मुझको तुमने मीत बनाकर पथ पर चलना मुझे सिखाया वरना मैं गिर गिर पड़ता रेंग रेंग कर मैं रो पड़ता ईश्वर तूने मुझको थामा ऐसे जैसे किरणों का रथ पाकर सूरज पृथ्वी पर आता है मुस्काता है नभ पर आकर
ईश्वर के साथ का सफर
(हिन्दी कुंज में सितम्बर 2010 को प्रकाशित मेरी ‘ईश्वर के साथ का सफर’ शीर्षक की लिखी लघुकथा का काव्य रूपान्तर)
मुझको तुमने मीत बनाकर
पथ पर चलना मुझे सिखाया
वरना मैं गिर गिर पड़ता
रेंग रेंग कर मैं रो पड़ता
तूने मुझको थामा ऐसे
जैसे किरणों का रथ पाकर
सूरज पृथ्वी पर आता है
मुस्काता है नभ पर आकर
पर यह नभ तो शून्य जगत है
रोक नहीं है इसके पथ पर
पर मैंने पथ जो तुमसे पाया
सजा चुका था कंकड़ पत्थर
इक पग चलता इक पग गिरता
तुझे देखकर भी रो पड़ता
पर तूने कभी नहीं यह चाहा
मुझे उठाने आगे बढ़ता
तुझे निठ्ठला खड़ा देखकर
मैं ही उठता अपने बल पर
चल पड़ता हूँ कदम बढ़ाये
तुझसे बल हिम्मत सब पाकर
चलता यह क्रम अंत समय तक
गर मैं तुम बस चलते रहते
पर मैं इक बालक नन्हा-सा
गिर पड़ता था कुछ पग चलके
गिरकर रोता देख मुझे पर
तू कभी न कुछ आगे आया
खड़ा रहा तू दूर अडिग-सा
रहा देखता बस मुस्काता
मैं जब उठता दौड़ लगाता
आता तेरे पास तड़पता
तू तब थाम मुझे ले चलता
कुछ न कहता चुप चुप रहता
चलते हम तुम दोनो मिलकर
कदम मिलाकर सैनिक जैसे
पर गिर पड़ता पग दो पग पर
मैं नाजुक पाखी हूँ जैसे
भूपेन्द्र कुमार दवे |
नहीं तुझे पर मैंने देखा
आगे बढ़कर मुझे उठाता
तू हँसता रहता मुझपर ही
मैं ही जैसे तैसे उठता
पर तुझको मेरी चिन्ता थी
आगे इक पत्थर था भारी
पर ठोकर तुझको लगनी थी
तेरे गिरने की थी बारी
तुझको गिरता मैंने देखा
तत्क्षण तुझे उठाने आया
पर मैं नन्हा बालक ही था
तत्क्षण तुझे उठा ना पाया
तू पीड़ा से मचल उठा था
मुझमें पीड़ा जगा रहा था
पर मैं तुझको उठा न पाया
नन्हा मैं बस हाँफ रहा था
पर जब मन में करुणा जागी
मैं भूल गया मैं छोटा था
किया यत्न इक फिर जब मैंने
पाया तू मुझसे हल्का था
हुआ अचंभित तुझे देखकर
कैसे तुमको उठा सका था
कैसे किसके बल पर मैंने
तुझको पीड़ा मुक्त किया था
याद किया तब मैंने बचपन
माँ जब चलना सिखलाती थी
कैसे उठाना गिरे हुए को
माँ करके मुझे सिखाती थी
इसी याद में मैं खोया था
तब तुम मुझसे यूँ बोले थे
थी तेरी वाणी मीठी पर
शब्द अर्थ सब कुछ कड़वे थे
‘पर तब जब जब तुम गिरते थे
माँ दौड़ उठाने आती थी
मैंने तो यह नहीं किया पर
क्यूँ तुमने दया जतायी थी?
तुम भी तो बदला ले लेते
मुझे तड़पता उठने देते
मैं उठता या ना उठ पाता
मेरी फिकर न तुम कुछ करते।’
बड़ा जटिल यह प्रश्न किया था
पर ईश्वर तुम भी यह सोचो
ऐसा होता तो इस जग में
तुममें माँ में फर्क न होता
तू करुणा का सागर तो है
पर ममता में है अपनापन
तू सबका है भेद जानता
माँ में रमता सब जन का मन
गिरकर कैसे खुद उठ जाना
तेरी महिमा जतलाती है
गिरे हुए को कैसे उठाना
माँ की ममता सिखलाती है।
..... भूपेन्द्र कुमार दवे
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
very nice poen everyone like this
जवाब देंहटाएं