भारतवर्ष के राष्ट्रीय साहित्य की ’’भागवतम’ एक अक्षय कीर्ति है। ’’भागवतम ’’ में 12 सर्ग 332 अध्याय, भगवान द्वारा ब्रह्मा को कहे 4 श्लोक अब 18000 स्लोक हैं।यह देवी भागवत पुराण ( 18 पुराणों में एक )एवं श्रीमद्भागवद्गीता ( कुरुक्षेत्र के युद्ध माइदान का गीत )से अलग है। इस पर सबकी अलग-अलग व्याख्याएं हैं ।
भारतीय संस्कृति की अक्षय निधि : श्रीमद भागवतम
।। श्रीमद् भागवत ।।
भारतवर्ष के राष्ट्रीय साहित्य की ’’भागवतम’ एक अक्षय कीर्ति है। ’’भागवतम ’’ में 12 सर्ग 332 अध्याय, भगवान द्वारा ब्रह्मा को कहे 4 श्लोक अब 18000 स्लोक हैं।यह देवी भागवत पुराण ( 18 पुराणों में एक )एवं श्रीमद्भागवद्गीता ( कुरुक्षेत्र के युद्ध माइदान का गीत )से अलग है। इस पर सबकी अलग-अलग व्याख्याएं हैं ।
- शन्कराचार्य
- बल्लभाचार्य, - (सुबोधिनी , किशन गढ किले मे मूर्ति ,
- माधवाचार्य
- निम्बकाचार्य
एवं राजेन्द्रदास, पू0 चित्रलेखा जी एवं समानी कृपालु महाराज जी की जब-तब भागवत कथा सुनी है।
यमुना किनारे एक जवान स्त्री और उसके दो बूढे पुत्र ( ग्यान और वैराग्य ) ,
मन फूला फूलाफिरे जगत मे कैसा नाता रे
नारद जी ने वेद व्यास जी को कहा कि आप ने महाभारत आदि ग्रंथ लिखे लेकिन अब आप कोई कलियुग मे लोगों का जो कल्याण करे , प्रभु का मन भावन वर्णन करो , तब यह लिखी गई, इसलिए इसमे साधारण और असाधारण महापुरुषों की अनेक कहाँइया है , लेकिन किसी देवी और देवता की स्तुति में यह नहीं हैं , इसका मूल मंत्र ,वेदांत का सार , है , ओम : ब्रह्म, जगत , माया और आत्मा चार तत्व हैं , जिनमे , सत्य , सत्यम परम धीमहि ।. यह आत्म देव व धूंधरी के अलावा ,सब धूंधरे और धूंधरियों को प्रकाश देती है , अगर वह फिर भी श्मशान वैरागी हो तो आश्चर्य नहीं होगा ।
हर रचना अपने समय से प्रभावित होती है उसी तरह जैसे बेन जानसन की अल - केमिस्ट या बाण भट्टकी कादम्बरी ( हर्ष वर्धन के काल की ) , आदमी सत्य जब जान जाता है तो वह “ यशोधरा ( माया जाल ) और पुत्र राहुल ( बेडी ) को छोडकर , बुद्ध की तरह इनसे दूर चला जाता है ।
(He is one wise men call differently)
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Essays: our cultural legacy & Bhartvansh: Indian culture and
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एकं सदविपः बहुधा वदन्ति (एकोह द्वितीयो नास्ति)
वेदव्यास ने स्वयं कहाः- यह भागवत ब्रहमसूत्र, अहं ब्रहमास्मि ...... I am creator …… तो क्या सब ब्रहम हैं ?
’’ ईश्वर अंश जीव अविनाशी शरीर के अंदर जीव, 5 इंन्द्रिय, मन,बुद्धि,अहंकार, के अधीन है । इनसे ईश्वर नहीं जाना जा सकता। तो फिर कैसे जानें?
इसमें भक्ति-समर्पण,प्रेम की पराकाष्ठा
साहित्य और धर्म एक ही पायदान पर है। उनसे (राजा) बडा धर्म है। धर्म से बडा दर्शन है। दर्शन से बडा (सत्य)न्याय है।
रसखानः ’’ ताहि अहीर की छोहरियां , छछिया भर छाछ पे नाच नचावे।’’
व्यास जी (प्रवाचक)- शुकदेव जी (सूत जी) परीक्षित जी (श्रोता)
जब आप सही तरीके से अहंकार के आवरण को हटाकर अपने को जान जाएंगे तो, ईश्वर को जानने की दिशा में आगे बढ जाएंगे। सदाचार के नियम कभी बासी नहीं होते। एलेक्जेंडर पोप, अंग्रजी कवि का एसे आन मेंन इसी बात को रेखाकित करता है। पुनि-पुनि नाचने की बजाए (अब मै नाच्यौ बहुत गोपाल) संसार ’’ गुण -दोष’ मय बनाया गया है। अब रूचि आपकी है कि आप को कौन सी वस्तु आकर्शित करती है।
प्राचीन साहित्य के ये दो ग्रंथ, जिन्हें पंचम वेद भी माना गया है, भगवतम् (भक्ति ईष्वर की) क्रमश: (श्रवण ) एवं (दर्षन) की गुरू षिश्य परंपरा की धाराएं है। जो घटनाए हो चुकी है उन पर आपका वष नहीं था जो होने वाला है उस पर अनुमानतः आपका नियंत्रण नहीं है तो हेतुक जन्म का अवष्य है। जीवन एवं समय दोंनों ही अनमोल है। अतः मन, वाणी एवं कर्म को एक जैसा समेकित करके भक्ति एवं ज्ञान की इस सुरसरि में आप को डुबकी लगानी चाहिए।
व्यवसाय के कारण
आप सरकार/गैर -सरकार के परमपदों पर विराजमान है। कार्य छोडकर आप 2-3 घंटे भजन कर भी नहीं सकते। जो उचित है वह यह है कि आप कार्य करते उठते-बैठते ईष्वर को न भूलकर भगवान को याद नाम जप करें।नाम जब है तो पद या रूप तो होगा ही । उच्च आसन पर विराजमान व्यक्तियों की बुद्धि अत्यन्त सजग व जागृत पहले से ही होती है तो क्या कथा का सार उन्हे मालूम नहीं कि भगवान की प्राप्ति इसी में है कि उनके बताए हुए नेक रास्ते पर हम चलें जैसा मराठी कवि पु0ल0 देषपांडे ने कहा कि ’’ मी गवत आहे कापले तरी बाढडार आहे।’’ आज राजयोग का समय अनुकूल है लेकिन समय इतना कम पडता है कि आप 2-3 घंटे कथापान चाहें तो कर भी नहीं सकते। ’ विठोबा जी’ ’ भवानी भाई की तलवार के दर्षन ’’ रामटेक’’ के दर्षन न हुए तो भी कोई बात नहीं। दर्षन हो जाएॅ तो क्या कहने आप उनकी बात का मान इस तरह रखें कि आपके कार्य निर्देष व आदेषों में न्याय का समावेष हो। याद रखें कि ’’न्याय’’ को धर्म से भी उच्च पद प्राप्त है। धर्म की गति बडी विचित्र है। इसमें ’’ सद्इच्छा’’ का अभाव रहा तो पुण्य का फल ’’ निश्फल’’ है।
’’ वृक्ष कबहुं न फल भरवै, नदी न संचे नीर’’ यह मंत्र है, सिद्धि है ’’ सर्वे भवन्तु सुखिनः।’’ गलती का जवाब गलती करके देना नहीं बल्कि युक्तिपूर्वक,विदुर,भीष्म पितामह के जीवन को याद करके दीजिए। दान दक्षिणा एवं भिक्षा के मर्म समझो।
ईश्वर की सत्ता इस दृष्टांत से समझें कि पांडवों को तो हिस्से की बात दूर, कुछ गाॅव भी रहने के लिए नहीं मिले तब परम तेजस्वी भीष्म पितामह,गुरूद्रोण ,कर्ण आदि के रहते इन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त हरा कौन सकता था ?
शुद्ध संकल्प और मन,तन व वस्त्रों की शुद्धि के अतिरिक्त संसार में पवित्रता के साथ प्रत्येक मनोरथ सिद्ध होगा।
ज्ञानेश्वरी में
सच्ची श्रद्धा रखिए। विश्वास रखिए। ये जो मन है वह इन्द्रिय पर सवार है। शरीर की पाॅच प्रकार की अग्नि (जठराग्नि) आदि नित्य है। इन्द्र स्वयं ’ ब्रहम’ पद को लालायित है। और ब्रहमा जी निमिश पल घटी क्षण से बंधे हैं। ये बंधन है। स्वतंत्र हुए कि विकर्षण प्रारंभ। आकृति भी तो इस आकर्षण की ही है। पूज्य डोंगरे जी महाराज ने ’’सद इच्छा’’ जागृत करने पर ज्यादा जोर दिया। संसार में बहुत सारी बातें केवल भांवरूप में विद्यमान हैं। उन्हें ’’अरस्तू’’ की तरह परख की जिद करना भी शुभ नहीं है। ज्ञान हो तो यह संभव है। ज्ञान अनंत है, परा और अपरा प्रकृति गूढ है।
शास्त्रों का शास्त्र ’दर्शन शास्त्र है। ’’ अस्ति’’ या ’’नास्ति’’। उसका स्वरूप क्या है? स्वरूप का दर्षन न हो या वह है ही नहीं। वह प्रकृति में है वह सर्वस्व में हैं। न मिले तो भी कुछ हर्ज नहीं। मिल्टन के ’आन हिज ब्लाइन्डनेंस’ की यह पंक्ति अर्थ भाव व मर्म के साथ याद रखनी चाहिए ’ दे आलसो सर्व हू स्टेन्ड एंड वेट’’। तर्क शास्त्र इस संदर्भ में सभी शास्त्रों का सिरमौर है।
महर्षि गौतम का न्याय दर्षन मीमांसा की मुख्य बातें भी जीवन में याद रखने योगय हैं। प्रकृति में रहकर प्रकृति के अनुसा जीवन यापन करें।
भारतीय संस्कृति त्याग और संतोष की है। सर्व विदित है कि ’’दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान तुलसी दया न छांडिए जब तक घट में प्राण।’’ हम देख रहे है कि अपनी उन्नति अपना विकास हो उसमें लगे रहें तो अच्छी बात लेकिन दूसरों से ईर्ष्या तो ’’ घुन ’’ की तरह आप ही को अंतत: नष्ट कर देगी। इसे अपने पास न आने दें। मनुश्य शारीर विकारों का पिटारा है वस्तुत: यह विषय से ही उत्पन्न हुआ है , अन्य मार्ग हो तो गुण भी वैसे हों , लेकिन ’’ प्रकाश पुंज’’ की संभावना भी इसी में है।
तुलसीदास जी ने क्या अपने क्या पराए सभी से उलाहने सहे। ’सूकर क्षेत्र’ में राम कथा रची। भगवान् ने कहा कि ’’ नैमिषारन्य’’ में कथा कहो। अर्थात वह स्थान जहाॅ एक निमिष में अनेक असुर मरे या कहें श्मशान। श्मशान नीरवता शांति की है। यहाॅ ध्यान एक्राग्रचित,दत्तचित्र होगा। स्थिति प्रत्र (सुखः दुख में एक समान) यह मन की वृत्ति केवल ध्यान,योग या कहे अभ्यास से ही आ सकती है। जीवन में कोई सुर ,कोई लय न हो तो इनके अभाव में ’’ असुर’’ या ’’प्रलय’’ तो होगी ही। अभ्यास भी जैन-पंथ के अनुसार’’ निर्झरा’’ वाला। जब-जब नाव में कोई छेद हो पानी आने लगे तो दो काम पहले यानी नाव का बाहर उलीचो फिर छेद बंद करने का उपाय करो। लेकिन थक कर बैठने की जरूरत नहीं । अतिंम सास तक यह उपाय किए जाऔ। ’’ हारिए न हिम्मत, बिसारिए न राम’’। भीष्म पितामह ने जब रथ चकनाचूर कर दिया तो क्या दूसरे दिन वही रथ नहीं आया ? जीवन का रथ आगे की ओर बढाएं , पीछे की ओर नहीं ।
संसार के हर महापुरूष ने अपने जीवन काल में संकट व दुख झेले हैं। सुख-दुख की जीवन में फिल्म चलती रही है।
’’ स्थित प्रग्य’’ परमहंस योगी केवल शब्द नहीं लेकिन ये वर्षों के तप,त्याग,अभ्यास और समर्पण का फल है।
मन है कि एक सा रहता नहीं । भगवान ही स्वयं सत्य है। उनकी रचना माया हैं शरीर की रति अत्यधिक माया में है। भोग में है। भोग की तृप्ति व त्याग की तृप्ति दौनों अलग-अलग है ।
“क्षण भंगुर जीवन की कलिका ,कल प्रात को जाने खिली न खिली ।
मलयाचल की शुचि शीतल मंद सुगंध समीर चली न चली ।।
कलि काल कुठार लिए फिरता, तन “ नम्र “ है चोट झिली न झिली ।
ले ले हरिनाम अरी रसना फिर अंत समय मे हिली न हिली” ।।
शक्ति अगर आपके पास है भी, तो प्रथमतः आपकी रक्षा में काम आए या अन्य निर्बलों की रक्षा , में काम आए।
क्षेत्रपाल शर्मा |
दूसरे किसी का भी शोषण न हो।दुख न पहुॅचे। ग्रहस्थ आश्रम सर्वश्रेश्ठ है। अधिकांष मुनश्य इसी में है। केवल कुछ अन्य आश्रमों में है लेकिन वे भी ग्रहस्थ की तरफ उन्मुख है लेकिन मजबूरी है कि तडक-भडक इधर की चाहिए ही चाहिए। सुख सुविधा भी चाहिए लेकिन नाम उधर का चाहिए। यह ठोग कोई नया नहीं । जहांं कोई बनावटीपन नहीं वही सच्चा भगवान के प्रति समर्पण है। लेकिन मन,बुद्धि,अहंकार ’’आत्मा’’ को पहचानने ही नहीं देते है। वही ’’दक्ष’’ राजा के प्रसंग की आवृति।
अब जो सरल है ज्ञान में कर्म में वह है भक्ति। सब को चाहिए सुख धन आदि। तिरूवल्लुवर संत ने ’तिरूवुरल’ में केवल तीन पक्ष लिए धर्म,अर्थ एवं काम । इनमें सामंजस्य,षालीनता,सरलता रहे तो चैथा मोक्ष सिद्ध हो कर ही रहेगा। ’रसखान’ की सी भक्तिः-
’’ ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर नाच पें नाच नचावें।’’
भक्ति अकेले नहीं प्राप्त होगी।या तो सद्गुरू मिले या आपकी आत्मा इतनी उन्नति कर जाए कि भगवान ही कृपा करें जैसे अर्जुन पर की।
’’ यं यं पश्यसि तस्य तस्य नष्टमेव ’’ यह प्रकृति का नियम। इसके जड और चेतन नियम पं0 भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ’’ बुनी हुई रस्सी की भाॅति समझ में आ जाने चाहिए। समय की गति नियति सब आगे की ओर है स्वास्तिक, पीछे आप मत कुरेदिए। समय जो कमी रह गई है उसकी मरम्मत कर लेगा। प्रकृति के नियम में फिर चाहे वह जीन की संरचना ही क्यो न हो, ज्ञाता,ध्याता,योगी,भगवान की भी दखलंदाजी ठीक नहीं। दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी, घी से दीपक जलेगा कि नहीं? आप आवश्यक संग्रह करे (नरोत्तम दासः सुदामा चरित) लेकिन अनावष्यक नहीं। हर धर्म हर पंथ व सत्कर्म की षिक्षा एवं पारायग करने की क्यो कहते है । ये जो पाॅच तत्व है उनके मेल से ष्ह षरीर पिंड बना जरूर है लेकिन यही गठन हर पल विघटन भी कर रहा है। मृत्यु अटल सत्य है। पिंड चैतन्य तभी हो उठता है जब उसमें ईष्वरांष माया आती है। कर्म बंधन जिनसे अच्छे बुरे’’ कर्म गति हारे नाहि टरी।’’ (सूरदास) भगवान भी कर्म के बन्धन से अपने भान्जे अभिमन्यु को बचा नहीं पाए? ’’ तुख्में तासीर सोहब्बतें असर’’ सत्कर्म व विचार का विवेक, सत्संग ही उपाय ।
यह आश्चर्य ही है कि जो विचारा जाता है वह घटित हो ही जाता है। जो घटित होता है वह शून्य होगा। जो शून्य है वह ही एक दिन ’’ ध्वनित’’ होगा। यह ध्वनि , यही आहट प्रकृति का सुनना चाहिए।वचा एवं कर्राणा लगे रहना यही सद्गति है। यह निमिष का अरण्य आखेट के लिए नहीं है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय, आप यह जान लें कि आपकी सारी समस्याओं का समाधान उजाले में आने पर ही होगा।
अंधेरे में नहीं । रासपंच भागवत प्रभु के अवतारों की गाथा एसं अध्याय की देकर सार समझे इसे केवल इसे कवि कौशल का प्रदर्शन (पोइटिक जस्टिस) माने। यह ईश्वर को संबोधित एक निवेदन है , प्रार्थना है। फिर महान आत्माओं एवं सदाचारियों के पापात्मा पुत्र जन्मते रहे है। यह क्रम और विपरीत-क्रम में जीवों का आवागमन लगा रहा है।
श्रीमद भागवत 6 वी शताब्दी का है। 11 ये 17 वी षती तक इसके अनवरत अनुवाद एवं कमेनटरीज लिखी गई है। अब तक भास्य जारी है। एकनाथ जी की कमेन्टरी भी लोकप्रिय है। सार बात यह है कि हर प्रान्त में यह मौजूद हैं एवं भारतीय कला एवं संस्कृति का एक बेजोड ग्रंथ।
गोकर्णनाथ की कथा का मंतव्य भाई के मोक्ष का मार्ग प्रषस्त करना था जो मर के मरा नहीं जबकि परीक्षित मृत्यु के भय से शुकदेव जी से इसे सुनते है।
जीवन निस्सार है , जो सारवान इसे बनाएगा वह है मृत्यू का खयाल करके , बुरे काम से बचे रहना तब ही जो काम करेंगे वह ईश को अर्पित करके . ।
मैने जितना सुना समझा एवं स्वाध्याय से सक्षेपण् किया, अनुभव से एवं व्यवहार से ,अपर्याप्त हैं। लेकिन जैसा ’’नेति नेति’’ एवं पूर्णभिद (शान्ति मंत्र में है) वह है।तुलसीदास के इन शब्दों को याद करते हुए कि
“ ..............................................,अति मंद गवारा “, भागवत का सार ज़्यादा है और मेरी सीमाएं हैं ।
वर्तमान में गोकर्ण की ही तरह प्रकाश में ’’प्रकाश’’ से प्रश्न पूछे और मामलों/तथ्यों को परखते हुए सोच वैज्ञानिक रखें ।
संपर्क क्षेत्रपाल शर्मा
म.सं 19/117 शांतिपुरम, सासनी गेट ,आगरा रोड अलीगढ 202001
मो 9411858774 ( kpsharma05@gmail.com )
01.01.2017
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