गोवा में गांवों में लोग जल्दी अपने कामों से फुरसत होकर रात को अपने घरों में ही रहते हैं। बाहर सड़कों पर सात बजे के बाद बमुश्किल इक्का दुक्का लोग ही मिलते हैं। रात को आठ बजे तक बाजार भी बंद होने शुरु होने लगते हैं।
गोवा भी ग्रामीण संस्कृतिवाला प्रदेश है
ग्रामीण गोवा |
भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है और इसकी ग्रामीण संस्कृति अपनेआप में बेहद अनूठी है। भारत का एक बहुत बड़ा भाग आज भी गाँवों में निवास करता है, यानि असली भारत गांवों में बसता है। गाँधीजी ने एक बार कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है। भारत के प्रायः सभी राज्यों की ग्रामीण संस्कृतियों में बहुत अधिक साम्यता है। फिर चाहे वह पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति से प्रभावित राज्य गोवा ही क्यों न हो। प्रायः गोवा प्रदेश का नाम सुनते ही लोगों के मन में पश्चिमी पहनावे पहने, पश्चिमी धुनों पर नृत्य करते, पीते पिलाते हमेशा पश्चिमी फैशन में रमे लोग दिखने लगते हैं। यह सच है कि गोवा में जिस माहौल को लोगों ने सुना व देखा है, वो यहां मिलता है, लेकिन यह भी उतना बड़ा सच है कि यह माहौल सिर्फ और सिर्फ पर्यटकों तक ही सीमित है। जो लोग गोवा में स्थायी रुप से रह रहे हैं, उनका दूर दूर तक ऐसी किसी पश्चिमी संस्कृति से कोई नाता नहीं दिखता। गोवा के मूलनिवासी पहनावे से लेकर रहन सहन तक भारतीय मर्यादाओं का उतना ही अनुपालन करते हैं, जितना कि अन्य प्रदेशों के लोग। विदेशी सैलानियों और अपने ही देश के विभिन्न प्रदेशों से आए पर्यटकों के क्षणिक पश्चिमी पहनावे के तुष्टीकरण ने गोवा को पश्चिमी बना दिया है।
वास्तव में सुरम्य सागरतट पर बसे गोवा की अपनी अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता व अनूठी ग्रामीण संस्कृति है। सन् 1542 में यहाँ सेंट फ्रांसिस जेवियर का आगमन हुआ था। उन्होंने यहाँ रहकर ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अतः गोवा की लगभग 28 प्रतिशत् जनसंख्या ईसाई है। गोवा लगभग 450 वर्ष तक पुर्तगालियों के अधीन रहा, जो 19 दिसम्बर 1961 को स्वतंत्र हुआ। इस कारण आज भी यहाँ के रहन-सहन, भाषा व खानपान पर पश्चिमी व पुर्तगाली संस्कृति का पूरा प्रभाव दिखाई देता है। लेकिन फिर भी यहां के ग्रामीण जनजीवन की संस्कृति मिली-जुली है। गोवा की ग्रामीण संस्कृति में भी भारतीय गांवों की वही झलक दिखाई देती है, जो अन्य भारतीय गांवों में मिलती है। गोवा की ग्रामीण क्षेत्र की जनसंख्या 6,75,129 है। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी की एक कविता की निम्नलिखित दो पंक्तियों में सम्पूर्ण भारत की ग्रामीणता का सारांश समाया हुआ है—
अहा ! ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका जी चाहे।
थोड़े में निर्वाह यहां है, ऐसी सुविधा और कहां है?
गोवा के ग्राम्य जीवन में भी कोंकण का खूबसूरत हरा-भरा क्षेत्र, लबालब भरी नदियां और फलों से लदे वृक्ष. सड़क-मार्ग पर दोनों ओर आम, इमली और नीम जैसे बड़े वृक्ष, दूर-दूर तक फैले हुए खेत और उन पर लहलहाती धान की हरी–भरी फसलें और नारियल के बगीचे, केले के खेत, फूलों के बाग नजर आते हैं। सभी ग्रामीण घरों की बनावटों में पुर्तगाली स्थापत्य-शैली के दर्शन होते है। हर सुबह अनेक प्रकार के पक्षियों का संगीत पूरे ग्रामीण परिवेश में गूंज जाता है। सादा जीवन व्यतीत करते भोले भाले ग्रामीणजन और पूरे के पूरे गांव का मिल-जुल कर एक परिवार की भाँति रहना तथा एक-दूसरे को यथासंभव सहयोग करने हेतु सदैव तत्पर रहना गोवा की ग्रामीण संस्कृति की सामाजिक विशेषताएँ है। गोवा में ग्रामीण जीवन में मनोरंजन के लिए अनुपम व अनूठे साधन उपलब्ध हैं। लोग तरह-तरह से अपना व दूसरों का मनोरंजन करते हैं। यहां गांव में रहने वाले लोगों में धार्मिक आस्था बहुत प्रबल होती है। प्राय: लोग मंडली बनाकर देवस्थलों पर ढोल मजीरे आदि वाद्य यंत्रों के साथ बैठकर संगीत व नृत्य का आनंद उठाते हैं। गायन में लोकगीत व भजन आदि प्राय: सुनने को मिलते हैं। गोवा के लोक नृत्यों में माडो, धालो, फुगड़ी प्रमुख हैं। उत्सवों पर गोवा के ग्रामीण लोग आज भी पूरे रीतिरिवाजों के साथ अपनी परम्पराओं को निभाते आ रहे हैं। यहां हर उत्सव में पटाखों को फोड़ना एक अनूठी ही परम्परा है। सबसे अच्छी बात जो यहां देखने को मिलती है, वह यह है कि लोग नाते रिश्तेदारों के साथ मिलकर अपने अपने पुश्तैनी गांव के घर में ही त्योहारों को मनाते हैं।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा |
गोवा में लोग मीठा कम खाते हैं। यहां पर गांवों में भी समुद्री भोजन ही लोकप्रिय है। मछली के बिना उनका भोजन अधूरा होता है। यहां का प्रधान भोजन चावल और मछली करी है। गांवों में अंकुरित रागी का दलिया बनाकर खाया जाता है। ग्रामीण जन भोजन बनाने में व्यापक रूप से नारियल और नारियल तेल, मिर्च, मसाले, खाद्य सिरका का उपयोग करते हैं। गांवों में विशेषरुप से ईसाई घरों में खुशी के मौकों पर नारियल के दूध से बनाई गई प्रॉन करी, फिश रेशेडो, चिकन जकौटी, चिकन कैफरियल, पोर्क सॉरपोटेल, पोर्क विंडालू, रवा फ्राइड फिश आदि व्यंजन बनाते हैं। नारियल, दूध, अंडे और मक्खन से बनाई जाने वाली बेबिन्का नामक मिठाई भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा सूजी, नारियल और खीरा से बनाया जाने वाला कुकम्बर केक भी लोग चाव से खाते हैं। गांव के लोग काजू फेनी और नारियल फेनी का पेय पदार्थ के रुप में सेवन करते हैं। एक बात आकर्षण पैदा करती है कि गांवों में लोग मछली खाए बिना भले ही न रह पाते हों लेकिन आज भी हिन्दू धर्म मानने वाले गोवावासी पूजन आदि धार्मिक कार्यों के समय मछली, अण्डे या मांसाहार जैसी खानपान की वस्तुओं का सेवन नहीं करते। पूरे गणेशोत्सव के दौरान लोग मांसाहार त्याग देते दैं। इन दिनों ये लोग पूरनपौली, पूरी, शीरा और चावल से बने मिष्ठान बनाते हैं। गोवा की ईसाई संस्कृति में भी ग्रामीणता मिलती है, वे भी बेहद भोलेभाले होते हैं और अपने में मस्त रहते हैं। ईसाई धर्म से संबंधित सभी रस्मों को पूरी परम्परा के साथ निर्वहन करते हैं। गांवों में जगह जगह छोटे छोटे प्रार्थना कक्ष मिल जाते हैं, जहां क्रास लगा रहता है और लोग मोमबत्तियां जलाकर प्रार्थना करते हैं। गांवों में इस्लामी संस्कृति के भी दर्शन होते हैं। गांवों के लोग मुस्लिम त्योहारों को इस्लामिक परम्परा के साथ मनाते हुए दिख जाते हैं। गोवा के गांवों में सभी धर्मों के लोग विशेषरुप से हिन्दू, ईसाई और मुस्लिम लोग एक दूसरे के धर्मों का सम्मान करते हुए मिलजुलकर एक विशेष गोअन संस्कृति के साथ रहते हैं।
गोवा में गांवों में लोग जल्दी अपने कामों से फुरसत होकर रात को अपने घरों में ही रहते हैं। बाहर सड़कों पर सात बजे के बाद बमुश्किल इक्का दुक्का लोग ही मिलते हैं। रात को आठ बजे तक बाजार भी बंद होने शुरु होने लगते हैं। पब्लिक बसें भी बहुत कम हो जाती हैं। इस तरह देखें तो गोवा में स्थानीय निवासी और गोवा के ग्रामीण निवासी पश्चिमी सभ्यता में जकड़े हुए नहीं होते, बल्कि गोवा के शहरों में विशेषकर पणजी और मडगांव के समुद्रतटों पर बिखरी पश्चिमी सभ्यता वास्तव में गोवा की स्थानीय संस्कृति नहीं है, वरन् पर्यटकीय अभिलाषाओं को तुष्ट करती गोवा की आतिथेय परम्परा की झलक होती है। स्वयं गोवा के अधिकांश लोग बोहद सीधेसादे और ग्रामीणता लिए हुए हैं।
गोवा की ग्रामीण सांस्कृतिक कुंबी और जालमी जैसी कई जनजातियाँ परंपरागत वेशभूषा पहनती हैं, जिनमें महिलाएं मुख्यतः नववारी साड़ी और पुरुष शर्ट और हाफ पेंट पहनते हैं। विभिन्न त्योहारों का पूर्ण आनंद व उल्लास ग्राम्य जीवन में भरपूर देखने को मिलता है। गोवा में गणेशोत्सव, नरकासुर वध, नागपंचमी, दशहरा, दीवाली तथा होली आदि त्योहार ग्रामवासी परस्पर मिल-जुल कर व बड़े ही पारंपरिक ढंग से मनाते हैं। गोवा की ग्रामीण संस्कृति में शिगमोत्सव की अलग ही बात है। यह उत्सव वास्तव में गोवा में होली की पहचान है। इस त्योहार में गीत-भजनों की स्वरलहरियां, नृत्यों की धूम और आध्यात्मिक जात्राओं के साथ आम और खास सभी ग्रामीण लोग प्रेम, आनन्द तथा उल्लास से सराबोर दिखलाई पड़ते हैं। प्रेम, श्रृंगार, आनन्द, प्रफुल्लता और मौजमस्ती वाला यह उत्सव उन महान योद्धाओं की याद में मनाया जाता है, जो आक्रामकों को खदेड़ देने के लिए घरों से चले जाते हैं और उन्हें पराजित कर घर लौटते हैं। इस अवसर पर घोड़ेमोडनी नृत्य जो शौर्य नृत्य है, इसी आशय से किया जाता है, जिसमें योद्धा मराठी पोषाकों में सजधज कर अपने हाथ में खड्ग लिए राजस्थान के कच्छी घोड़ी की तरह घोड़ों पर सवार ढोल, ताशा और तूताड़ी वाद्य के साथ नृत्यरत्त होड्डर-होड्डर की किलकारियां करते गांवों और कस्बों में होली स्थलों के आसपास दिखलाई पड़ते हैं। गोवा में शिगमोत्सव दो प्रकार के होते हैं। पहला धाकवो-छोटा शिगमो और दूसरा वडलो शिगमो। धाकवो शिगमो किसानों, ग्रामीणों, मजदूरों का नृत्य और गीतों का प्रतीक है, तो वहीं वडलो कस्बाई और शहरी लोगों द्वारा मनाया जाता है। होली उत्सव के दौरान लोग इकट्ठा होकर समवेत स्वर में वृन्दगान करते है। ढोल, ताशा और घुमट बजाते हुए वे मस्ती में नाचते गाते हैं। कृष्ण भक्ति पर आधारित तालगड़ी नृत्य होली से पांच दिन तक चलने वाला नृत्य है, जिसमें लकड़ी के डण्डे के पर कुण्डा लगा रहता है, उसे लेकर पुरूष कलाकार नाचते हैं और थोड़े से अन्तर के साथ डाण्डिया की तरह नृत्य करते हैं। यह नृत्य ताशा तथा झांझ की गमक पर समूह के साथ मन्दिरों के आंगन में किया जाता है। ग्रामीणांचल में मूसल खेल, कब्बडी और खो-खो प्रतियोगिताएं आज भी प्रचलित हैं।
वैसे भारत के अन्य गांवों की तरह कभी कभी गोवा की ग्रामीण संस्कृति में भी अधिकांश लोगों में आज भी रूढ़िवादिता तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त होने की प्रवृत्ति मिल जाती है। पुरानी परंपराओं तथा सामाजिक बंधनों ने उन्हें इस प्रकार जकड़ रखा है कि वे स्वतंत्रता प्राप्ति के छः दशकों के बाद भी देश के विकास की मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाए हैं। अंदरुनी गाँवों में लोग अभी तक कोयले और उपले जलाकर भोजन पकाते हैं। गोवा के बहुत से ग्रामीण इलाकों में उत्तम सड़कें तथा रेलमार्ग उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी गोवा के अधिकांश ग्रामीण इलाके भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में काफी समृद्ध हैं। कुछ दूर-दराज के गाँवों को छोड़ दिया जाए, तो प्रायः सभी गांवों में बिजली-पानी आदि जैसी सभी जीवनोपयोगी वस्तुएँ यहां भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। दूरदर्शन व अन्य संचार माध्यमों के द्वारा ग्रामीण लोगों को उत्तम कृषि, स्वास्थ्य व उत्तम रहन-सहन संबंधी जानकारी है। गाँवों के विकास हेतु सरकारी स्तर पर भी समय समय पर अनेक परियोजनाएँ लाई जाती हैं, जिससे ग्रामीण दशा में काफी सुधार हुआ है।
गोवा के गांवों में मछली उद्योग लोगों की जीविका का साधन है। इसके अलावा यहां ग्रामीण लोग काजू उत्पादन में भी काफी रुपए कमा लेते हैं। गोवा का काजू सउदी अरब, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय राष्ट्रों को निर्यात होता है। गोवा के गांवों में नारियल की फसल बड़े पैमाने पर होती है, साथ ही इससे रस्सियाँ और चटाई भी बनाई जाती हैं। इसका तेल खाना बनाने में उपयोग किया जाता है। इससे मछली पकड़ने का जाल भी बनता है। इसकी पत्तियाँ छत और टोकरी बनाने के काम में ली जाती हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि नारियल यहाँ की जीविका का प्रमुख साधन है। असली गोवा को जानना और समझना है, तो इस प्रदेश के गांवों की सादगी, ईमानदारी और अपनेपन को महसूस करने की जरुरत है। जिस गोवा से लोग सतही तौर पर एक दो दिनों के टूर में समुद्री बीचों पर विदेशी पर्यटकों के साथ मिलकर घूमकर जाते हैं, वो गोवा अपनी ग्रामीण संस्कृतिवाले प्रदेश की छवि से बिल्कुल भिन्न है। भारत का असली गोवा भी गांवों में ही बसता है।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
संपर्क सूत्र - डॉ. शुभ्रता मिश्रा ,स्वतंत्र लेखिका, वास्को-द-गामा, गोवा, मोबाइलः :08975245042,
ईमेलः shubhrataravi@gmail.com
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Nice article with awesome explanation ..... Thanks for sharing this!! :) :)
जवाब देंहटाएंगोवा एक बहुत प्रसिद्द पर्यटन का राज्य हैं लेकिन इसके ग्रामीण जीवन के बारेमें बहुत से कम लोगों को जानकारी हैं ,आपका आर्टिकल जानकारी पूर्ण हैं.
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