अध्ययन-कक्ष में रखी अल्मारियों में भरी किताबों में पिता की आत्मा बसती थी । इस बड़े कमरे में लगभग दस अल्मारियाँ थीं । इनमें से छह अल्मारियाँ अंग्रेज़ों के जमाने या उससे भी पहले की बनी थीं ।
किताबों की अल्मारियाँ , पूर्वज और पिता
अध्ययन-कक्ष में रखी अल्मारियों में भरी किताबों में पिता की आत्मा बसती थी । इस बड़े कमरे में लगभग दस अल्मारियाँ थीं । इनमें से छह अल्मारियाँ अंग्रेज़ों के जमाने या उससे भी पहले की बनी थीं । मज़बूत लकड़ी से बनी ये अल्मारियाँ पिता को अपने पूर्वजों से विरासत में मिली थीं । इनमें बहुत पुरानी पुस्तकें और पांडुलिपियाँ
भरी पड़ी थीं । कुछ पांडुलिपियाँ तो ताम्र-पत्रों पर लिखी हुई थीं । पिता कभी-कभी अपनी इस धरोहर से धूल साफ़ करते हुए उन्हें सहेज कर रखते । वे हमें बताते कि पूर्वजों से होती हुई कई विरल पुस्तकें उन तक पहुँची थीं । इनमें ' गीता ' और 'रामायण' की प्राचीन -काल और मध्य-काल की पांडुलिपियाँ भी मौजूद थीं । शेष चार अल्मारियों में पिता के ज़माने की पुस्तकें भरी हुई थीं ।
हमें इन अल्मारियों को छूने की सख़्त मनाही थी । हालाँकि पिता जब बाहर गए होते तो कई बार मैं चोरी-छिपे उनके अध्ययन-कक्ष में चला जाता और पूर्वजों से मिली इन किताबों की रहस्यमयी दुनिया की चौखट पर खड़ा हो कर इन्हें निहारता और इनके बारे में सोचने लगता । पिता बताते थे कि उनके परदादा बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र के ज़माने के ब्रज-भाषा के एक जाने-माने लेखक और कवि थे । एक बार पिता ने मुझे पीले पड़ चुके पन्नों वाली एक किताब दिखाई जिसका शीर्षक था : ' चार दिशाएँ , दस कहानियाँ ' । पूछने पर उन्होंने बताया कि इस किताब के लेखक उनके दादाजी थे । इस अध्ययन-कक्ष की दीवारों पर कई प्रभावशाली लोगों की तस्वीरें लगी थीं । पिताजी बताते थे कि ये सभी हमारे पूर्वज थे ।
हमारे पूर्वज ज़मींदार थे । वे पढ़ने-लिखने के साथ-साथ शिकार भी खेला करते थे । अध्ययन-कक्ष की एक दीवार पर एक बड़े बाघ की विशाल खाल टँगी हुई थी । पिता बताते थे कि एक बार जब अंग्रेज़ बहादुर लाट् साहब उनके इलाक़े में शिकार खेलने आए तब एक खूँखार बाघ ने उन पर हमला कर दिया । उस समय पिता के परदादा ने अपनी जान पर खेल कर अकेले ही इस बाघ से मुक़ाबला किया था और खुद घायल हो जाने के बावजूद अपने हाथों से उसका जबड़ा फाड़ कर उसे मार डाला था । पिता के परदादा की इस बहादुरी से खुश हो कर लाट् साहब ने उन्हें ' राय बहादुर ' का ख़िताब दिया था । उसी बाघ की ऐतिहासिक खाल पिता के अध्ययन-कक्ष की शोभा बढ़ा रही थी ।
पूर्वजों से मिली वे छह अल्मारियाँ अपने भीतर एक रहस्यमयी दुनिया समेटे थीं । मुझे लगता , जब पिता उन अल्मारियों को खोलते तो वे जैसे अतीत की दुनिया में प्रवेश कर जाते थे । तब शायद वे अपने पूर्वजों को फिर से देख पाते थे , उनसे बातें कर पाते थे । पूर्वजों के भी इस दुनिया में आने का माध्यम उन अल्मारियों में रखी किताबें ही थीं । कई बार मुझे लगता जैसे उन खुली अल्मारियों में रखी किताबें व पांडुलिपियाँ उलटते-पलटते पिता जैसे किसी से बातें कर रहे हों । क्या उन जादुई अल्मारियों में रखी उन किताबों की दुनिया में हमारे मृत पूर्वज जीवित हो उठते थे ? मैं निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता था लेकिन एक बात स्पष्ट थी । पिता का दिल उन किताबों और पांडुलिपियों के लिए ही धड़कता था । जीवन के भीतर ही उन्होंने अपने लिए एक और जीवन ईजाद कर लिया था ।
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दुबे जी पिता के अभिन्न मित्र थे । यह मित्रता साथ पढ़ने-खेलने और बड़े होते हुए एक ही तरह के सुख-दुख सहने की वजह से विकसित हुई थी । कई बार मुझे लगता कि क्या पता , दुबे जी और पिता ने जीवन में एक ही तरह की बीमारियाँ भी झेली होंगी । पिता की तरह दुबे जी भी साहित्य-प्रेमी थे । वे शहर के कॉलेज में पिताजी के साथ ही हिंदी के प्राध्यापक थे । अक्सर वे अपने बेटे पलाश के साथ हमारे यहाँ आते । दुबे जी और पिता बातों में व्यस्त हो जाते और पलाश का ख़्याल रखने की ज़िम्मेदारी हम भाई-बहनों पर आ जाती । ऐसे में हम सब बाहर लॉन में क्रिकेट , फ़ुटबॉल और बैडमिंटन खेल कर अपना समय बिताते ।
सुशांत सुप्रिय |
एक बार दीवाली की शाम पाँच बजे दुबे जी और उनका बेटा पलाश मिठाई ले कर हमारे यहाँ आए । दुबे जी और पिता ड्राइंग-रूम में बैठ कर बातें करने लगे । पलाश हमारे साथ बाहर लॉन में पटाखे और रॉकेट चलाने लगा । हम सभी बच्चे पटाखे और फुलझड़ियाँ चलाते हुए खूब मौज-मस्ती कर रहे थे । मैंने बोतल में रख कर एक रॉकेट चलाया । वह बहुत ऊपर जा कर फटा । मेरी देखा-देखी पलाश ने भी बोतल में डाल कर रॉकेट चलाया । पर ऐन मौके पर बोतल अचानक टेढ़ी हो गई । इससे पहले कि हम उसे सीधा कर पाते , रॉकेट उड़ा और घर के अध्ययन-कक्ष की खुली खिड़की में से हो कर भीतर जा कर फट गया । हम सब स्तब्ध रह गए ।
मैं भीतर अध्ययन-कक्ष की ओर भागा । अल्मारियों में आग लग गई थी । पिता और दुबेजी वहाँ पहले ही मौजूद थे । ज़रूर टेढ़ी बोतल में से चला रॉकेट उड़ता हुआ खिड़की के रास्ते भीतर आ कर सीधा पूर्वजों वाली अल्मारियों से टकरा कर फट गया होगा । पिता वहाँ बदहवास से खड़े थे जबकि अल्मारियों में रखी किताबें जल रही थीं । फिर अचानक जैसे पिता को होश आया । वे और दुबे जी भाग कर बाल्टियों में पानी भर कर ले आए और आग बुझाने के काम में जुट गए । किंतु आग थी कि भड़कती ही जा रही थी । लगता था जैसे साक्षात अग्नि देव रौद्र रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हो गए थे ।
मैं भाग कर दूसरे कमरे में गया ताकि 101 नम्बर पर फ़ायर ब्रिगेड को फ़ोन कर सकूँ । जब मैं वापस लौटा तो पूरा कमरा आग की चपेट में था । एक गहरा काला धुआँ चारो ओर फैल गया था जिसकी वजह से ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । यह धुआँ नाक और आँखों में घुसता चला जा रहा था जिसके कारण आँखें मिचमिचा रही थीं और उन से पानी आ रहा था , और साँस लेना भी दूभर हो रहा था । दुबेजी मुझे बाहर खड़े नज़र आए । मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि पिता अब भी कमरे के भीतर अपनी किताबों को बचाने के लिए एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे ।
थोड़ी देर में अग्नि-शामक गाड़ियाँ आ गईं । आधे घंटे की जद्दोजहद के बाद आग बुझा दी गई । तब तक पूरा कमरा जल कर ख़ाक हो चुका था । पूर्वजों से प्राप्त पिता की वे सारी अमूल्य किताबें और पांडुलिपियाँ भी जल कर भस्म हो चुकी थीं । मेरी आँखें शिद्दत से पिता को तलाश रही थीं । किंतु वे कहीं नज़र नहीं आए ।
उस दिन के बाद पिता कभी किसी को नज़र नहीं आए । क्या उस दिन पूर्वजों की विरल किताबों और पांडुलिपियों के साथ वे भी जल गए थे ? पर कमरे में तो उनका कोई अवशेष नहीं मिला । उनके जल जाने का कोई सबूत नहीं मिला । पता नहीं उन्हें ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया । क्या अल्मारियों में आग लगने पर वहाँ समय में कोई गुप्त ' पोर्टल ' , कोई रहस्यमय कपाट खुल गया था जिस में से हो कर पिता अपनी विरल किताबों और पांडुलिपियों समेत पूर्वजों की दुनिया और समय में सुरक्षित चले गए ? जो भी हो , जिस दिन यह वाक़या हुआ , पिता उसी दिन से ग़ायब हैं । उनकी जान ज़रूर पूर्वजों से प्राप्त उन विरल पुस्तकों और पांडुलिपियों में ही बसती होगी ...
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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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एक ऐतिहासिक मार्मिक प्रसंग - एक पूरा व्यतीत इसमें जीवंत हुआ है। पुरखों की धरोहर हमारे संस्कार होते हैं। उनमें ही हमारी जीवन-ऊर्जा होती है। उसी का आख्यान है इस अत्यंत भाव-विह्वल कर देने वाली संस्मरण-गाथा में। आभार एवं नमन
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