उपभोक्‍तावाद का आतंक

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कभी एक साइकिल भी मुश्‍किल होती थी आज हर आदमी स्‍कूटर कार पर घूम रहा है,ट्रेनों में एसी की मॉग बढ़ती जा रही है पहले भूख से मौतें होतीं थीं अब मोटापे से मौते हो रहीं हैं

         उपभोक्‍तावाद का आतंक

 आज दुनिया मुख्‍यत; दो खेमों में में बंटी हुई है।एक ओर मुस्‍लिम जगत है जो पूरी दुनिया को मुसलमान बनाकर मौलवी राज लाना चाहते है,इस्‍लाम के नाम पर दुनिया पर 2000 वर्ष पुरानी अरबी संस्‍कृति को थोप कर पूरी धरती को एक कबीला बना देना चाहते हे जिसमें जिसकी लाठी होगी उसी की भैंस होगी खलीफा जो कहेगा वही कानून होगा, गुलामों का फिर से व्‍यापार होगा औरतों के हरम होगें।वो इन्‍द्रधनुष के हर रंग को हरा बना देना चाहते हें।दूसरी ओर बाकी के देश है औद्योगिकरण के माध्‍यम से देश का जी डी पी बढ़ाकर अपने देशवासियों के जीवन को अधिक सुविधा और विलासिता पूर्ण बनाना चाहते हैं,जिसे वो विकास कहते हैं।इस्‍लामीकरण के वाहक है क्रूर कट्टरपंथी मुसलमान जिनके लिए हर विरोध का उत्‍तर है बन्‍दूक की गोली,जिनकी इस्‍लाम की अपनी व्‍याख्‍या है जिनके लिए मानव जीवन और एक चींटीं के जीवन में कोई अन्‍तर नहीं है।दूसरी ओर तथा कथित विकास के वाहक हैं बड़े बड़े कारपोरेट।भारत के प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी भी भारत में कारपोरेट जगत का विस्‍तार करके विकास लाना चाहते हैं।प्रश्‍न ये है कि क्‍या कारपोरेट जगत भीतर से भी उतना ही शालीन और सभ्‍य है जितना उपर से दिखता है,क्‍या ये इस्‍लामी आतंकवादियों से कम क्रूर है, क्‍या कारपोरेट व्‍यवस्‍था का विस्‍तार मानव मात्र या भारत का उद्धार कर पाएगा।ऐसा तो नहीं कि एक ओर कड़वा तो दूसरी ओर मीठा जहर है,एक ओर कुआं तो दूसरी ओर खाई है।पूरी दुनिया के लिए ये प्रश्‍न गौड़ हो सकता हे लेकिन एक भारतीय लेखक होने के नाते मेरे लिए जी डी पी से मानवीय संवेदना सूचांक ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है।आखिर मानवीय संवेदना का एक मात्र ध्‍वज वाहक भारत ही तो है, हमें पता है कि संवेदना विहीन मानव और पशु में कोई अन्‍तर नहीं होता है।
                          कारपोरेट शब्‍द ग्रीक भाषा के corpus शब्‍द से बना है जिसका अर्थ है सामूहिक।शुरू शुरू में लगभग 500 ईं के आस पास कारपोरेट शब्‍द हर उस संस्‍था के लिए प्रयोग किया जाता था जहॉ दायित्‍व सामूहिक होता था जैसे कि नगर पालिका,अस्‍पताल,समाज सेवी संस्‍थाए आदि,यहॉ तक की सरकारों को भी कारपारेट कहा जाता था।कारपोरेट का वर्तमान स्‍वरूप, जिसका कि अर्थ है कोई बड़ा औद्योगिक या व्‍यापारिक संस्‍थान,जिसमें प्राय: शेयरधारक के रूप में आम आदमी की भागीदारी भी होती है,बिजली के आविष्‍कार के बाद आया।बिजली के आविष्‍कार से मशीने अस्‍तित्‍व में आईं।पहले जो सामान हाथो से कारीगरों द्धारा बनाया जाता था
कारपोरेट
कारपोरेट
वो मशीनों से बनाया जान लगा।मशीनों से बना सामान अपेक्षाकृत न केवल सस्‍ता होता था बल्‍कि ज्‍यादा सुगढ़ और आकर्षक भी होता था इसलिए तेजी से बिकने लगा।एक मशीन सैंकड़ों कारीगरों के बराबर माल बना सकती थी इसलिए सैंकड़ों कारीगरों को जाने वाला मुनाफा अब एक मालिक को जाने लगा जिससे मुनाफे के रूप मे तेजी से पूंजी बनने लगी।प्रारम्‍भ में कारखाने रोज इस्‍तेमाल होने वाली वस्‍तुएं जैसे कि कपड़ा और धातुओं के सामान बनाती थीं लेकिन तकनी की विकास और अनुसंधान से नए नए उत्‍पाद बाजार में आने लगे।नए उत्‍पादों को बनाने के लिए कारखाना लगाना पड़ता था नई मशीनें खरीदनी पड़ती थीं जिसके लिए पूंजी की जरूरत पड़ती थी1मालिकों के पास एकत्र हुआ मुनाफा इस काम में आया।अर्थात जो सेठ पहले ही कमा रहा था उसी के पास नई मशीन लगाने की क्षमता सबसे ज्‍यादा थी।इस प्रकार कम्‍पनियों का तेजी से विस्‍तार होने लगा

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और पैसे से पैसा कमाने का चक्र शुरू हो गया जो आज तक जारी है1विस्‍तारीकरण की इसी क्रिया में आज की कारपोरेट संस्‍कृति जन्‍म हुआ।
                    विकास की इस यात्रा में ऐसे उत्‍पाद भी आए जिनको बनाने के लिए बड़ी पूंजी,बड़ी जगह और माल बनाकर रखने के लिए बड़े बड़े गोदामों की जरूरत थी जैसे साइकिल,स्‍कूटर,कारें हवाई जहाज रेल आदि।इन कारखानों को लगाने के लिए सस्‍ती पूंजी,सस्‍ती जमीन की आवश्‍यकता ने नेताओं और उद्योगपितयों के बीच गठजोड़ बनाने का काम किया।कारपोरेट सरकर और नेताओं पर पैसा खर्च करने लगे,बदले में सरकारें ऐसा कानून बनाने लगीं जिससे सस्‍ती जमीन और बैंकों से बिना जमानत सस्‍ती पूंजी मिलने लगी।टैक्‍स सम्‍बंधी कानून इस तरह से बनने लगे कि कारपोरेट को लाभ पहुंचे।साथ ही नेताओं से साठगॉठ के कारण कानून तोड़ने पर,कर चोरी करने पर उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं होती या होती भी तो इस तरह कि नुकसान कम से कम हो।इस संस्‍कृति में बहुत बड़ा मोड़ तब आया जब पूंजी जुटाने के लिए शेयर जारी करने की प्रथा शुरू हुई।बैंक से कर्ज लेने पर ब्‍याज देना अनिवार्य होता है पर शेयर धारक को लाभ होने पर ही लाभांश देना पड़ता है।शुरू शुरू में लोग उसी कम्‍पनी के शेयर खरीदते थे जो ज्‍यादा लाभांश देती थी।कालान्‍तर में शेयर बाजार बनने के बाद कम्‍पनी की सम्‍पदा और भविष्‍य की सम्‍भावनाओं के आधार पर शेयर बाजार में शेयरों के भाव का सट्टा होने लगा तो लाभांश गौड़ हो गया शेयर बाजार में भाव बढ़ने की सम्‍भावना ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो गई।अब लोग उसी कम्‍पनी में पैसा जल्‍दी डालते थे जिसमें भाव बढ़ने की सम्‍भावना और कम्‍पनी का कमाने का इतिहास अच्‍छा होता था।चूंकि भाव बढ़ने का आधार कम्‍पनी द्धारा कमाया गया मुनाफा ही होता है इसलिए अब कम्‍पनियों पर लगातार अच्‍छा मुनाफा कमा कर दिखाने का दबाव आ गया ताकि उनको लगातार पूंजी मिलती रहे।इसी दबाव ने कारपारेट संस्‍कृति को घिनौना बनाने का काम किया जो समय के साथ और ज्‍यादा विकृत होती जा रही है।
                       मुनाफा बढ़ाने के लिए कम्‍पनियों ने कई रास्‍ते अपनाए जो आज भी जारी है।जब कोई नया उत्‍पाद बाजार में आता है तो लोगों को उसकी लत डालने के लिए कम्‍पनी लागत से कम पर माल बेच कर उसकी खपत इतनी बढ़ा लेते हें कि उनकी लागत कम हो जाती है और मुनाफा होने लगता है ।100 का माल 90 में बेचने से एक लाभ ये भी होता है कि कोई दूसरा प्रतिद्धंदी जल्‍द उसमें हाथ नहीं डालता।एक बार खपत शुरू हो गई तो फिर दाम बढ़ाने के हथकंडे शुरू हेा जाते हैं,इसके लिए प्राय उत्‍पाद के पैकिंग और बनावट में मामूली फेर बदल करके यदि लागत पॉच रू बढ़ी तो उत्‍पाद का मुल्‍य 10 रू बढ़ा देते हैं।एक अन्‍य लम्‍बा तथा मंहगा रास्‍ता है प्रतिद्धंदियों की संख्‍या कम करना।इसके लिए कम्‍पनिया फिर अपनी आर्थिक शक्‍ति का इस्‍तेमाल करते हुए अच्‍छा मोल देकर या तो प्रतिद्धंदी कम्‍पनियों को खरीद लेती है या फिर भारी विज्ञापन देकर और लागत से कम दाम में लम्‍बे समय तक माल बेच कर प्रतिद्धंदी कम्‍पनी को घाटे में ले आती हैं ताकि वो एक दिन थक कर या तो कम्‍पनी बेच देता है या फिर उत्‍पादन बंद कर देता है।टाटा का साबुन व्‍यापार हिन्‍दुस्‍तान लीवर को बेच देना इस बात का उदाहरण है।समझदार कम्‍पनिया मुनाफा बढ़ाने के लिए लगातार नई तकनीक को प्रयोग में लाकर माल की
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गुणवत्‍ता बनाए रखती हैं या फिर बढ़ा देती है इससे भी उनको मन मर्जी के दाम में माल बेचने की शक्‍ति मिलती है। मुनाफा बढ़ाने के दो रास्‍ते और हैं जिसमें न तो विज्ञापन की जरूरत है और न ही दूसरी कम्‍पनी खरीदने की।पहला तरीका है कि जो माल आप खरीद रहे हैं उसे भी खुद ही बनाना शुरू कर दो इसको backward integration कहते हैं।उदाहरण के तौर पर एक कार बनाने वाली कम्‍पनी टायर,ट्यूब,सीट कवर आदि बहुत सी चीजें बाहर से लेती है,साइकिल बनाने वाली कम्‍पनी लोहे का पाइप बाहर से लेती हे अगर ये कम्‍पनियां बाहर से लिया जाने वाला सामान भी बनान शुरू कर दे तो जो मुनाफा बाहर के सप्‍लायरों को जा रहा है वो इनका बचने लगेगा।इसी प्रकार जो दूसरा तरीका है उसे Forward Integration कहते है।इसमें कम्‍पनी जो माल दूसरों को उत्‍पादन में इस्‍तेमाल के लिए दे रही है उस माल से खुद वो सामान बना ले।उदाहरण के लिए कोई आदमी साबुन बनाने वालों को केमिकल सप्‍लाई कर रहा है तो अगर वो खुद साबुन की फैक्‍ट्री लगाकर साबुन बेचने का मुनाफा भी कमा सकता है।
          कहते हैं कि आवश्‍यकता आविष्‍कार का जननी होती है।कम्‍पनियों की मुनाफे की भूख भी जब सुरसा की भूख की तरह बढ़ने लगी तो नए नए रास्‍ते निकाले जाने लगे।पैसा जब बहुत आने लगा तो बाजार विशेषज्ञों की टीम बनी जिन्‍होंने विष्‍लेषण करने पर पाया कि पैसा पुरूष कमाता है इसलिए उसके दिल में पैसे के लिए दर्द होता है इसलिए जब तक पैसा पुरूष के हाथ में है फिजूल का सामान बेचकर बाजार का विस्‍तार करना असम्‍भव है लेकिन यही पैसा अगर सीधे स्‍त्री के हाथ में जाने लगे तो उसकी चंचलता,चपलता,सुन्‍दर दिखने और दुनिया पर छा जाने की चाहत बाजार की स्‍थिति को बदल सकती है।स्‍त्री जब पैसा कमाने के लिए घर से बाहर निकलेगी तो पुरूष भी उसे रिझाने के लिए पैसा खर्च करेगा।ये समझ में आते ही बाजार ने स्‍त्री को अपने निशाने पर ले लिया। बिजली,सड़क यातायात की सुविधाओं के आ जाने से स्‍त्री  भी बाहर  आना  चाहती थी,बाजार ने भी उसको नौकरी और व्‍यवसाय के लिए प्रोत्‍साहित किया।हर स्‍त्री में सुन्‍दर दिखने की प्रबल इच्‍छा होती है,स्‍त्री के हाथ में जब पैसा आया तो सबसे पहले जूते चप्‍पलों,कपड़ों गहनों और सौंदर्य प्रसाधनों के बाजार का विस्‍तार हुआ।थोड़ा सा अच्‍छा मेकअप,अच्‍छे और सलीके से पहने गए कपड़े तथा बाहर निकलने से मिले आत्‍मविश्‍वास ने स्‍त्री को निखार दिया तो न केवल पुरूष उसकी ओर आकर्षित हुए बल्‍कि घर में बैठी स्‍त्री में भी उसकी तरह स्‍मार्ट बनने की ललक पैदा हो गई।एक चक्र बन गया ज्‍यादा स्‍त्रीयां बाहर आती गई और बाजार फैलता गया।रोज नए नए उत्‍पाद लाकर बाजार ने खरीदारी को स्‍त्री का नशा बना दिया।इस बाजारी करण के आन्‍दोलन को पूरे पिश्‍व में फेलाने के लिए लड़कियों की सौंदर्य प्रतियोगिताएं आयोजित करके उन देशों की लड़कियों को चुना जाने लगा जिसमें बाजार को बढ़ावा देना था।भारत में भी 1990 से 2000 के बीच जब उदारीकरण के कारण अर्न्‍तराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों को घुसने का मौका मिला तो सौन्‍दर्य प्रतिशेगिताओं में लगातार कई वर्ष तक भारत की लड़कियां चुनी गई,लेकिन जब भारत के बाजार पर कब्‍जा हो गया तो ये सिलसिला बंद हो गया,जबकि सत्‍य ये हे कि भारत की लड़कियां तब की

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अपेक्षा अधिक स्‍मार्ट और सुन्‍दर हो गई हैं पर बाजार को अब उनकी जरूरत नहीं है इसलिए चुना जान बंद हो गया है।                                                         
                लोग समझते हैं कि पुरूष ज्‍यादा भोगी  होते  हैं पर सत्‍य ये है कि भोग की लालसा स्‍त्री मे पुरूष से ज्‍यादा होती हे पर वो इस मामले में समझदार भी पुरूषों से ज्‍यादा होती है और संयमी भी ज्‍यादा होती है1स्‍त्री पहले तो बाजार की मदद से घर से बाहर निकली लेकिन उसकी महत्‍वाकांक्षा ने जल्‍द ही उसको भी बाजार का ही एक अंग बना दिया।जिन स्‍त्रीयों में योग्‍यता,विवेक की कमी थी उन्‍होंने अपनी महत्‍वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए अपने जिस्‍म का सहारा लेना शुरू कर दिया,उसने जिस्‍म को एक शस्‍त्र बना लिया,इसके साथ ही आजादी मिलने और निरोध की सुरक्षा मिलने के कारण स्‍त्री की अपनी यौन इच्‍छा भी बाहर आने लगी।इन दोनों तत्‍वों ने मिलकर स्‍त्री को बाजार और कारोबार का हिस्‍सा बना दिया।चूंकि हर सभ्‍यता हर समाज में शादी से पहले यौन सम्‍बंध बनाना और शादी के बाद पर पुरूष से सम्‍बंध बनाना अनैतिक माना गया था इसलिए बाजार ने अपना खेल निर्बाध खेलने के लिए इसको एक लुभावाना सा नाम दे दिया ‘’स्‍त्री सशक्‍तिकरण ‘’।निरोध के आविष्‍कार ने बाजार की इस संस्‍कृति को नया आयाम दे दिया,खेल और ज्‍यादा बेखौफ हो गया।जिस प्रकार राजनीति में सत्‍ता प्राप्‍त करने के लिए समाजवाद,पूंजीवाद,तानाशाही,साम्‍प्रदायिकता जैसे नारों को प्रयोग किया गया उसी प्रकार बाजार ने स्‍त्री को पूरी तरह वश में करने के लिए इसको नारी सशक्‍तिकरण के नारे में बदल दिया गया।पुरूषों का मनोबल तोड़ने के लिए प्रचारतंत्र की शक्‍ति का प्रयोग करके स्‍त्री की भूतकाल की स्‍थिति के लिए पुरूषों पर दोष मढ़ना शुरू कर दिया,कहा जाने लगा कि पुरूषों ने स्‍त्री का शोषड़ किया है वो नारी की प्रगति में बाधा बनने का अपराधी है अन्‍यथा स्‍त्री तो हजारों साल पहले बिना राकेट ही मंगल ग्रह पर पहुंच गई होती,स्‍त्री का राज होता तो इस दुनिया में कोइ् समस्‍या ही नहीं होती,हर जगह स्‍वर्ग होता।पुरूष ने भी प्रचार के दबाव में इस आरोप को सत्‍य मानकर खुद को अपराधी मान लिया किसी ने ये नहीं सोचा कि स्‍त्री जैसे चतुर प्राणी को,जिसे देखकर विवेक खो देना वाला पुरूष गुलाम कैसे बना सकता है।सत्‍य ये है कि जब घर से बाहर धूल थी,धूप थी,पसीना था,घर से बाहर जाकर तीन समय का भोजन कमाने की अपेक्षा घर में तीन समय भोजन पकाना ज्‍यादा सुविधा जनक ज्‍यादा सुरक्षित था तो स्‍त्री ने घर चुना और आज जब घर से बाहर ए सी कारें हैं,होटल हैं,सिनेमा है,निरोध है भोग है तो वो पुरूषो पर दोष मढ़ कर उसे घर के अन्‍दर ढकेलने की प्रयास कर रही है।जिस पुरूष ने नारी सम्‍मान के लिए रावण जैसों से युद्ध किया,महाभारत का युद्ध लड़ाख्,मुसलमानों की तलवारों से कटा उसी को नारी अब अपराधी बता रही है।जिन देशों में स्‍त्रीयां मुक्‍त हैं वहॉ उन्‍होंने कुछ भी अनोखा करके नहीं दिखाया है।घर टूट गए हैं यौन शोषड़ चरम पर है बच्‍चे संस्‍कार हीन हो जाने के कारण संवेदनाहीन हो गए है जिससे समाज भंयकर हिंसा की चपेट में आकर बर्बाद हो रहा है।
       यों तो भारत में ईस्‍ट इन्‍डिया कम्‍पनी के साथ ही कारपोरेट व्‍यस्‍था आ गई थी पर आधुनिक कारपोरेट का जन्‍म जमशेद जी टाटा द्धारा जमशेदपुर में 1907 में स्‍टील की फैक्‍ट्री लगाने के साथ हुआ।नरसिम्‍हा राव के प्रधानमंत्री काल में उदारीकरण से पहले भारत में गिनी चुनी कम्‍पनिया थीं जो

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कारपोरेट व्‍यस्‍था से संचालित थीं।कम्‍पनियां तो बड़ीं बड़ी बहुत थी पर अधिकतर सेठों के पूर्ण नियंत्रण में थी वहॉ सेठों वाला सिस्‍टम ही चलता था चाहे वो टाटा की कम्‍पनियां हों या फिर बिड़ला की,ये कम्‍पनियां भी सरकारों के साथ साठ गॉठ करके मुनाफा कमाती थीं लाइसेंस लेतीं थी पर फिर भी इनकी एक नैतिकता थी जिसका ये पालन करते थे।बड़ा परिवर्तन तब आया जब इस क्षेत्र में धीरू भाई अम्‍बानी की रिलायंस ने प्रवेश किया।अम्‍बानी ने भारत के कारपोरेट जगत में जिस अनैतिकता की शुरूवात की उससे राजनीति और व्‍यापार में भ्रष्‍टाचार और बेशर्मी का राज हो गया जो आज तक जारी है।दूसरी ओर उदारीकरण से भारत में तेजी से विदेशी पूंजी आने लगी और आर्थिक परिदृश्‍य तेजी से बदलने लगा।आर्थिक उदारीकरण से पहले भारत में सरकारी नौकरियों की सबसे ज्‍यादा मॉग थी सरकारी नौकरी मिलने का मतलब था लाटरी निकलना,लोग उसको ही लक्ष्‍य बनाकर पढ़ाई करते थे।आर्थिक और शैक्षणिक योग्‍यता के कारण अधिकतर सरकारी नौकरियां सवर्णों को ही मिलती थीं लेकिन मंडल अयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद रातो रात 50% सरकारी नौकरियां उच्‍च वर्ग के हाथ से निकल  गईं, ऐसै में उदारीकरण सवर्णों के लिए संजीवनी बनकर आया।उदारीकरण नहीं आता तो सवर्णों की स्‍थिति दयनीय होने वाली थी लेकिन उदारीकरएा से प्राइवेट क्षेत्र में न केवल नौकरियां बल्‍कि अच्‍छे वेतन के साथ आई जिसमें कम्‍प्‍यूटर का क्षेत्र खास था।1990 से 2000 के दशक में तब लोग 15 से 20 हजार की तनख्‍वाह परर लगने लगे तो लोगों की ऑखें फटी की फटी रह गई क्‍योंकि उस समय 20000 का वेतन सरकारी नौकरी में बिरलो को ही मिलती थी।शादी के बाजार में आई टी वाले दूल्‍हे का भाव आई ए एस के बराबर तक पहुंच गया क्‍योंकि भारी वेतन के साथ साथ अमरीका जाने का मौका भी साथ में था।आई टी का विस्‍तार हुआ तो आमदनी बढ़ी आमदनी बढ़ी तो बाजार फैला बाजार फैला तो नए नए क्षेत्र खुले जैसे कि प्रबंधन,बिक्री,वित्‍त, होटल तथा ट्रैवल। नौकरिया बड़ी संख्‍या में उपलब्‍ध हो गई चूंकि यहॉ सरकारी आरक्षण नहीं था इसिलए उच्‍च्‍ वर्ग को ही लाभ हुआ, अगले दस वर्षों में स्‍थिति इतनी बदल गई कि लोग सरकारी नौकरी नहीं बल्‍कि इन नौकरियों को नजर में रखकर बच्‍चों को शिक्षा देने लगे।लेकिन पैसा आने से मंहगाई भी बाजार में आ गई।दस वर्ष पहले स्‍थित ये थी की 15 % लोग 85%  माल खरीदतेथे।इस बदली हुर्द तस्‍वीर का एक प्रभाव तो ये हुआ कि सरकारी नौकरियों में प्रतिभावान कम जाने लगे उपर से सरकारी कर्मचारीयों ने भी उँची तनख्‍वाह मांगना शुरू कर दी जो कि छठे वेतन आयाग में देना पड़ी।उदारीकरण के बाद शुरू हुए मंहगाई और वेतन वृद्धि का चक्र आज तक जारी है जनता,कम्‍पनियां और सरकार सभी परेशान हैं।
           वास्‍तव में बाजार बहुत चालाक है उसने एक ओर लोगों के हाथ में पैसा दिया तो दूसरी ओर वापस लेने के भी रास्‍ते बना लिए।भवन निर्माण के क्षेत्र में जो कम्‍पनियां मुम्‍बई जैसे महानगरो तक सीमित थीं वो अन्‍य शहरों में भी पहुंच गई और बड़ी बड़ी जमीनें खरीद कर फ्लैट बनाने लगी जिससे जमींनों के भाव तेजी से बढ़े और लोग जायदाद में पैसा लगाने लगे।बिक्री बढ़ाने के लिए बैंकों से भी कर्ज का इन्‍तजाम करा दिया।मंहगाई बढ़ी तो वेतन बढ़े वेतन बढ़े तो मंहगाई बढ़ी खेल शुरू हो

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गया।ऐसे में जिनके पास जमींने थीं वो तो लाभ में रहे पर जिनके पास न तो जमींने थीं न ही आमदनी को बढ़ाने का जरिया वो घाटे में आ गए।
                                          उदारीकरण से पहले मीडिया उन हाथों में था जिनका सरोकार समाज, राष्‍ट्र और मानवीय मूल्‍य थे।इनमें लेखक तथा समाज सेवियों का वर्चस्‍व था ये ही लोग नीतियां तय करते थे मालिकों का रोज रोज का दखल नहीं होता था।मालिक इनको बदल तो सकते थे पर इनको प्रभावित करना बहुत मुश्‍किल होता था।चूंकि आने वाला पत्रकार भी जाने वाले के जैसा ही होता था इसलिए मालिक लोग इनसे उलझने से बचते थे किन्‍ही विशेष परिस्‍थिति में ही बदलते थे।इसी कारण से उन दिनों अखबार में उच्‍च कोटि की पत्रकारिता देखने को मिलती थी।मीडिया विशेष तौर पर टी वी का उतना प्रचार प्रसार नहीं हुआ था कि लोग उसमें पैसा तगाते11987 में एशियाड खेल भारत में शुरू हुए जिसमें टी वी पर रंगीन प्रसारण शुरू हुआ और गॉव गॉव कम क्षमता के टी वी केन्‍द्र स्‍थापित होने लगे जिससे टी वी का तेजी से प्रसार हुआ और निजी चैनल आने लगे।उदारीकरण के बाद टी वी और अखबारों में  विज्ञापन का कारोबार इतना बढ़ा कि निजी चैनलों की बाढ़ सी आ गर्इ्र।कारपोरेट की नाक मुनाफा सूंघने के लिए विशेष रूप से दक्ष हे फौरन कारपोरेट ने मीडिया को अपना अगला निशाना बना लिया और एक चक्र शुरू हो गया।अखबार पत्रिकाओं और टी वी में बड़ बड़े अन्‍तराष्‍ट्रीय कारपोरेट जिनके पास अथाह दौलत थी घुस गए ।कारपोरेट ने यहॉ भी 10 रू की लागत वाला माल 8 रू में बेचने वाला तरीका अपनाया।जहॉ बाजार में हर चीज की कीमत बढ़ रही थी अखबार सस्‍ते होने लगे पॉच रू वाला अखबार कम होते 2रू में आ गया पहले जो व्‍यक्‍ति अखबार मॉग कर पढ़ता था उसके यहॉ भी अखबार आने लगा जिसके यहॉ एक अखबार आता था उसके यहॉ दो आने लगे।अखबारों के इस प्रसार से विज्ञापन के भाव भी बढ़ गए और ज्‍यादा विज्ञापन भी आने लगे।आज स्‍थिति ये हे कि अखबार अब घर घर समाचार पहुंचाने के लिए  नही बल्‍कि पिज्ञापन पहुंचाने के लिए छापे जा रहे हैं।
        पत्रिकाओं और टी वी विज्ञापनों की दुनिया अखबारों से भी बड़ी हो गई तो वहॉ पैसा भी ज्‍यादा लगाया जाने लगा ग्‍लैमर डाला गया,पत्रिकाओं में रंगीन छपाई औरतों की मादक सुन्‍दर तस्‍वीरें फिल्‍मों की गपशप चाट पकौड़ी और ऐसा लेखन जिसमें सेक्‍स उत्‍तेजना फिल्‍मी गपशप के साथ सपनों का संसार था परोसा जाने लगा।अखबारों की तरह यहॉ भी घर घर में विशेष कर स्‍त्री वर्ग में ये चुगलखोर पत्रिकाएं लोकप्रिय होने लगीं,सामाजिक सरोकार वाली साफ सुधरी पत्रिकांऐ बंद होने लगीं1चूंकि इस तरह की पत्रकारिता के लिए काबिल लोगों की जरुरत नहीं थी इसलिए बिकाउॅ लोग सम्‍पादक बनाए जाने लगे कुछ पत्रिकाओ ने तो मशहूर फिल्‍मी हस्‍तियों को ही सम्‍पादक बना डाला,जिसका सत्‍य ये है कि लिखता कोई और है नाम किसी और का।पहले के सॅपादको के लिए पत्रकारिता रोजी रोटी बाद में पहले एक समाज सेवा होती थी।नए सॅम्‍पादको के लिए ये केवल एक नौकरी थी सेवा का अशं उसमें जीरो था इसलिए समाज,मानवीय मूल्‍य,राष्‍ट्रीय चेतना की आवश्‍यकताओं को ताक पर रखकर चटपटा परोसा जाने लगा।यही कहानी टी वी के साथ भी दोहराइ गई टी वी चूंकि पत्र पत्रिकाओं से ज्‍यादा सशक्‍त माध्‍यम है इसलिए उसमें पाखंड,ग्‍लैमर मादकता चुगलखोरी न केवल परोसी जाने लगी बल्‍कि पाखंड का भी व्‍यापार शुरू हो
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गया।अब तो इतना बुरा हाल है कि बडे बड़े नामी फिल्‍मी सितारे भी टी वी में तंत्र मंत्र गंडे ताबीज बेच रहे हैं और भोले भाले हिन्‍दू,जिनकी आस्‍था तर्कों से परे हे,इन टी वी पर बेचे जा रहे पाखंड में करोड़ो रू0 गवॉ रहे हैं।सुनने में तो ये भी आता हे कि टी वी के कुछ पत्रकार ब्‍लैकमेलर बनकर करोड़पति बन गए हैं।दूसरी तरह से कहें तो जमींदारो ने शोषड़ का तरीका बदल लिया है अब वो लच्‍छेदार बातें बना कर सपने दिखाकर गरीबों को लूट रहे हैं1बढ़ती तनख्‍वाह बढ़ती मंहगाई और बढ़ती लूट के चक्र व्‍यूह में फंसकर मीडिया अब पूरी तरह कारपोरेट का गुलाम हो गया है।मीडिया के मालिक अब बड़े बड़े भारतीय या पिदेशी कारपोरेट हैं इसलिए अब मीडिया में समाज की नहीं कारपारेट की नैतिकता परोसी जा रही है।इसके उदाहरण तो बहुत है केवल दो दे रहा हूं।लगभग चार साल पहले बैंगलोर में राम सेना के आदमियों ने कम उम्र की लड़कियों को पब में जाकर शराब पीने के विरूद्ध आंदोलन चलाया तो मीडिया ने ये प्रश्‍न नहीं उठाया कि गॉधी के देश में जहॉ पुरूषों का शराब पीना अच्‍छा नहीं माना जाता है वहॉ लड़कियों को वो भी कम उम्र की को शराब क्‍यों पिलाई जाती है।उल्‍टा मीडिया  ये पूछने लगा कि राम सेना कौन होती है लड़कियों को रोकने वानी पैसा उनका है जिस्‍म उनका है।ये लड़कियों की स्‍वतंत्रा पर प्रहारहे।ये बात किसी को भी समझ में नहीं आई कि लड़की समाज की नींव है वो ही शोषित और
लक्षमी नारायण अग्रवाल
प्रदूषित हो जाएगी तो समाज का भविष्‍य क्‍या होगा।पूरे मानव समाज का भविष्‍य इसके साथ जुड़ा है लेकिन मीडिया को तो इसको चटपटा बनाना था बना दिया।इसका दूसरा उदाहरण भारत सरकार के स्‍वास्‍थ मंत्री श्री हर्षवर्धन का वो बयान है जिसमें उन्‍होंने कहा कि सेफ सेक्‍स से पत्‍नी के साथ वफादरी ज्‍यादा सेफ हे।मीडिया ने उनका सम्‍मान करने के बजाय फौरन उनको फौरन पुरातनपंथी कहना शुरू कर दिया पर अच्‍छा हुआ ये बात दूर तक नहीं गई।इसी प्रकार के कई उदाहरण हैं जिसमें मीडिया ऐसी बातों को दिखाता है जिससे मानवीय सम्‍बंधों की गरिमा,मानविय संवेदना कम होती जा रही है।                            
           सिनेमा के आने से पहले समाज में चेतना का प्रसार साहित्‍य के माध्‍यम से होता था,इसमें भी कथा साहित्‍य का विशेष योगदान था लेकिन साहित्‍य में उपदेश तो बहुत थे पर मनोरंजन बहुत कम था इसलिए सिनेमा जब कथा के साथ मनोरंन भी लाया तो तेजी से लोकप्रिय होने लगा।भारत में उदारीकरण से पहले सिनेमा मूलत: कलाकारों के हाथ में था जिस प्रकार सम्‍पादक अखबरों का मसाला तय करते थे कलाकार सिनेमा का करते थे,कलाकार ही साहूकारों से पैसा लेकर फिल्‍म बनाते थे इसलिए मनोरंजन के साथ साथ लगातार प्रेम भाईचारे,सहिष्‍णुता और सामाजिक दायित्‍व का संदेश सिनेमा में रहता था।इस दौर में सिनेमा में लेखक मूलत: साहित्‍कार होते थे।सिनेमा में पहला परिवर्तन तब आया जब आक्रोश पर्दे पर फटा जिसके महानायक अमिताभ बच्‍चन थे।इसके माध्‍यम से समाज में व्‍याप्‍त घुटन तथा आक्रोश को अभिव्‍यक्‍ति मिली लेकिन साथ ही माफिया भी सिनेमा का विषय बन गया जिसने माफिया को सिनेमा की ओर आकर्षित किया।धीरे धीरे माफिया का पैसा फिल्‍मों में आने लगा हिंसा का महिमा मंडन होने लगा।माफिया का प्रभाव बढ़ ही रहा था कि तभी उदारीकरण आ गया।1980 में जो वी सी आर 50000 रू0 का था वो 1992 आते आते 5000 रू0 का हो गया लोगों की आमदनी बढ़ चुकी थी इसलिए घर घर वी सी आर आ गए और सिनेमा हाल में जाने वालों की संख्‍या घटने लगी।इसी समय में
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सिनेमा में कारपारेट का प्रवेश हुआ जिसने उन 15 प्रतिशत लोगों को नजर में रखकर सिनेमा बनाना शुरू किया जिनकी जेब में क्रेडिट कार्ड था जो सिनेमा हाल तक आता था।इसके लिए पश्‍चिम की तर्ज पर सिनेमा बनना शुरू हुआ जिसमें पश्‍चिमी ढंग का रोमांस पश्‍चिमी धुनों पर संगीत आदि थे।अब सिनेमा इन्‍हीं कारेपोरेट या माफिया के हाथ में है इसलिए उसमें अधिकतर हिंसा या पश्‍चिमी जीवन शैली के दर्शन होते हें1कुछ पुराने निर्माता भी हैं इसलिए कभी कभी पुराने ढंग का सिनेमा भी आ जाता है।सिनेमा और मीडिया में कारपोरेट केदखल का सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि समाज के पश्‍चिमीकरण की गति अचानक तेज हो गई,बाजार की सस्‍कृति के प्रसार के लिए इस्‍तेमाल किया जाना लगा।पहले हर बात के लिए पार्टी करने का प्रचार हुआ फिर हर मौके पर गिफ्ट देने कार्ड देने का प्रचार हुआ अब बात रिटर्न गिफ्ट तक आ पहुंची है।मॉ बाप को भी अब कार्ड देकर आई लव यू कहा जाता है।
               जिस तरह सुरसा की हवस की सीमा नहीं थीं उसी प्रकार कारपोरेट की हवस की भी कोई सीमा नहीं है।टी वी जब पूरी तरह कब्‍जे में आ गया तो ऐसै कार्यक्रम पेश किए जाने लगे जिनका कोई अर्थ नहीं है केवल उसके बहाने विज्ञापन दिखाना ही एक मात्र लक्ष्‍य है।परिणाम ये हुआ कि जल्‍द ही लोग टी वी से उबने लगे।तब चैनलों ने विज्ञापन बनाए रखने के लिए विदेशों से नकल करके या लाइसेंस लेकर कौन बनेगा करोड़पति,डान्‍स इन्‍डिया डांस और इन्‍डियन आइडोल जैसे कार्यक्रम बनाने शुरू कर दिए।भव्‍य मंच,नामी सितारे,और बड़े बड़े इनाम रखकर देश के नौजवानों को सपने दिखाकर आकर्षित किया जाने लगा।बहुत से लोग कहना चाहेंगें कि इससे नई प्रतिभाओं को मौका मिलता है पर ये बहुत छोटा सत्‍य है।जिस प्रकार चमकते दर्पण के पीछे कुछ भी अच्‍छा नहीं होता उसी प्रकार यहॉ भी है।के बी सी में अमिताभ बच्‍चन,दूसरे कार्यक्रमों में उसके जज तथा निर्माता और दिखाने वाले विज्ञापन से आए धन में से करोड़ों कमाते हैं किसी एक प्रतियोगी को कुछ लाख दे दिए जाते हैं।सैंकड़ों लोंग भाग लेते हैं ईनाम एक को मिलता है बाकी के लोग शोषड़ के लिए मुम्‍बई नगरी में रह जाते हैं इस उम्‍मीद में कि शायद उनको भी कहीं अवसर मिल जाए,मुम्‍बई की चमक दमक देखकर आने का मन नहीं होता।भयावह स्‍थिति तब होती है जब कुछ समय तक छोटा मोटा काम मिलकर बंद हो जाता है लड़कियां तो शारीरिक शोषड़ का भी शिकार होती हैं।आज तक इन गायन प्रतियोगिताओं में से चुने गए बच्‍चों में से कोई भी प्रमुख गायक नहीं बन पाया है।सबसे बड़ा सत्‍य तो ये हे कि प्रतियोंगिताएं ईमानदारी से नहीं होतीं इनमें भ्रष्‍टाचार भी होता है।पर्दे के पीछे  सौदा होने के कारण काबिल रह जाता है दूसरे को जिता दिया जाता है।इस गोरख धंधे में सबसे ज्‍यादा कम उम्र के बच्‍चे हो रहे हैं,पढ़ाई,बचपन,संस्‍कार सब पैसे की आस में रह जाते हैं प्रतियोगिता समाप्‍त होते ही उनको पूछने वाला कोई नहीं रहता है।
         कारपोरेट का घिनौना चेहरा देखना है तो स्‍वास्‍थ सेवाओं में देखिए।जब से कारपोरेट अस्‍पताल खुले हे हालत ये हो गई हे कि गरीब का बीमार पड़ना उसकी बर्बादी की गारंटी है,बच गया तो खाने के लिए पैसे नहीं बचते मर गया तो दफनाने के लिए पैसे नहीं बचते।डाक्‍टरों को बड़ी बड़ी तनख्‍वाह पर रख कर इन अस्‍पतालों ने डाक्‍टरों को भी बनिया बना दिया,अस्‍पताल का मालिक आराम से घूमता रहता है डाक्‍टर बड़े बड़े बेमतलब के बिल बना बना कर लोगों को लूट लूट कर अपने मालिक को देते रहते हैं।                   
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दवाओं के क्षेत्र में हो रही लूट देखकर तो चम्‍बल के डाकू भी शर्म से गड़ जाएगे।एक ही दवा किसी कम्‍पनी की 100 की है तो दूसरी की 80 में और तीसरी की 60 में और वही दवा अगर जेनेरिक में लें तो 25 में मिल जाती है कभी कभी तो केवल 10 रू में ही मिल जाती है।लूट का हिसाब ये है कि जितने रू में एक किलो दवा बनती है उतने रू में एक ग्राम बेची जाती है,बीच के 90 प्रतिशत में से 25 प्रतिशत थोक और खुदरा दुकानदारों को कमीशन जाता है बाकी में भारी मात्रा में डाक्‍टरों को घूस दी जाती है।इस आदम खोर कारपोरेट ने कभी सहृदय रहे डाक्‍टरो को भी आदमखोर बना दिया है!इससे भी बड़ी हैवानियत की बात ये है कि भारत जैसे देश में भोले भाले गरीबों पर नई नई दवाओं का परीक्षण करके लोगों की जान ले ली जाती है।कारपोरेट ने जिस क्षेत्र में कदम रखा उसे मंहगा कर दिया।आज भारत में किसानों की आत्‍महत्‍या के लिए बहुत हद तक कारपोरेट ही जिम्‍मेदार है,रासायनिक खाद,कीटनाशक और हाइब्रिड बीजों के पर खेती को निर्भर बनाकर खेती की लागत को इतना बढ़ा दिया कि अब बिना सरकारी बैसाखी के किसान जिंदा ही नहीं रह सकता।जहॉ सरकार का समर्थन नहीं मिलता हे वहीं वो घोटे में आ जाता है।भारत में सिगरेट का प्रचार करना अवैध और दंडनीय अपराध है।लेकिन विदेशी सिगरेट कम्‍पनी फिलिप्‍स गाडफ्रे ने इस कानू से बचनेका एक घिनौना तरीका निकाला।उसने क्षात्रों को बड़े बड़े होटलों में दारू पार्टी दी सिगरेट पिलाई और मंहगे मंहगे गिफ्टों का लालच देकर उनको अपने ब्रांड की सिगरेट के प्रचार प्रसार में लगा दिया।इनके मुनाफे की हवस का आलम ये है कि अब वो सब्‍जी,फल तक बेचने पर उतर आए है,बड़े बड़े माल खोलकर करोड़ों लोगों का व्‍यापार छिनकर उनको व्‍यापारी से नौकर बनने पर मजबूर किया जा रहा है।
                सच ये है कि एक ओर आतंकवादी दुनिया को कबीला बनाकर हरम स्‍थापित करना चाहते हैं, इन्‍सानों की खरीदी बिक्री का युग लाना चाहते है तो दूसरी ओर कारपोरेट दुनिया को एक बाजार बनाकर इन्‍सान को एक कमोडेटी बनाने पर तुले हैं।दोनों ही व्‍यस्‍थाओं में मानव भविष्‍य अंधकार मय है ऐसै में हिन्‍दू अर्थ तंत्र ही मुझे एक मात्र ईश्‍वरीय देन बनकर मानव जगत का उद्धार कर सकता है।केवल भारत के लिए ही नहीं आज पूरे विश्‍व के लिए हिन्‍दू अर्थ तंत्र ही सबसे ज्‍यादा उपयोगी है,गॉधी जी ने इसकी उपयोगिता को पहचान कर ही ग्राम स्‍वराज के माध्‍यम से इसे लाने का प्रयत्‍न किया था। भारतीय चिंतन ने बहुत पहले इस सत्‍य को जान लिया था कि मानव लालची होता हे इसलिए उस पर समाज की नकेल जरूरी है,दूसरा ये कि मानव को मानव बने रहने के लिए उसकी समाज से जुड़ेरहना जरूरी है इसलिए भारतीय दर्शन पर आधारित हिन्‍दू अर्थ तेत्र में समाज व्‍यक्‍ति और धनोपार्जन के बीच संतुलन बनरए रखने के लिए स्‍व रोजगार पर बल दिया है ताकि कर्मचारियों की संख्‍या कम से कम रहे, जितना ज्‍यादा स्‍वरोजगार होगा उतना ही शोषड़ कम होगा,आदमी को घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा,समाज और परिवार के लिए समय देकर सामाजिकता की प्‍यास को बुझा सकेगा।कारपोरेट व्‍यस्‍था हिन्‍दू अर्थ व्‍यस्‍था से बिलकुल उलट है,इसमें केन्‍द्रीयकरण पर बल दिया गया है जिसमें मुठ्ठी भर मालिक होगें और बाकी पूरी दुनिया कर्मचारी।
      
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अब प्रश्‍न ये उठता हे कि अगर कारपोरेट लूट रहा है तो गरीबी कम कैसे होती जा रही है।कभी एक साइकिल भी मुश्‍किल होती थी आज हर आदमी स्‍कूटर कार पर घूम रहा है,ट्रेनों में एसी की मॉग बढ़ती जा रही है पहले भूख से मौतें होतीं थीं अब मोटापे से मौते हो रहीं हैं1इसके पीछे का सच चौंकानें वाला है।विज्ञान में सिद्धांत हे कि उर्जा न तो पैदा की जा सकती है न ही नष्‍ट की जा सकती है केवल उसका रूप बदल सकता है।उसी प्रकार अर्थतंत्र का सिद्धांत है कि यदि एक जगह कुछ जोड़ा जाता है तो दूसरी जगह उतना ही घटाया जाना भी अनिवार्य होता है।तो प्रश्‍न उठता है कि लोग अमीर हो रहे हैं सुविधाएं बढ़ती जा रहीं हैं मॉग बढ़ती जा रही है तो इसकी कीमत कौन चुका रहा है,किसके खाते से आ रहा है ये माल।इसकी कीमत पृथ्‍वी चुका रही है लोगों के घर सामानों से भरते जा रहे हैं धरती खाली होती जा रही है।जहॉ पेड़ों के झुरमुट थे अब कचरे के ढेर हैं,जहॉ वनस्‍पति के जंगल थे अब कंक्रीट के जंगल हैं,जहॉ खूबसूरत तालाब थे वहॉ दलदल हैं,जहॉ नदी बहती थी अब नाले बहते हैं,जहॉ शुद्ध हवा थी वहॉ अब धूल धुआं जहरीली गैसे हें,पहाड़ लुटे पिटे बदहवास खड़े हैं और इस सब के पीछे पश्‍चिम का वो दर्शन हे जो कहता है More The Merrier अर्थात आनन्‍द ज्‍यादा में हैं ज्‍यादा भोग ज्‍यादा आनन्‍द।आइए पड़ताल करते हैं इस दर्शन की।इस दर्शन में दो शब्‍द हे More तथा Merrier,ध्‍यान देने की बात है कि दोनों ही शब्‍द तुलनात्‍मक है इसलिए परिभाषित नहीं किए जा सकते,अधूरे है।गणित में यदि 1/2  को 1/2 से गुणा किया जाए तो परिणाम ¼ आता है उसी प्रकार दो अधूरे शब्‍द मिलकर अधूरेपन को बढ़ा देते हें।जो परिभाषासित नहीं किया सकता उसको प्राप्‍त भी नहीं किया जा सकता है अर्थात पश्‍चिम का ये दर्शन एक मरीचिका के पीछे भागने को कह रहा है।मिथ्‍या के पीछे भागने वाले की जो नियति होती है वही आज की दुनिया की हो रही है।आदमी भागते भागते पैदा हो रहा है,भागते भागते जी रहा है और भागते भागते मर जाता है।
                   धरती करोड़ों वर्ष पुरानी है मानव जीवन लाखों वर्ष पुराना है पर आज तक जीवन पर मानव निर्मित सम्‍पूर्ण विनाश का संकट कभी नहीं आया।वर्तमान व्‍यस्‍था केवल 200 वर्ष पुरानी है और 200 वर्षों में ही पृथ्‍वी पर जीवन के अस्‍तित्‍व पर संकट मंडराने लगा है।कारेपोरेट कल्‍चर ने उदारवादियों को भोग में लगा कर इतना कमजोर कर दिया है कि अपार सैनिक क्षमता होते हुए भी वो आतंकवाद से लड़ने में खुद को अक्षम पाता है।भारत आतंकवाद से अभी तक जितना बचा हुआ है उसका कारण उसके वैचारिक पक्ष का मजबूत होनाहै।कुछ वैज्ञानिक तो पृथ्‍वी पर इस सदी को मानव जीवन की अंतिम सदी मान रहे हैं।देखना है कि धरती आतंक के परमाणु बम से नष्‍ट होती है या पर्यावरण बम से।

यह रचना लक्ष्मी नारायण अग्रवाल जी द्वारा लिखा गयी है.आपकी मुक्ता,गृहशोभा,सरस सलिल,तारिका,राष्ट्र धर्म,पंजाबी संस्कृति,अक्षर ,खबर ,हिन्दी मिलाप पत्र -पत्रिकाओं आदि में प्रकाशन। कई कहानियाँ व व्यंग्य पुरस्कृत । कई बार कविताएं आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी है ."आदमी के चेहरे'( कविता संग्रह ) 1997, "यही सच है'(कविता संग्रह) 1998 आदि आपकी प्रकाशित रचनाएँ हैं . सम्पर्क सूत्र - घरोंदा, 4-7-126, इसामियां बाजार हैदराबाद -500027 मोबाइल - 09848093151,08121330005, ईमेल –lna1954@gmail.com

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