कश्मीर में लोकतंत्र का महापर्व मनाया जा रहा था । सुरक्षा के तौर पर सैनिकों की तैनाती भी की गई । मतदान केन्द्रों पर सन्नाटा छाया हुआ है ।जो कि पूरी कहानी स्वमेव बयान कर रहा है ।वास्तव में यह लोकतंत्र का जनोत्सव है या किसी खुफिया एजेंसी का अड्डा ।
कश्मीर में लोकतंत्र का महापर्व
कश्मीर में लोकतंत्र का महापर्व मनाया जा रहा था । सुरक्षा के तौर पर सैनिकों की तैनाती भी की गई ।
मतदान केन्द्रों पर सन्नाटा छाया हुआ है ।जो कि पूरी कहानी स्वमेव बयान कर रहा है ।वास्तव में यह
लोकतंत्र का जनोत्सव है या किसी खुफिया एजेंसी का अड्डा ।
सुरक्षा के कडे बन्दोबस्त के बीच मतदाता मतदान के लिए आ रहे है ।
किसी भी रूप में एेसा नहीं लग रहा कि यह आजाद देश का लोकोत्सव है ।और तब तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा
जब मतदान केन्द्रों से लौट रहे सैनिकों के साथ बदतमीजी की गई उनके बैग छीने जा रहे हैंं ,हैलमेट गिराया जा रहा है ,बार बार चलते हुए उन पर धक्का दिया जा रहा है ।
क्या था ये सब ?
क्या वास्तव में यही थी लोकतंत्र की परिभाषा ?
यही है संविधान की मर्यादा जिस पर हम गर्व करते हैंं ?
क्या यही है भारत जो विश्व के चन्द शक्तिशाली देशों की गिनती में आता है ?
यही हश्र होना है उसके सिपाही का ?
देश का सिपाही कितना असहज व कमजोर महसूस कर रहा होगा अपने आपको वक्त ।
और जो एेसा कर रहे हैंं उनकी मानसिकता क्या होगी ,क्या बताना चाहते हैंं वो इसके जरिये ?
यह सब देखकर हमारे सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा होता है कि अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था ही इस तरह लाचार और बेबस है , तो हम किसी आधार पर देश की सुरक्षा का दावा करते हैंं ? हमारी सुरक्षा व्यवस्था की यह महत्वपूर्ण कड़ी यदि कमजोर है
मनोज कुमार सामरिया |
सुरक्षा के खोखले दावे करना बेबुनियाद है , मैं जानता हूँ हिन्दुस्तानी सिपाही इतना कमजोर नहीं है ,उसकी कोई मजबूरी रही होगी ।वह हम यहाँ देश के किसी सुरक्षित कोने में बैठकर तय नहीं कर सकते । पर हाँ इतना जरूर तय है कि ये लोकतंत्र की बहुत बड़ी पराजय है ।ये एक बहुत बडा़ प्रश्नचिह्न है विश्व के सबसे बड़े लिखित संविधान पर । निश्चित तौर पर मेरा देश महान है ,इसकी रक्षा करने वाले सिपाही ही भगवान हैंं , मैं मंदिर में सजी मूरत पर शीश झुकाना भूल सकता हूँ मगर किसी शहीद के स्मारक पर सीना तानकर सलामी देना नहीं भूलता । मैं वहाँ झुकना नहीं भूलता । उनका इस तरह अपमान भीतर तक झकझोर गया ।क्या इसी दिन के लिए माँ कुमकुम तिलक लगाकर अपने लाल को सीमा पर भेजती है ? क्या बहना इसलिए कलाई पर राखी बाँधती है कि यह हाथ झुकाकर चुपचाप चले आना ?
इससे भी बड़ा ताज्जुब इस बात का है कि देश के हुक्मरान खामोश कैं क्योंकि वे सत्य और अहिंसा के पुजारी हैंं ।
क्योंकि हम पंचशील के सिद्धान्तो को अपनाते हैंं ।नहीं ।ये गाँधीवादिता का समय नहीं है ,ये भगतसिंह और चन्द्रशेखर का समय है ।जब अपनाते मौन हमें कायरता तक से आये तो उसे तोड़ने में ही भलाई है । मुझे याद है जब अंग्रेजों के अत्याचारों की अति हुई थी तो इसी अहिंसा के पुजारी ने अहिंसा का मार्ग त्यागकर करो या मरो का उदबोधन किया था ।
मैं बहुत बडा़ राजनीतिज्ञ नहीं हूँ ना ही शिक्षाविद् ।परन्तु अपने विचार आपके समक्ष रख रहा हूँ ।
काश्मीर की घटना पर राजधानी का इस तरह मौन रहना कुछ अच्छा नहीं लग रहा ।
सोचता हूँ संविधान की धारा ३७० उसे पृथक राज्य घोषित करती है , अलग कानून बनाने की अनुमति देती है तो क्या एेसी धारा नहीं बन सकती जो उसे भारत में मिला दे । सवाल तो बहुत सारे हैंं मन में , बहुत कुछ रहना चाहते हूँ पर कुछ सवाल बस कुछ सवाल ....
क्या काश्मीर हमारे लिए महज एकअनसुलझा मुद्दा बनकर रह जाएगा ?
बस केवल वार्तालाप का विषय बना रहेगा ?
राजनेताओं के लिए चुनावी बहस ?या कुछ और ?
.......ये विचार पूर्णतय व्यक्तिगत हैंं इनका किसी राजनैतिक दल से कोई सरोकार नहीं है ,
केवल विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पालन करते हुए रखे गए हैंं ।
मैं देश व देश के संविधान का पूर्ण सम्मान करता हूँ । मेरी मानसिकता देश की व्यवस्था को चोट पहुँचाना नहीं है ।यदि किसी वाक्य से ऐसा लक्षित होता है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
यह रचना मनोज कुमार सामरिया “मनु” जी द्वारा लिखी गयी है। आप, गत सात वर्ष से हिन्दी साहित्य शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। अनेक बार मंच संचालक के रूप में सराहनीय कार्य किया । लगातार कविता लेखन,सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख ,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन करते हैं। वर्तमान में रचनाकार डॉट कॉम पर रचनाएँ प्रकाशित एवं कविता स्तंभ ,मातृभाषा .कॉम पर भी रचना प्रकाशित ,दिल्ली की शैक्षिक पत्रिका मधु संबोध में भी प्रकाशन हो चुका है।
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