आधुनिकता

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आधुनिकता के चलन में आज हमने हास्य, चलचित्र एवं जुम्लों के स्वरूप को ही बदल ड़ाला. ये कैसा हास्य है, जिसमें कभी समलैंगिकता को आधार बनाकर तो कभी अश्लीलता को आधार बनाकर तो कभी स्त्रियों की आबरू को लोगों के सामने बिखेरकर तालियाँ बटोरी जाती हैं...? क्या इसमें चैनलों, कलाकारों, निर्णायक मण्ड़लियों और दर्शकों का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं बनता ? आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ गई है कि कलाकार अपनी प्रतिभा को अश्लीलता के तपती ज्वाला में झोंक रहे हैं ? आज युवा पीढ़ी इतनी अत्याधुनिक बन गई है कि जो माँ-बाप बच्चे को पाल पोषकर बड़ा करते हैं, वही बच्चे बड़े होकर एकाकी जीवन बिताते हुए माँ-बाप को 'ओल्ड़ हाउस होम' में छोड़ आते हैं.

ओछी आधुनिकता मानवीय मूल्यों की विध्वंसक है

'अधुना' यानी यूँ कहें कि इस समय जो कुछ है, वह आधुनिक है. कुछ विचारकों की माने तो आधुनिक शब्द की
Modernity
व्यत्पत्ति पॉचवी शताब्दी के उत्तरार्ध में लैटिन भाषा के 'माँड़्रनस' ( Modernus ) शब्द से हुई, जिसका प्रयोग औपचारिक रूप से  तत्कालीन समय में इसाई और गैर-इसाई रोमन अतीत से अलग करने हेतु किया गया था. उसके बाद इसका प्रयोग प्राचीन की जगह वर्तमान को स्थापित करने हेतु किया गया, जो यूरोप में उस समय उत्पन्न हो रहा था, जब नए युग की चेतना प्राचीन के साथ नए सम्बंध के माध्यम से नया आकार ग्रहण कर रही थी. अधिकतर विद्वान इस मान्यता पर एकमत दिखायी देते है कि आधुनिकता की शुरूआत यूरोप में हुई. इसलिए अक्सर आधुनिकता को 'पश्चिमीकरण का पर्याय' माना जाता है. लोगो को सचेत करते हुए अमृतराय जी लिखते है कि "आधुनिकता के लिए हरदम यूरोप और अमेरिका की तरफ टकटकी लगाए रहना बेतुकी बात है, आधुनिकता किसी देश की बपौती नही है".

अवधारणा :

आमतौर पर हम लोग आधुनिकता का सम्बंध आधुनिक युग से समझते हैं, जबकि यह एक विशिष्ट अवधारणा की निर्णायक है. वास्तव में आधुनिकता हमें अज्ञानता एवं तर्कहीनता से मुक्त कराकर एक प्रगतिशील बौद्धिक मंच प्रदान करती है. इतना ही नहीं, यह हमें एक खुली स्वतंत्रता प्रदान करती है, जिसके द्वारा हम अपने बहुआयामी बौद्धिक विचार आसानी से दुनियाँ के सामने रखकर प्रयोगिक रूप से कुछ सकारात्मक बदलाव ला सकते है. परन्तु आज हमारे सामने अहम सवाल यह है कि क्या हम सब आधुनिकता को सही मायनें में आत्मसात् कर रहें हैं ...?? क्या यह सच नही कि ओछी आधुनिकता मानवीय मूल्यों की विध्वंसक बन गई है...?? आज आधुनिकता महज दिखावा, अश्लीलता, फूहड़पन और अज्ञानता में सिमटती नज़र आ रही है. हम लोग अपने विवेक का प्रयोग किए बिना कुसंस्कृति एवं संस्कार को अपनाने की होड़ में जद्दोजहद कर रहे है. जोकि यह हमारे वर्तमान एवं भावी समाज के लिए अत्यंत घातक है.

कुछ बौद्धिक चिंतन :

1- महान विचारक एंथोनी गिंड़ेस के अनुसार - आधुनिकता का सम्बंध विश्व के प्रति एक खास दृष्टिकोण से है, मुख्यतः मानव हस्तक्षेप द्वारा ऐसे विश्व का विचार रखना, जो सकारात्मक परिवर्तन के लिए तैयार हो.
2- विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक मार्क्स के अनुसार - Modernity is the emergence of capitalism and the revolutionary bourgeoisie, which led to an unprecedented expansion of productive forces and to the creation of the world market.
3- मार्क्स बेबर - Modernity is closely associated with the processes of rationalization and disenchantment of the world.
4- योग गुरू बाबा रामदेव के अनुसार - आधुनिकता के साथ साथ अध्यात्मिकता के समग्र समन्वय से ही सार्थक बदलाव सम्भव है.
5- वर्तमान युवा लेखक एवं समाजिक चिंतक शिवम तिवारी के अनुसार-  अध्यात्मिकता ही आधुनिकता की मूल है.

विशेष गौरतलब है कि वो भी एक दौर था, जब अंग्रेज हमारी भारतीय संस्कृति और मूलभूत सोच को बदलने के लिए ओछी आधुनिकता का लुभावना देकर अंग्रेजी और कुसंस्कृतियों का बीज बो रहे थे, तो आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने लोगों को 'वेदों की ओर लौटो' का नारा देकर सच्ची आधुनिकता दिखाने का श्रेष्ठ कार्य किया था. राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी जी ने भी स्वदेशी पद्धति द्वारा आधुनिकता अपनाने पर बल दिया था.


वर्तमान स्थिति :

बिड़म्बना यह है कि आज का मानव आधुनिकता को महज स्वच्छंदता ही समझ बैठा है. जरा कल्पना कीजिए कि भौतिक स्वच्छंदता हमारे मूलभूत विचार, रहन-सहन और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को उस हासिए पर ला खड़ा किया है, जिसका परिणाम हमारे सामने है और खाँमियाज़ा भी भुगतना पड़ रहा है. मानसिक कुवृत्तियों के शिकार हुए स्वच्छंदवादी कहलाने वाले लोग एड्स जैसी भयानक बीमारी से जूझ रहे हैं, जिसका आकड़ा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. नतीजन भारतीय परम्परा एवं संस्कृति बिल्कुल लुप्त होती चली जा रही है और लोग पारस्परिक सद्भाव व मूल्यपरक सोच त्यागकर खचाखच भरे शहरों में एकाकी जीवन जीनें में गर्व महसूस कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि इस ओछी आधुनिकता ने हमारे चौबीस घड़ी के समय को निगल लिया है, जिससे पूँछो सब यही कहते मिलेंगे - समय कम है. नए युगलों ने तो हद् ही पार कर दी है, इनको तो आधुनिकता का पर्याय महज अश्लीलता और फूहड़ता ही नज़र आती है. प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीड़िया भी धनार्जन हेतु अधिकतर अश्लील, फूहड़ और द्विअर्थी संवादों को बढ़ावा दे रहे हैं. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह सब मानवीय दृष्टिकोण से हमारे भविष्य को गर्त में ढ़केल रहे हैं...?? यही वजह है कि दिन प्रतिदिन सामूहिक दुष्कर्म, महिला उत्पीड़न जैसी घटनाएँ आम हो चली हैं. जरा जवाब दीजिए कि बार बार दिखाए जाने वाले इस फूहड़पन से हम सब अपने नवनिहालों के अन्तर्मन को कब तक बचा पाएगें ...??


जरा आप ही गुनिए :

आज यह फैसला कौन करेगा कि वास्तविक प्रगति क्या है ? क्योंकि आज की अंधी आधुनिकता ने तो वास्तविक आधुनिकता की मूलभूत परिभाषा ही बदल दी. आज नग्न बदन दिखाना, माँस- मदिरा का सेवन करना, ड़िस्को-बार में मखौल उड़ाना, मानवता भूलकर कुकर्म करना, एकाकी जीवन बिताना, यह सब आधुनिकता का प्रतीक बन चला है. जरा बताइए कि क्या बिना अध्यात्मिकता एवं विवेकशीलता के वास्तविक आधुनिक विकास सम्भव है ..? शायद कभी नहीं.
प्रो० राधाकृष्णन ने बिल्कुल ठीक कहा है " नया संसार आवश्यकताओं, आवेगों, महत्वाकांक्षाओं आदि क्रिया कलापों का एक ऐसी गड़बड़झाला बनकर नहीं रह सकता, जिस पर आत्मा का कोई निर्देशन या नियंत्रण न हो. अन्धविस्वास और उन्नतिमूलक विस्वासों के कारण जो रिक्तता उत्पन्न हुई है, उसको अध्यात्मिकता से भर देना होगा". जरा सोचिए, हमारी सनातन संस्कृति कितनी व्यापक है, जो बुद्धि एवं हृदय को जोड़ती है, काम से मोक्ष को जोड़ती है, विज्ञान, अध्यात्म एवं मानववाद को लेकर आगे बढ़ती है. आज अधिकतर लोग रोटी, कपड़ा और मकान के जंजाल में उलझ गए है. यह ओछी आधुनिकता की ही देन है कि उनके पास जीवन का उद्देश्य ढ़ूढ़ने का वक्त नहीं है. इसका जवाब विज्ञान और भौतिकवाद तो कभी दे ही नही सकती. जब तक हम अध्यात्मिक दृष्टिकोण नही अपनाते तब तक परिपूर्णता की चाहत पूरी नहीं हो सकती. अध्यात्मिकता में ही सम्पूर्ण जीव में एक ईश्वर, मानवीय एकता एवं समता का भाव दिखता है और साथ ही साथ सम्पूर्ण आधुनिक विरोधाभाष की पूर्णाहुति भी हो जाती है.

उत्तरदायित्व कौन :

आधुनिकता के चलन में आज हमने हास्य, चलचित्र एवं जुम्लों के स्वरूप को ही बदल ड़ाला. ये कैसा हास्य है, जिसमें कभी समलैंगिकता को आधार बनाकर तो कभी अश्लीलता को आधार बनाकर तो कभी स्त्रियों की
शालिनी तिवारी
शालिनी तिवारी
आबरू को लोगों के सामने बिखेरकर तालियाँ बटोरी जाती हैं...? क्या इसमें चैनलों, कलाकारों, निर्णायक मण्ड़लियों और दर्शकों का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं बनता ? आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ गई है कि कलाकार अपनी प्रतिभा को अश्लीलता के तपती ज्वाला में झोंक रहे हैं ? आज युवा पीढ़ी इतनी अत्याधुनिक बन गई है कि जो माँ-बाप बच्चे को पाल पोषकर बड़ा करते हैं, वही बच्चे बड़े होकर एकाकी जीवन बिताते हुए माँ-बाप को 'ओल्ड़ हाउस होम' में छोड़ आते हैं. आज आधुनिक समाज के पास समय और ऊर्जा का अभाव दिखता है. वह अपनी आधारभूत समस्याओं को सुलझानें में ही पूर्णतः उलझ चुका है. आधुनिक समाज का जीवन दर्शन उस गगनचुम्बी इमारत के समान है, जिसके सौन्दर्य दिखने और भार सहने योग्य बनाने के लिए पर्याप्त परिश्रम किया जाता है परन्तु वह चन्द वर्षों में ही आकर्षणहीन हो जाती है, जबकि मध्य युगीन स्मारको का निर्माण कई वर्षों में पूरा होता था परन्तु उनका आकर्षण आज भी जस का तस बरकरार है.

दूरद्रष्टा बनिए और सम्भल जाइए : 

यकीनन मै यह कहना चाहती हूँ कि यदि हम सब आधुनिकता के सही मायने समझकर स्वयं और नवनिहालों के अन्तर्मन को नहीं बदले तो हमारा भविष्य जौहरी के उस स्वर्ण के पानी चढ़े आभूषण की तरह होगा, जो दूर से तो अत्यंत चमकीला नज़र आता है परन्तु पास आने पर भ्रम दूर हो जाता है. अर्थात् हमें भले ही लग रहा हो कि आधुनिकता हमारे भविष्य को सवाँर कर हमें शीर्ष पर पहुँचा देगी परन्तु यह तो वक्त बताएगा कि उस शीर्ष पर हम कितनी देर टिक पाएगें, गिरने में जरा भी वक्त नहीं लगेगा और फिर हम जीवन में किसी काम के काबिल नहीं रह जाएगें. हम सबको आधुनिकता विवेक की तराजू से तोलकर ही अपनानी चाहिए ताकि हम उसकी वास्तविकता से पहले ही रूबरू हो सके. हमे खोखली आधुनिकता छोड़कर बौद्धिक रूप से अग्रसित होने की आवश्यकता है, ताकि हम सब मिलकर राष्ट्र के वैभव को शिखर पर पहुँचा सकें और सही मायनें में स्वर्णिम युग के सपने को साकार कर सकें.

रचनाकार परिचय -अन्तू, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश की निवासिनी शालिनी तिवारी स्वतंत्र लेखिका हैं । पानी, प्रकृति एवं समसामयिक मसलों पर स्वतंत्र लेखन के साथ साथ वर्षो से मूल्यपरक शिक्षा हेतु विशेष अभियान का संचालन भी करती है । लेखिका द्वारा समाज के अन्तिम जन के बेहतरीकरण एवं जन जागरूकता के लिए हर सम्भव प्रयास सतत् जारी है ।

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आधुनिकता
आधुनिकता के चलन में आज हमने हास्य, चलचित्र एवं जुम्लों के स्वरूप को ही बदल ड़ाला. ये कैसा हास्य है, जिसमें कभी समलैंगिकता को आधार बनाकर तो कभी अश्लीलता को आधार बनाकर तो कभी स्त्रियों की आबरू को लोगों के सामने बिखेरकर तालियाँ बटोरी जाती हैं...? क्या इसमें चैनलों, कलाकारों, निर्णायक मण्ड़लियों और दर्शकों का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं बनता ? आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ गई है कि कलाकार अपनी प्रतिभा को अश्लीलता के तपती ज्वाला में झोंक रहे हैं ? आज युवा पीढ़ी इतनी अत्याधुनिक बन गई है कि जो माँ-बाप बच्चे को पाल पोषकर बड़ा करते हैं, वही बच्चे बड़े होकर एकाकी जीवन बिताते हुए माँ-बाप को 'ओल्ड़ हाउस होम' में छोड़ आते हैं.
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