सृष्टि के प्रारम्भ से ही व्यक्ति में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रही है। बिना ज्ञान के व्यक्ति पशु के समान है। ज्ञानोपार्जन के माध्यम समय के साथ बदलते रहे हैं।
ज्ञानोपार्जन: तब और अब
सृष्टि के प्रारम्भ से ही व्यक्ति में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रही है। बिना ज्ञान के व्यक्ति पशु के समान है। ज्ञानोपार्जन के माध्यम समय के साथ बदलते रहे हैं। जीवन में ज्ञान का जितना महत्त्व है उतना ही इन साधनों का। सामाजिक, सांस्कृतिक व तकनीकी परिस्थितियों के अनुसार ज्ञानोपार्जन के माध्यमों में काफ़ी बदलाव आया है।
प्राचीनकाल में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था तो ज्ञान गुरुओं के माध्यम से दिया जाता था। ऋषि-मुनि व परिवार के मुखिया द्वारा तंत्र-मंत्र, जड़ी-बूटियों व अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती थी। किन्तु उन्हें संग्रहित करने का कोई माध्यम नहीं था।
संग्रहण की आवश्यकता महसूस होने पर चित्रों व चिह्नों द्वारा पत्थर पर लिखकर अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने का चलन प्रारम्भ हुआ। सिंधु घाटी की सभ्यता में अनेक ऐसे उदहारण मिलते हैं जहाँ इस प्रकार के चिह्न लिपि रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
लिपि के विकसित होने के साथ ही भोजपत्र व ताड़पत्र पर लिखने की क्रिया आरंभ हुई। लिखने के लिए ताड़ के पत्ते को पहले सुखाकर पानी में भिगोया जाता था, फिर पत्थर से घोटकर मनचाहा आकार दिया जाता था। किसी नुकीली चीज़ से अक्षर खोदकर काले रंग या काजल से पोत दिया जाता था। काला रंग शब्दों के रूप में दिखाई देने लगता था। भोजपत्र का प्रयोग कागज़ की खोज से पहले लिखने के लिए प्रचुर मात्रा में किया जाता था। ‘भोजपत्र’ भोज नामक वृक्ष की छाल है, जो सर्दियों में अपने आप उतरती है। सूखने पर वह कागज़ जैसी हो जाती है। भोजपत्र पर लिखी गयी पांडुलिपियाँ आज भी सुरक्षित हैं।
कागज़ का आविष्कार चीन में ईसा की आरंभिक शताब्दी में हुआ। कई वर्षों के बाद चीन में ही ‘ब्लॉग प्रिंटिंग’ की शुरुआत हुई। लकड़ी के ब्लॉग द्वारा यह काम किया जाता था। छापाखाना और लोहे की प्रैस का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। भाप की शक्ति से शुरू होकर बिजली संचालित प्रैस विकसित हुई। इसके बाद तो इस क्षेत्र में क्रांति सी आ गयी। समाचार पत्रों, पुस्तकों व पत्रिकाओं द्वारा ज्ञान आम व्यक्ति तक पहुँचने लगा।
तकनीक के विकास के साथ ही पुस्तकों का कागज़ी स्वरूप भी बदलने लगा। समान्य पुस्तकों का स्थान ‘ई-बुक’ ने ले लिया। ई-बुक यानि इलेक्ट्रोनिक बुक अर्थात वह पुस्तक जिसे कम्प्यूटर, मोबाइल व टेबलेट आदि इलेक्ट्रोनिक साधनों पर पढ़ा जा सके। अब तो समाचार पत्र व पत्रिकाएँ भी डिजिटल हो रहीं हैं। ई-पुस्तकों को ध्यान में रखते हुए ई-रीडर बाज़ार में उतारे गए जो अब नई पीढ़ी की पसंद बनते जा रहे हैं। ई-बुक को कागज़ की पुस्तक की तुलना में पसंद करने के अनेक कारण हैं। कागज़ी पुस्तक से ई-बुक सस्ती होती हैं तथा इनका रख-रखाव भी नहीं करना पड़ता। इसके अतिरिक्त इनके कटने-फटने का डर भी नहीं रहता तथा कहीं भी उठाकर आसानी से ले जाया जा सकता है। ई-बुक के प्रयोग को कई बार पर्यावरण के हित में भी बताया जाता है। इसका कारण यह है कि कागज़ के लिए जंगल काटने पड़ते हैं। इस दृष्टिकोण से ई-पुस्तक का प्रयोग पर्यावरण-संरक्षण के साथ खड़ा दिखाई देता है। किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘ई-वेस्ट’ अर्थात इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं से होने वाला कचरा पर्यावरण के लिए एक नई मुसीबत बनकर खड़ा हो रहा है। इसके अतिरिक्त इन सबसे आँखों व शरीर के कुछ अन्य भागों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
आधार भले ही कुछ भी हो, पर यह सत्य है कि एक पीढ़ी के अनुभव, ज्ञान व विचार दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने अति आवश्यक हैं अन्यथा अनेक क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों का परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा। विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ ज्ञान के माध्यम बदलते रहेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्ण जागरुकता के साथ उचित साधन द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान किया जाये।
प्राचीनकाल में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था तो ज्ञान गुरुओं के माध्यम से दिया जाता था। ऋषि-मुनि व परिवार के मुखिया द्वारा तंत्र-मंत्र, जड़ी-बूटियों व अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती थी। किन्तु उन्हें संग्रहित करने का कोई माध्यम नहीं था।
संग्रहण की आवश्यकता महसूस होने पर चित्रों व चिह्नों द्वारा पत्थर पर लिखकर अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने का चलन प्रारम्भ हुआ। सिंधु घाटी की सभ्यता में अनेक ऐसे उदहारण मिलते हैं जहाँ इस प्रकार के चिह्न लिपि रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
लिपि के विकसित होने के साथ ही भोजपत्र व ताड़पत्र पर लिखने की क्रिया आरंभ हुई। लिखने के लिए ताड़ के पत्ते को पहले सुखाकर पानी में भिगोया जाता था, फिर पत्थर से घोटकर मनचाहा आकार दिया जाता था। किसी नुकीली चीज़ से अक्षर खोदकर काले रंग या काजल से पोत दिया जाता था। काला रंग शब्दों के रूप में दिखाई देने लगता था। भोजपत्र का प्रयोग कागज़ की खोज से पहले लिखने के लिए प्रचुर मात्रा में किया जाता था। ‘भोजपत्र’ भोज नामक वृक्ष की छाल है, जो सर्दियों में अपने आप उतरती है। सूखने पर वह कागज़ जैसी हो जाती है। भोजपत्र पर लिखी गयी पांडुलिपियाँ आज भी सुरक्षित हैं।
कागज़ का आविष्कार चीन में ईसा की आरंभिक शताब्दी में हुआ। कई वर्षों के बाद चीन में ही ‘ब्लॉग प्रिंटिंग’ की शुरुआत हुई। लकड़ी के ब्लॉग द्वारा यह काम किया जाता था। छापाखाना और लोहे की प्रैस का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। भाप की शक्ति से शुरू होकर बिजली संचालित प्रैस विकसित हुई। इसके बाद तो इस क्षेत्र में क्रांति सी आ गयी। समाचार पत्रों, पुस्तकों व पत्रिकाओं द्वारा ज्ञान आम व्यक्ति तक पहुँचने लगा।
मधु शर्मा कटिहा |
आधार भले ही कुछ भी हो, पर यह सत्य है कि एक पीढ़ी के अनुभव, ज्ञान व विचार दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने अति आवश्यक हैं अन्यथा अनेक क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों का परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा। विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ ज्ञान के माध्यम बदलते रहेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्ण जागरुकता के साथ उचित साधन द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान किया जाये।
यह रचना मधु शर्मा कटिहा जी द्वारा लिखी गयी है . आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी साइंस में स्नातकोत्तर किया है . आपकी कुछ कहानियाँ व लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
Email----madhukatiha@gmail.com
मधु जी, आपने अच्छी जानकारी संग्रहीत की है... इस विधा में अगला चरण श्रव्य पुस्तक (ऑडियो बुक) है.
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