मिली थी (कवि का नाम तो अब याद नहीं), जो इस प्रकार थी ---
'' जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यास का होता हो ।
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासे मर जाना बेहतर है ।।
जो दीया उजाला दे न सके, तक के चरणों का दास रहे ।
अंधियारी रातों में सोए, दिन भर सूरज के पास रहे
जो केवल धुऑं उगलता हो, सूरज पर कालिख मलता हो
ऐसे दीपक का जलने से पहले बुझ जाना बेहतर है ।। ''
कॉंटे तो अपनी आदत के अनुसार नुकीले होते हैं ।
कुछ फूल मगर कांटों से भी जहरीले होते हैं ।।
जिनको माली आँखें मींजे, जल के बदले विष से सींचें ।
ऐसी डाली पर खिलने से, पहले मुरझाना बेहतर है ।।
जब आंधी नाव डुबो देने की अपनी जिद पर अड़ जाए,
हर एक लहर नागिन बनकर बस उसने को फन फैलाए ।
ऐसे में भीख किनारों की मॉंगना धार से ठीक नहीं
पागल तूफानों को बढकर आवाज लगाना बेहतर है ।।
जब नवयुवक एकलखुरा, मनमौजी और स्वच्छंद हो जाते हैं (ऐसा लाड-प्यार, धन-बहुलता एवं रूतबा –प्रवाह के कारण) तो उनके बहकने , फिसलने और एय्याश होने के आसार ज्यादा हो जाते हैं । ऐसे में चाणक्य एवं तिरूवल्लुवर ने जो 'सांप' कहा, उसे छोड़ भी दें तो वे खुद के खिलाफ काम करने लग जाते हैं और बैक फायर करने लगते हैं । स्वयं को, परिवार को, समाज को, राष्ट्र को कलंकित करने वाला कर्म ही 'बैक फायर' है । परिवार में ज़हर घोलने को हर देश, हर संस्कृति जघन्यतम पाप मानती है । इसके वैज्ञानिक कारण हैं । एक छोटा कारण bloody शब्द है । यह गाली है । पूरा शब्द bloody dog है । हरामी, जो बिना सोचे-समझे गली के कुत्ते की माफिक यौन-संबंध बनाने को लालायित रहता है, उसे यह गाली दी जाती है । जो 'ब्रीड' हैं, वे ऐसा कम ही करते हैं । महिलाएं ऐसे लोगों को नाली का कीड़ा भी कहती हैं । गीता में वर्णसंकर से मिलाकर listverse.com पर एलीनालेंज के लेख साथ में पढ़े जाने चाहिए ।
झूठ सभी पापों की मॉं है । झूठ बोलना , मद्यपान करना , निर्दोष को सताना ,गलत सलाह देना , भोले कामजोर एवं आयु में छोटे लोगों का शोषण , पद व शक्ति का दुरुपायोग पाप कर्म हैं पाप अपने आप व्यक्ति को नष्ट कर देते हैं किसी अन्य को नष्ट करने की जरूरत नहीं पडती पश्चाताप पूजा प्रार्थना सत्कर्म से काई जैसी मलिनता साफ होकर आत्मा उन्नत बनती है इसे ही बुद्धि का पैनापन मानना चाहिए
द्यूत, चोरी, हिंसा, डकैती, छल, कपट आदि सभी पाप हैं । फिर वही यक्ष प्रश्न कि, '' जल से पतला कौन है , कौन भूमि से भारी '' सामान्यतया आपत्ति और विपत्ति के अंतर को सामझा जाए मनुष्य जब मनुष्यको अकारण दुख देता है तो याह आपत्ति है लेकिन ईश्वर जब कष्ट देता है वह विपात्ति है आदमी के दुख का तोड ,उपचार प्रकृति के पास है
यहॉं एक घटना प्रसंगवश याद आ रही है जब आश्रम में गुरू ने शिष्य की परीक्षा ली, वह चरित्र की एक उत्कृष्ट अग्नि परीक्षा का दृष्टांत है ।
विमल मित्र ने अपनी एक कहानी में अपात्र की सहायता को भी निष्प्रयोज्य और निष्फल करार दिया है ।
बहना ने भाई की कलाई पर ...
ये बोल 1970 की फिल्म रेशम की डोरी से हैं .
अंश-वंश सिद्धांत यह है कि 'बहन-बेटियां' हमारा अंश हैं, इनके कल्याण, सुरक्षा के लिए हम सदैव आन,बान,
मान और जान कुर्बान कर देंगे । इसी परंपरा को कन्या-लांगुरा, तीज-त्योहारों पर चलन आदि विभिन्न रूपों से अक्षुण्ण रखा जाता है ।
इन आधारिक बातों की जानकारी प्रत्येक के लिए रखना अनिवार्य है । इनसे विपथ होकर समाज सुदृढ़ नहीं बन पाएगा । 'अंश' के धन अर्थात् बेटियों के यहॉं का धन लेना, उसका उपयोग करना अथवा उनके यहॉं (अति आवश्यक होने पर ही करें ) भोजन करना सामान्य रूप से वर्जित है ।
भारतीय समाज में आपसी संबंधों की एक बहुत सुंदर एवं गहरी बुनावट है । यहॉं पारस्परिक सहयोग एवं विश्वास की नीवं बहुत मजबूत है सिवाय कुछ वाकये जो इन चीजों को कभी-कभार शर्मसार कर देते हैं ।
उर वैजंती माल -- -
जर्मन विद्वान मेक्समूलर ने भारत को संस्कृति का पालना बताया था .आज इस को पोषित और पल्लवित करने की घडी आ गई है .
आप नेमिषारण्य जाइए , पुष्कर नहाइए, गंगा नहाइए, गंगासागर नहाइए, ये अच्छी बात है, लेकिन मेरा विनम्र आग्रह है कि एक बार मन के मान सरोवर में डुबकी जरूर लगाना । तिकड़म से धन एवं पद ऐंठना पौरूष प्रदर्शन नहीं होता । सत्य का एक अंश सदैव से ही अदृश्य रहता आया है और उस सत्यांश ने जो दृश्यमान सच समझा गया था, उस पर से परदा उठाया है, जो युगों से नेपथ्य में रहा है । जानते हैं, पर ,अदिति मुखर्जी (संदर्भ),
कह नहीं सकते ।
संपर्क : 9411858774
ई मेल : kpsharma05@gmail.com
यह रचना क्षेत्रपाल शर्मा जी, द्वारा लिखी गयी है। आप एक कवि व अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाएँ विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी कोलकाता, मद्रास तथा पुणे से भी आपके आलेख प्रसारित हो चुके है .
लेख काफी रोचक बन गया है. पढ़ने लिए संबल चाहिए. इतने सुंदर लेख की साझेदारी हेतु अथाह आभार.
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