बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा।
जीवन से भरी मृत्यु या मृत्यु से भरा जीवन
"अज्ञानता का जीवन किसी इंसान के लिए मौत से कम नहीं है।"
सुकरात
स्मरेन्मर्म जानीयं जीवनस्य च। तदालक्ष समालक्ष्य पादौ संततमाक्षिपेत ।।
अर्थात- ''मृत्यु को ध्यान में रखें और जीवन के मर्म को समझ कर अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर हों।''
आज जब इस विषय पर लिखने बैठा तो तो टीवी पर कश्मीर समाचार चल रहे थे ,आतंकी किस तरह से वहां निर्दोष सैनिकों और नागरिकों को निशाना बना रहे हैं मन बहुत उदास था। फिर एक प्रश्न मन में उठा कि बंदूकों और राजनीति के इस तांडव में कौन मर रहा है और कौन जी रहा है। जो मर रहें हैं वो जीवन पा रहे हैं या जो
जीवित हैं वो मौत पा रहे हैं।यद्यपि निश्चित रूप से जानते हैं कि हम यहां सीमित समय के लिए हैं और कोई भी शक्ति हमें स्थायी जीवन नहीं दे सकती है, यह बात भी हमें मौत के सदमे के लिए तैयार करने या इस दुनिया से अपनी अनिवार्य जुदाई का सामना करने में मदद करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ।
जीवित हैं वो मौत पा रहे हैं।यद्यपि निश्चित रूप से जानते हैं कि हम यहां सीमित समय के लिए हैं और कोई भी शक्ति हमें स्थायी जीवन नहीं दे सकती है, यह बात भी हमें मौत के सदमे के लिए तैयार करने या इस दुनिया से अपनी अनिवार्य जुदाई का सामना करने में मदद करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ।
हम क्यों पैदा होते हैं? हमारे मृत्यु क्यों सुनिश्चित है ? इस नाजुक अस्तित्व से हम कौन से मूल्य प्रतिस्थापित कर सकते हैं?मरने का अर्थ क्या है?यह प्रश्न उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि यह प्रश्न कि जीवन क्या है? इन दोनों प्रश्नों से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि हम सभी मृत्यु से इस कदर भयभीत क्यों हैं और हमें जीवन की लालसा क्यों है। आइये पहले जान लें कि मृत्यु क्या है तभी हम जान पायेंगें की जीवन क्या है।
चेतना के संदर्भ में जीवन को परिभाषित करें तो हम पायेंगें कि जहाँ चेतना खत्म होती है, तो वहां जीव की मृत्यु हो जाती है। किन्तु इस दृष्टिकोण में एक खामी यह है कि कई जीव हैं जिनमें चेतना तो है लेकिन संभवतः जागरूकता नहीं हैं (उदाहरण के लिए, एकल कोशिका जीव)। एक और समस्या चेतना को परिभाषित करने में है, जिसमें आधुनिक वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों द्वारा दी गई कई भिन्न परिभाषाएं हैं। इसके अतिरिक्त, कई धार्मिक परंपराएं यह मानती हैं कि मृत्यु चेतना के अंत में शामिल नहीं होती है।
मृत्यु कहती है कि हम पूर्णतया अनासक्त हो जाएं। मृत्यु जब आती है तो ठीक यही होता - किसी भी व्यक्ति पर आप निर्भर नहीं रहते - कुछ भी नहीं रह जाता। मरने का अर्थ क्या है? प्रत्येक चीज का परित्याग । मृत्यु आपको
तमाम आसक्तियों से, आपके ईश्वर से, देवताओं से, अन्धविश्वासों से, आराम की कामना से, अगले जीवन आदि से बिलकुल अलग कर देती है।इस भौतिक संसार में जो आपने गढ़ा है या जो आपके लिए गढ़ा गया है , उन सबों का पूर्णतया परित्याग करना ही मृत्यु है। जिस प्रकार वस्त्रों का मैल जल में धुलकर है उसी प्रकार आत्मा पर चढ़ा वासनाओं का मैल मृत्यु में धूल कर दूर हो जाता है। अगर हमने स्वयं को शरीर मान लिया तो यह भौतिक संसार हमारे वस्त्रों की तरह बन जाता है।
मौत हमें जीवन रूपी खजाने को कैसे खर्च किया जाये यह सिखाती है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण की बहुमूल्यता के प्रति सजग करती है। मृत्यु के दुख को दूर करने के संघर्ष में, हम अपने अस्तित्व की गहराई में धैर्य का एक विशाल खजाना बना सकते हैं। उस संघर्ष के माध्यम से, हम जीवन की गरिमा के बारे में अधिक जागरूक हो जाते हैं और दूसरों की पीड़ा को आसानी से महसूस कर सकते हैं।
मृत्यु को समझने के लिये आपको अपने जीवन को समझना होगा। जीवन के मौलिक आवेग जो जीवन को आगे ले जाते हैं, हमें जन्म और मृत्यु के चक्र में बांधते हैं। प्रत्येक पल ये आवेग हमारी विभिन्न इच्छाओं को विचार , अभिव्यक्ति और कर्मों के द्वारा उद्वेलित करते हैं , जिसमें हमारे व्यक्तिगत कर्मों की गुप्त शक्ति शामिल है। इन कारणों और प्रभावों, क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से, हम अपने आप को आकार देते हैं, जो हमारे अंदर निरंतर अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण करती है और यहीं से जीवन जीने की सतत प्रक्रिया जारी रहती है ।जीवन अपने भीतर मृत्यु को छिपाए है।वास्तव में मृत्यु कहीं दूर नहीं है, यह यहीं है और अभी है।
मृत्यु जीवन के विपरीत नहीं है।वे एक ही घटना के दो छोर हैं। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को कहा है—“मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हुए हैं, मैं उन्हें जानता हूँ परन्तु तू उन्हें नहीं जानता।”जब तुम्हारा संयोग आत्मा से, चेतन अथवा विवेक से होता है, तब तुम्हारा जन्म होता है, इसके विपरीत जब तुम्हारा उक्त चेतन से वियोग होकर जड़ तत्व से संयोग होता है,तब तुम्हारी मृत्यु होती है।जीवन जिसका प्रारंभ है, मृत्यु उसी की परिसमाप्ति है। यह जीवन में प्रतिपल आपके साथ रहती है, बिलकुल वैसे ही जैसे प्रेम रहता है। आपको यदि एक बार इस यथार्थ का बोध हो जाये, तो आप पायेंगे कि आप में मृत्युभय शेष नहीं रह गया है। जन्म के साथ ही तुमने मरना शुरू कर दिया।
ओशो कहते हैं "न तो तुम जीवन हो और न तुम मृत्यु हो। तुमने अपने को जीवन माना है, इसलिए तुम्हें अपने को मृत्यु भी माननी पड़ेगी। तुमने जीवन के साथ अपना संबंध जोड़ा है तो मृत्यु के साथ संबंध कोई दूसरा क्यों जोड़ेगा? तुम्हें ही जोड़ना पड़ेगा। बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान हो जाओगे। मरता कभी कुछ भी नहीं। विज्ञान भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता।"
अब हम जीवन क्या है इस बात पर विचार करें तो हम पाते हैं कि जीवन आत्मा के प्रक्षालन की एक सतत प्रक्रिया है जिसमे कर्मों के द्वारा हमारी आत्मा वासनाओं से मुक्त होकर ईश्वर की और प्रस्थान करती है।जीवन और मृत्यु एक सातत्य के दो चरण हैं जीवन जन्म से शुरू नहीं होता है और न ही मृत्यु पर समाप्त होता है। ब्रह्मांड में सब कुछ अनंत और सतत है - हम महान घूमती आकाशगंगाओं में अपना अस्तित्व बनाते हैं और वह स्वतः ही समाप्त हो जाता है -इन चरणों के माध्यम से गुजरता हमारा जीवन इस महान लौकिक लय का एक हिस्सा है।
इस प्रक्रिया का एक पहलु जीवन है तो दूसरा पहलू मृत्यु है। जिस प्रकार दिन और रात अलग अलग होते हुए भी समय के सतत क्रम में चलने वाले अंग हैं उसी प्रकार जीवन मृत्यु भी इस सृष्टि के सतत चलने वाले अंग हैं। जिस
प्रकार दिन और रात के नियंत्रण करने में सूर्य ,चन्द्रमा, पृथ्वी ,ग्रह , सौर मंडल मुख्य कारक हैं उसी प्रकार जीवन मृत्यु के सञ्चालन में चेतन ,पिंड उद्भव आत्मा इत्यादि कारक होते हैं। हमारा जीवन हमारे कर्म द्वारा निर्देशित नहीं है, बल्कि हमारी प्रज्ञा से संचालित होता है । हम मूल रूप से मुक्त हैं जब हम इस वास्तविकता के बारे में परिचित नहीं होते हैं तो हम अपने जीवन को कर्मों के आधार पर जीने लगते हैं जिस से हमारे अंदर मौत का डर ,पाप पुण्य की व्याख्या उत्पन्न हो जाती है। जीवन का न आदि है न अंत है। शरीर का जन्म है और शरीर की ही मृत्यु है।
वह जो भीतर है, शरीर नहीं है। वह जीवन है। उसे जो नहीं जानता, वह जीवन में भी मृत्यु में है। और, जो उसे जान लेता है, वह मृत्यु में भी जीवन को पाता है।जब तक हम जीवन को पकड़ कर आसक्त रहेंगें , तब तक मृत्यु भी हमारे भीतर छिपी रहेगी। जिस दिन हम जीवन को कूड़ा-कर्कट की भांति, फेंक देंगें उसी दिन मृत्यु भी हमसे अलग हो जाएगी।
मैं मृत्यु स्वयंबर रचता हूँ।
तुम जीवन का गीत लिखो।
मैं विरह वेदना गाता हूँ।
तुम मिलने के गीत रचो।
सन्दर्भ ग्रन्थ -
1. मैं मृत्यु सिखाता हूँ -ओशो
2. जीवन और मृत्यु -जे कृष्णमूर्ति
3. बियॉन्ड डेथ -एम महालिंगम।
यह रचना सुशील कुमार शर्मा जी द्वारा लिखी गयी है . आप व्यवहारिक भूगर्भ शास्त्र और अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक हैं। इसके साथ ही आपने बी.एड. की उपाधि भी प्राप्त की है। आप वर्तमान में शासकीय आदर्श उच्च माध्य विद्यालय, गाडरवारा, मध्य प्रदेश में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) के पद पर कार्यरत हैं। आप एक उत्कृष्ट शिक्षा शास्त्री के आलावा सामाजिक एवं वैज्ञानिक मुद्दों पर चिंतन करने वाले लेखक के रूप में जाने जाते हैं| अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में शिक्षा से सम्बंधित आलेख प्रकाशित होते रहे हैं | अापकी रचनाएं समय-समय पर देशबंधु पत्र ,साईंटिफिक वर्ल्ड ,हिंदी वर्ल्ड, साहित्य शिल्पी ,रचना कार ,काव्यसागर, स्वर्गविभा एवं अन्य वेबसाइटो पर एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।आपको विभिन्न सम्मानों से पुरुष्कृत किया जा चुका है जिनमे प्रमुख हैं :-
1.विपिन जोशी रास्ट्रीय शिक्षक सम्मान "द्रोणाचार्य "सम्मान 2012
2.उर्स कमेटी गाडरवारा द्वारा सद्भावना सम्मान 2007
3.कुष्ट रोग उन्मूलन के लिए नरसिंहपुर जिला द्वारा सम्मान 2002
4.नशामुक्ति अभियान के लिए सम्मानित 2009
इसके आलावा आप पर्यावरण ,विज्ञान, शिक्षा एवं समाज के सरोकारों पर नियमित लेखन कर रहे हैं |
विचारपरक आलेख
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