घना अंघकार था , मैं अपनी जिन्दगी से उबकर इससे दूर भाग रहा था और जिन्दगी भी परछाई की तरह मेरा पीछा कर रही थी । अपने पीछे आते देखकर मैंने क्रोधवश उसे ड़ाँटा ,कहा - मैं तुमसे जितना दूर जाना चाहता हूँ तुम उतना ही मेरे पास क्यों आ जाती हो ?
मैं और मेरी जिन्दगी
घना अंघकार था , मैं अपनी जिन्दगी से उबकर इससे दूर भाग रहा था और जिन्दगी भी परछाई की तरह मेरा पीछा कर रही थी । अपने पीछे आते देखकर मैंने क्रोधवश उसे ड़ाँटा ,कहा - मैं तुमसे जितना दूर जाना चाहता हूँ तुम उतना ही मेरे पास क्यों आ जाती हो ? मुझे तुमसे कोई लगाव नहीं है मैं तंग आ गया हूँ तुमसे ,तुझमें पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा ।मेरे इतने चिल्लाने पर भी वह सरल सौम्य प्रतिमा मन्द - मन्द मुस्कुराती है और कहती है मुझसे दामन छुड़ाना ग़र इतना आसान होता तो अट नहीं जाती जमीं मुर्दों से।
वैसे तुम मुझसे भाग क्यों रहे हो ? उसने पूछा
परेशान हो गया हूँ तुमसे ,अब मौत के आगोश में चैन से सो जाना चाहता हूँ। मैंने कहा ।
मैंने तुम्हे सोने से कब रोका ? जिन्दगी ने कहा ।
तुम्हारे रहते सो कौन सकता है ,बस करवटें बदलता रहता है। मैंने कहा ।
बीते दिन का विचार ,अगले दिन की चिन्ता मुझे सोने कहाँ देती है ।अब तो मौत की ओढ़कर चादर सुकून से सोना चाहता हूँ ।
जाओ बहस मत करो ,मैं जब भी कोई नेक काम करने जाता हूँ खड़ी हो जाती हो आकर मेरे पीछे मेरी परछाई की तरह ....
मैं तुमसे दूर बहुत दूतुम्हारााचाहता हूँ क्योंकि तुम मुझे पहले जैसी सुन्दर भी नहीं लगती ।
सोच लो मौत भी मेरी बहन ही है उसके पास निर्वेद है शमशान -खामोशी है लुभाने के लिए । वह बहुत चालाक है, मुझे तुमसे छीन लेना चाहती है ।हम दोनों बहनों में अपना- अपना साम्राज्य बढा़ने की होड़ है। अतः वह छल कपट का सहारा लेकर भी
अपना उल्लू सीधा कर लेती है ,मुझे ये प्रपंच नहीं सुहाते ।परन्तु यकीन मानो वह बहुत बुरी है ,वह दिखती सुन्दर है पर है बहुत भयानक।
बहकाओ मत मुझे मैंने महसूस किया है कि वो कितनी अच्छी है , जब भी मैं उसके बारे में सोचता हूँ तो एक अपनापन सा नजर आता है ,मानों वह बाँहे फैलाए मुझे आमंत्रित कर रही हो । मैं उसका आलिंगन करने को आतुर हो रहा हूँ ,मुझे रोको मत ,जाने दो मैं जानता हूँ तुमसे मेरी खुशी देखी नहीं जा रही ,और उससे ईर्ष्या भी हो रही है ।
जल्दबाजी अच्छी नहीं तनिक विचार कर लो थोड़ा धैर्य धर कर सोच लो ।
सोच लिया ,यही मेरा अंतिम फैसला है ।
पुनः विचार करने में क्या क्षति है, फिर से सोच लो ।
कहा ना सौ बार सोच लिया तंग न करो मुझे भला यह भी कोई जीना है उलझनों में रहते हुए।
फिर भी जीना इसी का नाम है ,जीवन में उतार -चढ़ाव आते रहतें हैं ।उसने कहा ।
छोड़ो - छोड़ो मैं तुम्हारे झाँसे में नहीं फँसूगा ,मुझे जो पसन्द है वही करूँगा ।मुझे आज उससे मिलना ही है । आज मैं नहीं रूकने वाला ।हर बार जब मैं निराश होकर अपने आपको अकेला महसूस करता हूँ तो न जाने किस अन्तर्बोध से तुम मेरे पास आ जाती हो ।मेरे फैसले में अपनी सहमति ,असहमति जताती हो । तुम यह सब करके क्या साबित करना चाहती हो। आज मेरी चिन्ता करने वाली तुमने कभी मुझे जी भर गले लगाया ।
वह हँसने लगी ।
हँसती क्या हो जवाब दो ?
तुम्हे कभी अपने आप से इतनी फुर्सत मिली जो अपनी परछाई को पलटकर गले लगा सकते ।माना की मैंने नहीं लगाया पर तुमने भी कभी पहल नहीं की । वह कुछ रूँआसी हो गई ।
यह बात मुझे भीतर तक आहत कर गई ,बात पूर्णतया सत्य थी ।
परन्तु तुम तो गले लगा सकती थी मैं तो व्यस्त था तुम तो स्वतंत्र थी ।मैंने कहा ।
मूर्ख मत बनो मैं स्वतंत्र कहाँ हूँ बन्दिनी हूँ तुम्हारी ,कभी तुम्हारे सम्मुख आने का साहस न कर पाऊँगी ।बस तुम्हारे साथ चलुँगी ।मेरा अस्तित्व तुमसे ही बनता है और ढलते - ढलते तुममें ही विलीन हो जाता है ।
ऐसा क्यों ? मैंने उत्सुक्तावश पूछा ।
परछाई जो हूँ तुम्हारी । उसने हँसकर जवाब दिया ।
तुम पुरुष कितने निष्ठुर होते हो ,एक बार भी नहीं सोचा मेरे बारे में ,मैं अपने ही हाल में भागती रही तुम्हारे पीछे ।(वह रोने लगी )
रोओ मत मुझे भी खेद है इस बात का कि अंहकारवश मैं तुम्हे नहीं समझ पाया ।
कोई बात नहीं मैं सदैव तुम्हारे पीछे चलती रहूँगी बगैर किसी शिकवा शिकायत के ।बस रंज एक ही बात का है कि काश तुम पलटकर मुझे गले से लगा पाते मुझे समझ पाते । उसने कहा ।
पर मैंने तो कभी तुम्हारी आवाज भी नहीं सुनी । मैंने कहा ।
सुनोगे कहाँ तुम्हे कभी दुनिया के शोरगुल के अतिरिक्त कुछ सुनाई दिया है ?कभी अपने मन के भीतर से आती
मनोज कुमार सामरिया |
फिर तुम्हारे कहने का तात्पर्य क्या है? तुम कहना क्या चाहती हो ? मैंने पूछा ।
बस यही कहना चाहती हूँ कि मत जाओ उधर ,लौट आओ बहुत अंधकार है वहाँ ,उम्मीद की कोई किरण तक नहीं है वहाँ ।
एक बात बताओ तुम अंधेरे में तो दिखती हो और उजाले में न जाने कहाँ ओझल हो जाती हो ,मुझे अकेला व तन्हा छोड़कर ? मैंने कहा ?
हँसते हुए उसने कहा- गर उजाले में दिखने लगी तो मेरी अहमियत क्या रह जाएगी ।
मतलब ?मैंने पूछा ।
अंधेरे में साथ रहना ही परछाई की सार्थकता है और मैं अपना धर्म बखूबी निभा रही हूँ ।उसने कहा ।
पहेलियाँ मत बुझाओ ,यकीन नहीं हो रहा तुम्हारी बात पर ।
कभी साथ रहना , कभी छोड़ देना यह तो अच्छी बात नहीं है । मैंने कहा।
तुम कितने नासमझ हो मैं तो हर घड़ी , हर लम्हा तुम्हारे साथ हूँ ,तुम्हारे पास हूँ एक अहसास की तरह । उसने कहा।
फिर दिखती क्यों नहीं ?मैंने साश्चर्य पूछा ।
यह तुम्हारे देखने का नजरिया है ,तुम सुख में मुझे देखना ही नहीं चाहते ।क्योंकि उस वक्त तुम्हारे आस पास कथित अपनों की लम्बी कतार जो होती है। एक और वजह है इसकी कि मैं तुम्हारी खुशियाँ नहीं बाँटना चाहती वरन दुख बाँटना चाहती हूँ ।
तो क्या तुम वाकई खुशियों में मेरा साथ नहीं दोगी ?मैंने हैरान होकर पूछा ।
क्यों नहीं दूँगी तुम चाहो तो अवश्य दूँगी ।वैसे यकीन करो मेरी बात का मैं हर वक्त तुम्हारे साथ हूँ ।
दुख के समय जब अपनों का वह बनावटी घेरा टूट जाता है ,अंधेरा होते ही सब दूरियाँ बना लेते हैं तब भी मैं मौन स्तब्ध तुम्हारे साथ चलने के ईन्तजार में खड़ी रहती हूँ ।
तुम कभी थकती नहीं हो ?
अपने आप के लिए कैसा थकना ? हँसते हुए उसने कहा ।
वास्तव में तुम कितनी अच्छी हो और मैं तुम्हे कभी समझ ही नहीं पाया । मुझे अफसोस है इस बात का ।
हमेशा रोशनी की ओर मुँह उठाए चलता रहा ,पीछे पलटकर देखने की कोशिश ही नहीं की ।
यह मनुष्य का स्वभाव है वह दीया जलाता है तो उसकी रोशनी सामने लेकर चलता है ।
हाँ यही फर्क है चलने का सब आगे का ध्यान तो रख पाते हैं मगर पीछे का नहीं और आजकल तो लोग पीछे से वार करते हैं ।इसलिए मैं तुम्हारे पीछे - पीछे चलती हूँ ताकि तुम्हारा खयाल रख सकूँ ।
सही कहा तुमने ,मैंने अधीर होकर कहा । यह बात मेरे जेहन में पहले कभी नहीं आयी । परन्तु अब ऐसा नहीं होगा ।अब से "हम" साथ - साथ दोनों तरफ हाथों में ज्योतिपुँज लेकर चलेंगे । सावधानी के लिए मुड़कर देखते रहेंगे ।
मैंने परछाई के साथ रहने का निश्चय कर लिया था। और मैं अपने आप पर मन ही मन पछता भी रहा था कि कितना गलत सोचता था मैं जिन्दगी के बारे में । मैं अपनी ही विचार श्रंखला में उलझने लगा ।
कब तक मैं इसी अवस्था में पड़ा रहा पता ही नहीं चला ।
तभी कुछ आहट हुई और मेरी तंद्रा टूट गई । मैंने देखा हल्का - हल्का उजाला हो रहा है ,भोर की सुनहली लालिमा चारों ओर फैल रही है। मैंने चौंककर परछाई को ढ़ूँढ़ना चाहा ।पर वह कहीं भी दिखाई नहीं दी । उसके स्थान पर मेरी पत्नी पूजा की थाली लिए खड़ी थी ।
मौन स्तब्ध मुस्कुराते हुए , देवीस्वरूपा कान्तियुक्त चेहरा लिए मुझे निहार रही है ।
मैंने पूछा तुम कब आई ?
मेरे हाथ में प्रसाद रखते हुए कहने लगी , अभी रात का नशा उतरा नहीं है शायद जाकर नहा लो पानी गर्म हो गया ।
मैं कुछ सोचकर उठ गया हँसते हुए ।
“मनु” मनोज कुमार सामरिया
यह रचना मनोज कुमार सामरिया “मनु” जी द्वारा लिखी गयी है। आप, गत सात वर्ष से हिन्दी साहित्य शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। अनेक बार मंच संचालक के रूप में सराहनीय कार्य किया । लगातार कविता लेखन,सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख ,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन करते हैं। वर्तमान में रचनाकार डॉट कॉम पर रचनाएँ प्रकाशित एवं कविता स्तंभ ,मातृभाषा .कॉम पर भी रचना प्रकाशित ,दिल्ली की शैक्षिक पत्रिका मधु संबोध में भी प्रकाशन हो चुका है।
संपर्क सूत्र :- प्लाट नं. A-27 लक्ष्मी नगर 4th ,
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मुरलीपुरा जयपुर ।. पिन नं. 302039
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