गीले गीले गेसुओं से टपके है मादकता क्यों, भीगी भीगी पलकों से विजय लक्ष्मी जांगिड विजय लक्ष्मी जांगिड बरसे है विह्वलता क्यों । क्यों लरजते होंठ तेरे कंप रही अंगड़ाई सी, हे सखी क्या तू अपने साजन से मिल आई री ।
साजन से मिल आई री
गीले गीले गेसुओं से
टपके है मादकता क्यों,
भीगी भीगी पलकों से
विजय लक्ष्मी जांगिड |
बरसे है विह्वलता क्यों ।
क्यों लरजते होंठ तेरे
कंप रही अंगड़ाई सी,
हे सखी क्या तू अपने
साजन से मिल आई री ।
बिखरी बिखरी सांसें
लहकी महकी चाल हुई,
ये सुंदरता क्यों तेरी
और भी कमाल हुई ।
प्रिय के आलिंगन से
ज्यूँ फूली अमराई सी,
हे सखी क्या तू अपने
साजन से मिल आई री ।
मै आधुनिक हूँ
त्याग दिए भूषण लज्जा के
स्वाभिमान को धार लिया
मै आधुनिका हूँ मेने ही
परिवर्तन को आकार दिया
बदले है प्रतिमान जर्जर
अस्मिता को मान किया
मै आधुनिक हूँ मेने ही
नये युग का सन्धान किया
मेरा आँचल दूध नही
अब मेने रक्त उतारा है
बदले जग या बदले सृष्टि
ये संकल्प विचारा है
शक्ति का आगार
प्रज्ञ हूँ
मेने निज श्री का
स्वयं में आह्वान किया
में आधुनिका हूँ मेने ही
जीवन जग को प्राण दिया
तलवार बन कर
तमस संहारा
बनी कलम तो मैने ही
अभिव्यक्ति का आकाश जिया
मै आधुनिका हूँ मेने ही
परिवर्तन को आकार दिया
पापा तुम मुझे दुनिया में लाना
पापा तुम मुझे दुनिया में लाना
लेकिन जीना भी सिखलाना
पंख दिए हैं अभिलाषा के
तो उड़ने की रीत चलाना
गिरु तो न देखु किसीको
अपने पैरो विश्वास जगाना
हो सकता है कभी घबराऊँ
नजरो में आकाश दिखाना
निर्णय मेरे लिए तुम करना
मेरी इच्छा का पता लगाना
पापा मुझे तुम दुनिया में लाना
लेकिन जीना भी सिखलाना
पंख दिए हैं अभिलाषा के
तो उड़ने की रीत चलाना
समर्पण ही जीवन मेरा हो
सपन अपने लिए मेरा हो
भले रूप मुझमे हो अनेक
स्त्रीत्व मुझमे मेरा अपना हो
अलंकार हो सजे देह पर
कन्यादान में स्वाभिमान ही लाना
पाप तुम मुझे दुनिया में लाना
लेकिन जीना भी सिखलाना
पंख दिए है अभिलाषा है
तो उड़ने की रीत चलाना
काश!
: वो मुझे रोज तंग करती थी
हर समय कैसे हो कहाँ हो
पूछा करती थी
में कई बार तो उसे इग्नोर करता
और कई बार बुरा भला सुनाता
उसकी बातें मुझे बोर करती
फिर एक दिन उसका कोई सन्देश नही मिला
में खुश हुआ
दो तीन दिनों तक कुछ बात नही हुई
मुझे रिलेक्स हुआ
जब कुछ दिन और गुजरे
तो कुछ खाली पन महसूस हुआ
फिर मेने इंतजार किया
मगर जताया नही
हर रोज देखा
मगर बताया नही
लेकिन
अब काफी देर हो चुकी थी
जब मैने जानना चाहा
वो खो चुकी थी
जब मैने देखना चाहा
वो सो चुकी थी
हमेशा के लिए
अब वो नही
ना ही उसके सन्देश हैं
न ही कॉल्स और न ही बाते
सिर्फ यादे हैं
काश मेने समझा होता
वक़्त पर उसे
जाना होता उसकी बातों के पीछे छिपी परवाह को
काश
तो आज कुछ खाली खाली सा नही रहता
रे मन धार धीर
पग पग है नीर
रे मन धार धीर
कर कल्पना
मत हो अधीर
जो बीता वो
तेरा कल था
रीझ न, रुक
बढ़ेगी पीर
पग पग हे नीर
रे मन धार धीर
सुन अकेले
चल सम्भल
आशा भरे
विकल पल
न करदे तुझे
धारा बिन तीर
पग पग है नीर
रे मन धार धीर
रचनाकार परिचय विजय लक्ष्मी जांगिड
जयपुर राजस्थान
हिंदी भाषा शिक्षिका
W/o मुकेश जांगिड
प्रकाशित पुस्तक
काव्य संकलन
केनवास पर बिखरे रंग
दैनिक भास्कर,राजस्थान पत्रिका,नवज्योति,डेली न्यूज़ में आलेख प्रकाशित होते रहते हैं।
नई दिल्ली अणुव्रत न्यास संस्थान विगत 4 वर्षों से मेरी कहानियां प्रकाशित कर रहा है।
Jmd पब्लिक्शन ने दो पुस्तकी नारी काव्यऔर प्रेम काव्य में दो दो कविताओं को सपरिचय प्रकाशित किया है।
अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास संस्थान नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक शिक्षक की कलम से में विगत चार वर्षों से कहानियां प्रकाशित हो रही हैं । वर्तमान में एमपीएस इंटरनेशनल स्कूल तिलक नगर जयपुर में हिंदी भाषा शिक्षिका के पद पर कार्यरत हूँ
बालको में साहित्य व् हिंदी भाषा के प्रति रुझान उतपन्न करने हेतु नित नवीन प्रयोग एवं गतिविद्यो में संलग्न रहना प्रिय शगल है।
मेरी पहचान तुम बनो माँ हिंदी
व् अभिलाषा में।
विजय लक्ष्मी जांगिड जयपुर राजस्थान
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