शहरवालों की तरह गाँव के लोगों को 'बेड टी' नसीब नहीं होता ना ही उन्हें जरूरत महसूस होती है। वे उठते ही मवेशियों के पेट भरने का जुगाड़ करके खुद अपना पेट खाली करने की जुगत में लग जाते हैं।
शौच की स्वतंत्रता
शहरवालों की तरह गाँव के लोगों को 'बेड टी' नसीब नहीं होता ना ही उन्हें जरूरत महसूस होती है। वे उठते ही मवेशियों के पेट भरने का जुगाड़ करके खुद अपना पेट खाली करने की जुगत में लग जाते हैं। या तो वे तेज़ क़दमों से नदी या पोखर(तालाब) के किनारे जाते दिखते हैं या फिर लोटा या कोई डब्बा लेकर सड़क किनारे से लेकर खुले खेत और आम के बगीचे में। कुछ अति सुसंस्कारी और सभ्य बालक उस पेड़ पर भी चढ़ जाते हैं जिनकी डाल काफी नीचे तक झुकी होती है। अहा.... पेड़ की उस डाल पर आराम से बैठकर शौच करने का आनन्द लेना अपने आप में अनूठी बात ही है और ये पूरी तरह से स्वानाभूति का विषय है। बड़ों में सभी की हालत एक-सी है चाहे उसके घर में 10 साल से शौचालय क्यों ना हो। सामान्य अवस्था में कोई भी आदमी शौचालय का प्रयोग नहीं करता है यहाँ तक कि रात को 2 बजे भी वह आप-पास के खेत या किसी घर के सामने पड़ी खाली जगह का इस्तेमाल अपने पेट के अवांछित ठोस, द्रव व गैस के उचित निस्तारण हेतु कर लेता है लेकिन शौचालय में कदम नहीं रखता। हाँ, जब कोई अपने पेट को खेत समझकर खूब भर देता है (ऐसा अक्सर किसी दूसरे के यहाँ खाने से होता है) तो पैदावार भी काफी बढ़ जाती है, उस स्थिति में पछताकर वह शौचालय में जाता है और निकलते ही जोर से साँस लेता है जैसे अंदर हवा थी ही नहीं।
एक छोटे-से कमरे में एक ही अवस्था में, सीमित प्रकाश और वायु की उपस्थिति में दो-चार मिनट बैठना हो तो कोई एडजस्ट भी कर ले, किन्तु जब तक पूरे पूरी आधा घंटा ना बैठो, पेट क्लियरे नहीं होता। इसी अवधि में ये भी तो सोचना पड़ता है कि दतमन कहाँ से तोड़ा जाए? कल तो बाँस का दतमन मिला नहीं तो नीम के दतमन से काम चलाना पड़ा। जब-तब भैंस बच्चा देने वाली है, उसके लिए बाँस का पत्ता तोड़ना है, कुदाल उखड़ गया है उसे ठीक करवाने भी तो ले जाना है, थोड़ा-सा लेट हुआ कि बरही मिलेगा भी नहीं; ये सारी योजनाएँ उसी समय बनानी पड़ती है क्योंकि उस समय चित्त शांत होता है।
लेकिन अब क्या कहें?? आज के नौजवान (जिसने अभी-अभी दूध पीना छोड़ा है) ने शौच की इस अवधि को दिल्ली के विधायक की तनख्वाह की तरह बढ़ा लिया है। जहाँ पहले पखाना उतरने में आधे घंटे लगते थे अब वह समय तीन घंटे से भी अधिक हो गया है। मेड़ की आड़ में बैठकर ठोस-द्रव-गैस निस्तारण प्रक्रिया के साथ-साथ कोई साँप वाला, कोई किरकेट, कोई टेम्पल रन तो कोई कैंडी क्रैश खेल रहा है। खेत में जब गाय व भैंस चरने आ जाती है और साथ ही कुछ महिलाएँ भी तो उन गायों को चराने वाली महिलाएँ भी तो उन बेचारे गेम वाले बच्चे को अचानक याद आता है कि हम यहाँ किस उद्देश्य से बैठे थे।
दिपेश कुमार |
"मम्मी, बहुत जोर से लगी है"
"पैंट निकालो और दरवाजे पर जाकर बैठ जाओ। बैल के माँद से हटकर बैठना नहीं तो लथाड़ मार देगा।"
इतना सुनते ही बेचारा बच्चा इधर-उधर देखे बिना ही दौड़ पड़ता है। अब वो अपने गंतव्य को पहुँचने ही वाला था कि उनके बापश्री जोर से डाँटते हुए चिल्लाता है। बेचारा बच्चा क्या करे, उसे जो जोरों की लगी है। देखते ही देखते आँगन में शब्दयुद्ध शुरू हो जाता है। माँ का कहना है कि "अभी छोटू बच्चा है, गन्दा कर देगा तो क्या हो जाएगा, कुदाल से साफ़ कर देंगे। कुत्ता गन्दा करके चला जाता है तो आप साफ़ करते हैं कि नहीं?" वहीं दूसरी तरफ बाप का कहना है कि "तुमने ही आदत बिगाड़ दिया है, अब ये बच्चा नहीं रहा।" छोटू को अब टट्टी से अधिक चिन्ता आँगन में छिड़े युध्द के परिणाम पर टिकी होती है किन्तु इस युद्ध का फैसला भारतीय न्यायालयों की तरह पीड़ितों को भुलाकर आराम से अपने समय पर आता है तब तक छोटू फैसला की कोई उम्मीद ना देखकर खड़े-खड़े खूब जोड़ से रोते हुए अपशिष्टों का त्याग कर देता हैं फिर वह और जोर से रोने लगता है।
सातवीं कक्षा की परीक्षा की अगली ही सुबह अधिकतर छात्र गाँव से दिल्ली, गुड़गाँव, चंडीगढ़, मुम्बई, सूरत इत्यादि शहरों में मजदूरी के लिए चले जाते हैं। इनमें से कुछ ही अपने घरों में बताकर जाता है बाकी "भागकर" जाता है। भागने के बहुत से कारण होते हैं यथा- गणित का उलझाऊ सवाल, संस्कृत का तीन किलोमीटर लंबा श्लोक, लड़कियों का लाइन ना देना, खेतों में काम करने की विवशता और इन सबसे अलग शौचालय में शौच करने की अभिलाषा। पूरे चौबीस घंटे जनरल डिब्बे में खड़े होकर वह दिल्ली पहुँचता है। उसे थकान तो महसूस नहीं होती है लेकिन एक ही बात का मलाल होता है कि वह भीड़ के कारण ट्रेन के शौचालय में बैठने का सौभाग्य नहीं पा सका। पूरे रास्ते वह मन ही मन यही सोचता है कि गुड़गाँव पहुँचते ही सबसे पहले शौचालय जाऊँगा। यदि किसी तरह उसका साथी शौचालय पहुँच भी जाता है तो उसे ये शौचालय फर्जी लगता है।
दिल्ली पहुँचते ही उसके मन में प्रबल इच्छा जागृत होती है कि दस रूपये देकर डिलक्स शौचालय से हो आऊँ लेकिन उसका दोस्त समझाकर कहता है कि यहाँ बेहोशी का दवा सूँघाकर सबकुछ लूट लेता है। गुड़गाँव में अपने दोस्त के पहुँचता है, उसका दोस्त पूछता है- "और बता, गाँव का क्या हालचाल है?" जवाब में आप उसके मन से उसकी अभिलाषा निकल पड़ती है- "लेटरिंग कहाँ है?" पता चला कि पानी नहीं आ रहा है। अब तो उस बेचारे के पहले पैर के नीचे से चप्पल और फिर जमीन खिसक जाती है।
आपको बता दूँ कि गाँव के हर व्यक्ति को हर व्यक्ति के काम में ताकने-झाँकने की लाईलाज बीमारी जन्मजात ही होती है। उनमें दूसरों के काम में ताक-झाँक करने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह विवश हो जाता है हर जगह अपनी टाँग अड़ाने के लिए। जैसे:- कहीं कोई किसी का सर फोड़ रहा है, कोई अपने बापश्री को बन्दूक दिखा रहा है, कोई भोज-भंडारा हो रहा है, कोई पंचायत है, आदि-आदि......इन सभी अन्तर्ग्रामीण सम्मेलनों में ताक-झाँक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। किन्तु सरकार शौचालय बनवाकर गाँववालों से एकाग्रतापूर्वक शौच करवाना चाहती है जो ग्रामीम जनता पर जुल्म है, अन्याय है, अत्याचार है और शौच की स्वतंत्रता के खिलाफ एक साजिश है।
दिपेश कुमार
हिन्दी (प्रतिष्ठा) तृतीय वर्ष
श्याल लाल (सांध्य) महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
हिन्दी (प्रतिष्ठा) तृतीय वर्ष
श्याल लाल (सांध्य) महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
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