जब कोशिश होती है, गुलाबों की, हाथ बढ़ाए गुलाबों में, कुछ आँचल फंसते काँटों में, कुछ तो धीरे से तर जाते हैं, बच जाते हैं फटने से, पर दो तार कहीं छिड़ जाते हैं ।। ऐ मेरे नाजुक मन मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
स्वर्णिम सुबह
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
अंजुरी की खुशियाँ छोड़ सदा,
अंतस में भरकर,
बीते जीवन का क्रंदन,
क्यों भूल गए हो तुम स्पंदन.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
जब कोशिश होती है,
गुलाबों की,
हाथ बढ़ाए गुलाबों में,
कुछ आँचल
फंसते काँटों में,
कुछ तो धीरे से
तर जाते हैं,
बच जाते हैं फटने से, पर
दो तार कहीं छिड़ जाते हैं ।।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
कुछ ज्यादा ही उलझे जाते हैं.
जितना बच जाए, बच जाए,
जो फटे छोड़ना पड़ता है.
मजबूरी में ही हो
पर तब, नया आँचल
तो ओढ़ना पड़ता है।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
मुश्किल कंटकमय राहों में भी
जीवन तो जीना पड़ता है,
सीने में समाए जख्मों पर,
पत्थर तो रखना पड़ता है.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
हों लाख मुसीबत जीवन में,
हाँ, एक मुखौटा जरूरी है,
दुख भरी जिंदगी के आगे,
हँसना तो सदा जरूरी है,
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
आँचल में सारी, दुनियाँ को,
तो छोड़ नहीं हम सकते हैं,
आगे बढ़िए... बढ़ते रहिए,
स्वागत करने को रस्ते हैं।।
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
हर काली अँधियारी रात संग,
एक स्वर्णिम सुबह भी आती है,
अँधियारे का डर भूल छोड़,
सारे जग को महकाती है.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
अंजुरी की खुशियाँ छोड़ सदा,
अंतस में भरकर,
बीते जीवन का क्रंदन,
क्यों भूल गए हो तुम स्पंदन.
ऐ मेरे नाजुक मन
मैं कैसे तुमको समझाऊँ।।
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विधाता
क्यों बदनाम करो तुम उसको,
उसने पूरी दुनियां रच दी है.
रंगराज अयंगर |
हम सबको जीवनदान दिया
हाड़ माँस से भर - भर कर.
हमने तो उनको मढ़ ही दिया
जैसा चाहा गढ़ भी दिया,
उसने तो शिकायत की ही नहीं
इस पर तो हिदायत दी ही नहीं।
हमने तो उनको
पत्थर में भी गढ़ कर रक्खा..
उसने तो केवल रक्खा है पत्थर
कुछ इंसानों के सीने में
दिल की जगह,
इंसानों को नहीं गढ़ा ना
पत्थर में।
सीने में पत्थर होने से बस
भावनाएं - भावुकता
कम ही होती हैं ना,
मर तो नहीं जाती।।
मैने देखा है
मैंने जाना है,
पत्थर दिलों को भी
पिघलते हुए
पाषाणों से झरने झरते हुए
चट्टानों से फव्वारे फूटते हुए।।
क्यों बदनाम करो तुम उसको,
उसने तो दुनियां रच दी है.
हम सबको जीवनदान दिया
हाड़ माँस से भर भर कर.
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खुशी
एक लड़की मुझे कविता भेजती है,
क्या करूँ उसका मगर,
होती है आधी,
साथ उसके भी निवेदन भेजती है,
कर दो उस कविता को पूरी,
जो है आधी.
भावनाओं से बँधा हूँ,
पूरी तो करना है उसको,
वक्त की कोई कमी हो,
यूँ नहीं डरना है मुझको.
शब्द देवी ने दिया भंडार भरकर,
कर सका सेवा मैं रचनाकार बनकर,
जब बना जैसा बना, दी है सेवा,
फल उसी का जो मुझे मिलती है मेवा,
वक्त था वह,
लोग माँगे खून मुझसे,
हैं बहुत बच्चे
जो माँगे 'मून' मुझसे,
हर किसी को मनमुताबिक,
चाहकर भी दे न पाया,
जो बना जब भी बना,
जैसा बना मैं दे ही आया.
लोग खुश होते हैं
कोई चीज पाकर
होती खुशी मुझको मगर
हर चीज देकर,
देने वाले की खुशी
पाने वाले की खुशी
से भी बड़ी है,
इसमें सभी खुश हैं.
जो पाता है वह भी खुश
और जो देता है वह भी खुश ।
चाहता तो कुछ नहीं,
वापस जहाँ से,
क्या लिए जाना किसी को,
बोलो यहाँ से,
हाथ खाली आए हैं तो
जाएँगे भी हाथ खाली,
पर न जाने इस जगत में
क्यों करें हम फिर दलाली।
यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर.8462021340,वेंकटापुरम,सिकंदराबाद,तेलंगाना-500015 Laxmirangam@gmail.com
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