बांसी माघ मेला

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बांसी कस्बे में लगने वाला माघ मेला काफी पुराना है। इसकी शुरुआत 1954 में राजेंद्रनाथ त्रिपाठी ने की थी। राजेंद्रनाथ त्रिपाठी स्काउट से जुड़े हुए थे। उसी दौरान वह प्रांगण माघ मेला गए थे। जहां से उन्हें बांसी में भी मेला लगाने की प्रेरणा मिली।

64वीं बांसी माघ मेला एव प्रर्दशनी
(25 जनवरी से 28 फरवरी 2017)

इतिहास एवं विस्तार :- बांसी भारत के मानचित्र पर 27040‘ उत्तरी अक्षांस तथा 820 56‘ पश्चिमी देशान्तर पर स्थित है। यह राप्ती नदी के किनारे बसा हुआ है जिसके इस पार मेंहदावल व डुमरियागंज तथा उस पार विस्कोहर , चिल्हिया तथा उस्का बाजार है। नदी के तट पर ही राजा साहब का राजमहल है और प्राचीन समय में यहां नरकट के जंगल हुआ करते थे तथा नांव द्वारा पार किया जाता था। बरसात में यह नदी अपने पूरे आकार में
बांसी माघ मेला
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फैल जाती है तथा अन्य दिनों में सूखकर संकरी हो जाती है। कहा जाता है कि बांसी को राजा बंसदेव ने बसाया था। परन्तु इसे परम्परानुसार सही नहीं माना जाता है। राजपूतों का बस्ती जिले या वर्तमान मण्डल में आगमन की पहली सूचना 13वीं शताव्दी का मध्यकाल माना जाता है। प्रथम नवागत राजपूत सरनत थे। जिसे मूलतः सूर्यवंशी कहा गया है । ये सर्व प्रथम गोरखपुर एवं पूर्वी बस्ती में 1275 ई. के लगभग में आये थे। इसके बाद वे मुख्यतः मगहर में बसे। इस मंडल का प्रथम राजपूत वंश श्रीनेत या सरनत था। इसके प्रधान चन्द्रसेन ने गोरखपुर तथा पूर्वी बस्ती से डोमकटारों को निकाला था। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद उनका पुत्र जयसिंह  उत्तराधिकारी बना। उनका राप्ती नदी के दक्षिण बांसी में राज्य था। सोलंकी नामक एक और राजपूत बाद में आये । वे परगना बांसी पश्चिम में अपनी राजधानी बनाये । उन्हें कथेला राजवंश कहा जाने लगा। वे श्रीनेत के समकालीन थे। संयोग से वे विजयी हो गये थे। इनका राज्य बांसी में सम्मलित हो गया था। उनके उत्तराधिकारी को बाद में कथेलवाड़ के नाम से जाना जाने लगा। वे रसूलपुर एवं गोण्डा के पड़ोसी क्षेत्र में रहने लगे थे।
मुगलकाल :- अवध के नबाबों का अस्तित्व बढ़ने पर तथा साम्राज्य की कार्यवाही के दौरान मगहर के श्रीनेत राजा को अपने देश से हटाकर बांसी उनके आवास में वापस भेज दिया गया था। यहां पर सरनत क्षत्रियों ने 1570 ई. में अपनी राजधानी स्थापित किया था, जब मुसलमानों के द्वारा उन्हें मगहर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था। शहर के दक्षिण पूर्व किनारे उनका एक किला बना हुआ था जो ब्राहमण के शाप से 1750 ई.में खण्डहर में परिवर्तित हो गया है। 1768 ई. में यहां के राजा ने तेगधर का एक मंदिर का निर्माण कराया था। यह शहर अनाज का एक प्रमुख व्यवसायिक केन्द्र था। अफजल खां अकबर के मित्र अबुल फजल का पुत्र था। असका असली नाम अब्दुल रहतान था। जहांगीर ने इसे अफजल खां की उपाधि दे रखी थी। पहले इसे पटना का गवर्नर बनाया गया था। 1610 ई. में इसे पटना के साथ साथ गोरखपुर को भी दे दिया गया था। उसका शासन हिन्दुओं को पसन्द नहीं आया तथा एक ही समय में मुगल सेना की छावनी गोरखपुर तथा मगहर पर बसन्त सिंह तथा बांसी के राजा द्वारा आक्रमण कर दिया गया। मुगल सेनाओं को दोनों जगहो पर बाहर फेकने में देशी राजाओं के आक्रमण सफल रहे। इतना ही नहीं स्थानीय राजाओं ने कर देना भी बन्द कर दिया था। एक तरह से इस समय मुसलमान इस क्षेत्र से भगा दिये गये थे। एसी स्थिति लगभग आधी शताब्दी तक बनी रही।1680 ई. में औरंगजेब ने एक काजी खलील उर रहमान को चकलेदार ( कर वसूलनेवाला ) के रूप में गोरखपुर भेजा था, जो स्थानीय राजाओं को अपने अधीन लेते हुए उनसे  पुनः नियमित करों का भुगतान करवाने लगा था। उसने कर वसूलने के लिए अयोध्या से प्रस्थान किया था। इस यात्रा के दौरान अमोढ़ा और नगर के राजा जो हाल ही में सत्तासीन हुए थे , ने शीघ्रता से अपना हिस्सा जमा करा दिया और युद्ध की स्थिति से बचा लिया था। गवर्नर ने तब मगहर के लिए प्रस्थान किया। वहां के सौनिक किले को पुनः शाही सेना के अधीन मिलाया। मगहर के राजा को कार्यमुक्त कर राप्ती के तट पर स्थित बांसी के किले में वापस जाने को बाध्य कर दिया। 
ब्रिटिशकाल :- 1801 ई. में एक संधि के अनुसार वर्तमान बस्ती मण्डल का सारा क्षेत्र अवध (मुख्यालय लखनऊ) से निकालकर व्रिटिश सरकार के नार्थ वेस्टर्न प्राविंस (मुख्यालय इलाहाबाद) के अधीन कर दिया गया। एक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गोरखपुर जिले के 3 भाग कर दिये गये- गोरखपुर , आजमगढ़ तथा बस्ती। इसी समय गोरखनपुर की ये तीन तहसीलें भी घोषित की गई। 1815 व 1816 ई. में जिले के उत्तरी क्षेत्र बांसी तथा मगहर में सियारमार एक खानाबदोस जाति के लोगों ने लूटपाट करना शुरू कर दिया था। इन्हें स्थानीय जमीदारों का समर्थन भी मिला हुआ था वे पुलिस वालों को मारते थे तथा सरकारी खजाना लूट लेते थे। बांसी में सात पुलिसवालों को मारकर 6 को घायल कर उन्हाने कानून व्यवस्था को चुनौती दे रखी थी। परिणाम यह हुआ कि सात पुलिस सिपाही अपना जीवन गवां बैठे तथा छः सिपाही घायल हो गये थे। स्वतंत्रता की लड़ाई में बांसी से रू. 4,626, जप्त कर लिया गया था। बस्ती को 6 मई 1865 को जनपद घोषित किया गया। इसी समय बस्ती , कैप्टनगंज ,खलीलाबाद, डुमरियागंज तथा बांसी नाम से 5 तहसीलें भी घोषित की गई। बांसी तहसील का नेपाल से लगा भाग अलग करके नौगढ़ तहसील को बादमें 1955 में बनाया गया था। इस समय इसमें वर्डपुर, लौटन, जोगिया,उसका वाजार तथा नौगढ़ विकास खण्ड को समलित किया गया है।
नवनिर्मित जिला सिद्धार्थ नगर का भाग :- 29.12.1989 को बस्ती जिले के उत्तरी भाग को सिद्धार्थ नगर नामक पृथक जिला घोषित किया गया। इसका मुख्यालय नौगढ़ बनाया गया। आगे चलकर 1997 में इस तहसील के पश्चिमी भाग शोहरतगढ़ तथा बढ़नी विकास खण्डों को मिलाकर शोहरतगढ़ नामक नई तहसील गठित हुई। डुमरियागंज का उत्तरी भाग इटवा तथा खुनियांव विकास खण्डों को मिला व अलग कर 1990 में पृथक इटवा तहसील बना दी गई थी। डुमरियागंज में डुमरियागंज व भनवापुर विकास खण्डों को मिलाकर डुमरियागंज तहसील घोषित की गयीं इसी प्रकार बांसी तहसील में बांसी, मिठवल तथा खेसरहा विकासखण्ड बचे। इस सिद्धार्थनगर जिले में 999 गांव पंचायतें तथा 14 विकास खण्ड तथा 16 थान्हें बना दिये गये। वर्तमान समय में यह जिला 2752 वर्ग किमी.(1006.3 वर्ग मील) क्षेत्र में फैलकर 25,53,526 जनसंख्या रखता है। बांसी तहसील के पूर्व में गोरखपुर,दक्षिण में रुधैली, पश्चिम में इटवा व डुमरियागंज तथा उत्तर में नौगढ़ तहसीलें हैं। इसका अधिकतर भाग बूढ़ी राप्ती तथा बरार नदियों की मिट्टी से बना है। यहां तहसील चिकित्सालय, मुसफ न्यायालय तथा डिग्रीकालेज आदि बने हैं। राजा राम सिंह ने बांसी को अपनी राजधानी बनाया लेकिन श्रीनेत राजपूतो का गुरिल्ला युद्ध जारी रहा. वे समय-समय पर गुरिल्ला युद्ध कर खलीलुर्रहमान की सेना के सैनिकों को मार डालते थे, हथियार आदि लूट लेते थे. खलीलुर्रहमान की जान को भी खतरा था इसलिए उसने अपने किले से बाहर निकलना बंद कर दिया. उसे नौ किलोमीटर दूर मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना होता था इसलिए उसने इतनी लम्बी सुरंग बनवाई. यहां राप्ती नदी के दाहिने किनारे पर एक विशाल ईंटों का किला है। यह एक ऊंचे खेड़े पर स्थित है। शहर के दक्षिण पूर्वी किनारे पर एक हिन्दू मन्दिर एवं एक मस्जिद है जो बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है। ये सभी व्यक्तिगत मिल्कियत में है। 1962-63 में पुराविदों को यहां बड़ी मात्रा में मिट्टी के पात्र, चिनह मूर्तियां मिली हैं। पुरातात्विक प्रमाणों में लाल मृदभाण्ड परम्परा के पात्रावशेष ख् अंगूठी के छल्ले मिले हैं। इन्हें पूर्वएतिहासिक काल का बताया गया है। (भारती 8 प्रथम पृ. 118-20/आईएआर 1962-63 पृ. 33)
नगर पालिका परिषद बांसी द्वारा संचालित बांसी माघ मेला एव प्रर्दशनी :- बांसी कस्बे में लगने वाला माघ मेला काफी पुराना है। इसकी शुरुआत 1954 में राजेंद्रनाथ त्रिपाठी ने की थी। राजेंद्रनाथ त्रिपाठी स्काउट से जुड़े हुए थे। उसी दौरान वह प्रांगण माघ मेला गए थे। जहां से उन्हें बांसी में भी मेला लगाने की प्रेरणा मिली। बांसी आने के बाद वह मेला लगाने की उधेड़बुन में लग गए। अपनी इस इच्छा को राजेंद्र ने कला अध्यापक मोतीलाल आर्य, ग्रामप्रधान रामशंकर, पूर्व प्रधान महादेव प्रसाद, बच्चा गनेश प्रसाद, हजारी प्रसाद, फूलचंद्र इंस्पेक्टर समेत कस्बे के प्रतिष्ठित लोगों से व्यक्त किया। राजेंद्र मेला लगाने के लिए लखनऊ, सीतापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, बुलंदशहर, इलाहाबाद, बनारस सहित तमाम प्रमुख नगरों का भ्रमण कर मोहम्मद अली टूंरिग टाकीज, अली हुसैन जादूगर, रमजान जमपुरी नाटक, गुलाब बाई, शांति बाई, राधा रानी थियेटर, श्यामलाल कंबल वाले, कालीचरन, लाला हरिनाथ, शाहजहांपुर वाले और बुलंदशहर के मशहूर खजला व्यवसायी से मिलकर उन्हें बांसी माघ मेला आने के लिए आमंत्रित किया। मेले की शुरुआत 1954 में हुई। पहले यह मेला तीन दिन, फिर एक सप्ताह उसके बाद 15 दिन तक चलने लगा। बाद में यह अवधि बढ़कर एक माह हो गई। 
स्व. पंडित राजेन्द्र नाथ त्रिपाठी द्धारा वर्ष 1954 में संस्थापित व आदर्श नगर पालिका परिषद बांसी द्धारा संचालित ’बांसी माघ मेला एव प्रर्दशनी’ की सारी तैयारिया शुरू हो चुकी हैं, इसका शुभारम्भ 25 जनवरी को नगर पालिका अध्यक्ष चमनआरा राइनी करेंगी। इस वर्ष यह प्राचीन माघ मेला अपनी 64 वीं वर्षगांठ मनायेगा। बांसी के प्राचीन राप्ती नदी के तट पर प्रति वर्ष मौनी अमावस्या के पर्व पर लगने वाला यह ‘माघ मेला एवं प्रदर्शनी’ विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ लगभग एक माह तक चलता है। जहां सुरक्षा की दृष्टिकोण से थाना और मेला नियंत्रण कक्ष की स्थापना की जाती है। इस वर्ष यह माघ मेला 25 जनवरी से प्रारम्भ होकर 28 फरवरी तक चलेगा,लेकिन आवश्यता पडने पर इसकी अवधि बढाई भी जा सकती हैं। मेले के यही ढंग से संचालन के लिए न केवल नगर पालिका के कर्मचारियों बल्कि सभासदों को भी अलग अलग जिम्मेदारियां बांट दी गयी हैं। इस वर्ष बरकत अली राइनी तथा करीम राइनी को मेला प्रभारी बनाया गया है। तथा मेला सम्बन्धी लिपिकीय कार्य की जिम्मेदारी रविशंकर गुप्त को सौंपी गयी है। मेले में दूकानों का आवंटन,तथा मेला मैदान व सडकों की सफाई का काम तेजी से कराया जा रहा है। माघ मेला के पुराने प्रवेश द्धार को ध्वस्त कराकर नये तथा विशाल प्रवेश द्धार का निर्माण कार्य तेज करा दिया गया है। जिसे हर हाल में मेला शुभारम्भ तिथि तक पूर्ण कर लिया जाना है। मेले मे शो मैनों का आगमन भी होने लगा है। अव तक मेले में,कई झूले तथा खजले की दूकानें आ चुकी है। मौनी अमावस्या के पर्व पर राप्ती नदी में पवित्र स्नान को देखते हुए स्नानार्थियों तथा साधु संतो के स्नान की विशेष व्यवस्था की जा रही है। माघ मेला में अच्छे किस्म के मनोरंजन के शोमैनो को आमंत्रित करने के लिए नगर पालिका से दो कर्मचारियों को बाहर भेज दिया गया है। तथा कुछ शोमैनों से अलग से सम्पर्क साधा जा रहा है।नगर पालिका अध्यक्ष चमनआरा राइनी ने कहा कि मेला अवधि में मेलार्थियों की सुविधा का पूरा ध्यान रखा जायेगा। बिजली की आपूर्ति मेला अवधि में शाम 5 बजे से सुबह 7 बजे तक करने के लिए पावर कारपोरेशन को पत्र भेजा जा रहा है। उन्होने बताया कि चुनाव आचार संहिता प्रभावी हो जाने के कारण इस वर्ष मेले का उद्घाटन किसी अतिथि से न कराकर मेले का शुभारम्भ वे तथा नगर पालिका वोर्ड स्वयं करेगी। मेले की भव्यता को कायम रखने का पूरा प्रयास किया गया है। मेले में सभी वर्ग के मनोरंजन के संसाधन हैं। मेले में जीवनोपयोगी वस्तुओं की दुकानें सजेंगी।

डा. राधेश्याम द्विवेदी , पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी, 
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा 282001 मो. 9412300183

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बांसी माघ मेला
बांसी कस्बे में लगने वाला माघ मेला काफी पुराना है। इसकी शुरुआत 1954 में राजेंद्रनाथ त्रिपाठी ने की थी। राजेंद्रनाथ त्रिपाठी स्काउट से जुड़े हुए थे। उसी दौरान वह प्रांगण माघ मेला गए थे। जहां से उन्हें बांसी में भी मेला लगाने की प्रेरणा मिली।
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