हिन्दी को जब विश्वभाषा के इन मानदण्डों पर विश्लेषित किया जाता है. तब यह बात सामने आती है कि अभी हिन्दी सिद्धांततः विश्वभाषा नहीं कही जा सकती है, क्योंकि कुछ पहलुओं पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
विश्वभाषा के मानदण्डों पर हिन्दी
विश्वभाषा के मानदण्डों पर हिन्दी |
पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसे अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा जैसा साधन मिला हुआ है। मनुष्य के लिए विश्व भर में लगभग 3,500 भाषाएं और बोलियां उपलब्ध हैं। यह अलग बात है कि ये सभी भाषाएं पूरी तरह से प्रचलन में नहीं रह गई हैं। इनमें से कितनी ही भाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। आंकड़ों की माने तो इस समय पूरे संसार में केवल सोलह भाषाएँ ही ऐसी हैं, जिनका इस्तेमाल लगभग पांच करोड़ से अधिक लोग मौखिक और लिखित दोनों स्वरुपों में कर रहे हैं। अरबी, अंग्रेजी, इतालवी, उर्दू, चीनी, जर्मन, जापानी, तमिल, तेलुगु, पुर्तग़ाली, फ्रांसीसी, बंगला, मलय-बहास, रूसी, स्पेनी और हिन्दी ये वे प्रमुख भाषाएँ हैं, जो लोगों द्वारा व्यवहार में लाई जा रही हैं। यह सुखद और गर्व का विषय है कि हिन्दी भी इस सूची में स्थान रखती है। इसका मतलब यह है कि हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक पहचान है, जो उसे विश्वभाषा बनाती है।
विश्व स्तर पर किसी भी भाषा की वृहत् उपादेयता पहले उसे वैश्विक स्वरुप प्रदान करती है और फिर वह विश्वभाषा बनती है। साधारणतौर पर यह माना जाता है कि विश्वभाषा वह है जो पूरी दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बोली, लिखी और सीखी जाती है। लेकिन भाषाविज्ञान के सिद्धांत के अनुसार जब विश्वभाषा को परिभाषित किया जाता है तब बहुत से मानदण्ड सामने आते हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि कोई भाषा विश्वभाषा है या नहीं। इस तरह भाषायी वैज्ञानिक आधार पर विश्व भाषा का निर्धारण केवल उसके मातृभाषियों और विदेशियों की एक बड़ी संख्या के वक्ताओं और प्रयोक्ताओं की कुल संख्या के आधार पर ही नहीं होता है, बल्कि अन्य मानदण्ड भी उसमें शामिल होते हैं। इन मानदण्डों के अन्तर्गत विश्वभाषा बनने के लिए किसी भाषा विशेष का भौगोलिक वितरण, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और राजनयिक संबंधों के रुप में उसकी विश्व के अनेक देशों में आधिकारिक स्थिति तथा क्षेत्र व विषयवार प्रायोगिकता, व्यापक रूप से एक विदेशी भाषा के रूप में पाठ्यक्रम के माध्यम से सिखाया जाना, उसकी भाषाई प्रतिष्ठा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, संगठनों व शैक्षणिक समुदायों में उपयोग के साथ संबंध और विश्व साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग होना प्रमुखरुप से अनिवार्य हैं। वर्तमान में केवल तीन भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पेनिश ही विश्व भाषा के रुप में स्थापित हैं। इन तीनों का दुनिया भर में लोग जहां प्रथम और द्वितीय भाषा के रुप में उपयोग कर रहे हैं, वहीं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इनका आधिकारिक, शैक्षणिक, अकादमिक व साहित्यिक प्रयोजन भी विश्वभाषा विज्ञान के सिद्धांतों के मानदण्डों के अनुरुप किया जा रहा है।
हिन्दी को जब विश्वभाषा के इन मानदण्डों पर विश्लेषित किया जाता है. तब यह बात सामने आती है कि अभी हिन्दी सिद्धांततः विश्वभाषा नहीं कही जा सकती है, क्योंकि कुछ पहलुओं पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। फिर भी हिन्दी मातृभाषियों और विदेशों में बड़ी संख्या में प्रयोग और विश्व में उसके भौगोलिक वितरण के मानदण्डों के दृष्टिकोण से विश्वभाषा है। केवल भारत में लगभग 30 करोड़ लोगों की मातृभाषा और 40 करोड़ लोगों की दूसरी प्रमुख भाषा के रुप में हिन्दी का प्रयोग होता है। इस समय भारत के अलावा फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम और नेपाल की जनता भी सामान्य रुप से हिन्दी बोलती है। भारत के बाहर हिन्दी बोलने वाले लोगों की संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; दक्षिण अफ्रीका में 890,292, जर्मनी में 30,000, ये फेहरिस्त बहुत लम्बी है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज विश्व के 132 देशों में विस्तारित हिन्दी को तीन करोड़ अप्रवासी भारतीयों ने वैश्विक स्वरुप प्रदान कर विश्वभाषा बना दिया है। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ की छः आधिकारिक भाषाओं यथा अँग्रेजी, अरबी, चीनी, फ्रेंच, रुसी और स्पेनिश में से अँग्रेजी को छोड़ दें, तो विश्व में हिन्दी का व्यावहारिक प्रयोग शेष पांच भाषाओं की तुलना में सबसे अधिक है। हिन्दी के परिपेक्ष्य में चीनी भाषा के विश्व में स्थान को लेकर अलग अलग प्रतिक्रियाएं देखी गई हैं। कुछ भाषाविद मानते हैं कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी ही विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। जबकि भाषा के प्रयोग के दृष्टिकोण से कुछ भाषाविदों का कहना है कि विश्व में अँग्रेजी का प्रथम, हिन्दी का दूसरा और चीनी का तीसरा स्थान आता है। स्थान कोई भी हो, यदि पहले तीन स्थानों पर हिन्दी स्थापित हुई है, तब निःसंदेह वह प्रथम मानदण्ड के तहत विश्वभाषा है। दूसरा मानदण्ड भौगोलिक वितरण है। इस पहलू से भी भारतीय प्रायद्वीप का भौगोलिक आकार अपनेआप में हिन्दी के वितरण की पुष्टि करता है। इस तरह भौगोलिक अभिपुष्टि तथा प्रयोक्ताओं की संख्या विश्व में हिन्दी भाषा की भाषाई प्रतिष्ठा के अभिप्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
अगला मानदण्ड विश्व स्तर पर भाषा के शैक्षणिक स्वरुप से सम्बद्ध है। एक विदेशी भाषा के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल होने के साथ साथ विश्व के विश्वविद्यालयों, संगठनों व अन्य शैक्षणिक समुदायों में हिन्दी का उपयोग निरंतर बढ़ रहा है। आज विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकड़ों छोटे-बड़े हिन्दी शोध केन्द्रों में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन के कार्य सुचारु ढंग से चल रहे हैं। विदशों में इंडिया स्टडी सेंटरों के माध्यम से विदेशियों को हिन्दी भाषा से परिचित कराकर भारत से जोड़ने के प्रयास चल रहे हैं। इस समय कुल 40 से अधिक देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत भाषा के अलावा हिन्दी में भारतीय संस्कृति, इतिहास, समाज आदि के विषय में भी पढ़ाया जा रहा है। अमेरिका के येन विश्वविद्यालय में सन् 1815 से हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था चली आ रही है। इसके अलावा वहां हिन्दी अध्यापन के कुल 114 केंद्र हैं। इसी तरह रुस में भी सात से अधिक हिन्दी शोध संस्थान हैं।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा |
हिंदी भाषा के साहित्य में भी विश्वस्तर पर बड़ी तेजी से विकास हो रहा है, उसमें चिंतनपरक साहित्य के रुप में हिन्दी कविताओं, लघुकहानियों, आधुनिक उपन्यासों तथा लेखों की संख्या विश्वस्तर पर बहुत बढ़ी है। आज हिंदी की एक अंतरराष्ट्रीय बिरादरी विकसित हो रही है, जिसमें एक ओर जहां हिन्दी विदेशों में उनके विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान बना चुकी है, तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी साख बनाए रखने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिन्दी अपनाने के प्रति प्रतिबद्ध सी जान पड़ती हैं। 1980 और 1990 के दशक में भारत में उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया काफी बढ़ी, जिसके परिणामस्वरूप अनेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में आई थीं। इसी दौरान भारत में विविध टीवी चैनलों का भी चलन बढ़ा था, जिनके माध्यम से इन कम्पनियों ने अपने उत्पादों के विज्ञापन हिन्दी में देने के लिए इन चैनलों का प्रयोग शुरु किया। देखा जाए तो तब से लगातार बढ़ी विज्ञापन की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय व्यापार जगत में उसके बढ़ते प्रयोग के आधार पर हिन्दी सबसे अधिक लाभ की भाषा साबित हुई है। कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत हिन्दी माध्यम से होता है। विश्वभाषा के इन मानदण्डों पर वर्तमान में हिंदी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका का संबंध उसके बढ़ते अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक, साहित्यिक व व्यावसायिक संपर्कों व स्वरुपों से ही है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में हिन्दी भी अब कम्प्यूटर जैसे यांत्रिक और इलेक्ट्रॉनिक साधन उपकरणों पर अपनी पहचान बना चुकी है। कम्प्यूटर पर देवनागरी लिपि से लेकर हिन्दी शब्द संसाधनों के संबंध में द्रुत गति से कार्य हुए हैं। हिन्दी भाषा के लिए विकसित किए गए सफल सार्थक विविध सॉफ्टवेयरों ने हिन्दी को एक अलग ही वैज्ञानिक आधुनिक स्वरुप प्रदान किया है। हिन्दी के इसी स्वरुप के बल पर वह आज इंटरनेट और सोशल मीडिया पर विश्व में सरल रुप में उपलब्ध हो गई है। जैसे जैसे इण्टरनेट पर हिंदी की वेबसाइटें बढ़ती जा रही हैं उसी के अनुपात में हिन्दी पाठकों की संख्या में भी तीव्रता से वृद्धि दिखने लगी है। इलेक्ट्रॉनिक संचार-माध्यम और कम्प्यूटर आदि के उपयोग में हिंदी ने शनैःशनैः अपना स्थान बना लिया है। हिन्दी आज कागजों से निकलकर इण्टरनेट की दुनिया में अपना सशक्त स्थान बना चुकी है। अब हिन्दी में भी ई-रचनाएं, ई-साहित्य, ई-पत्रिकाएं, ई-कविसम्मेलन होने लगे हैं। तकनीकी दृष्टिकोण से हिन्दी विश्वभाषा बनने लायक साबित हो रही है। यद्यपि यह भी अभी उतना ही कड़वा सच है कि इण्टरनेट पर भाषावार स्थिति के आंकड़ों के अनुसार जहां अँग्रेजी 55.5 प्रतिशत से सबसे आगे है और इसके बाद क्रमशः रुसी, जर्मन, जापानी, स्पेनिश, फ्रेंच, चीनी, पुर्तगाली, इटैलियन आदि भाषाओं का स्थान आता है। इन सबके बीच विश्वस्तर पर अभी हिन्दी 0.1 प्रतिशत की नगण्यता झेल रही है। हांलाकि हिन्दी की इस क्षुद्रता के लिए वे 30 करोड़ से भी अधिक भारतीय ही उत्तरदायी हैं, जो इण्टरनेट का प्रयोग करने वाले विश्व के दूसरे स्थान पर आते हैं, पर हिन्दी का इस्तेमाल नहीं करते। खैर, हिन्दी न कभी इनके आंकड़ों की मोहताज थी और न रहेगी।
शेष विश्वभाषायी मानदण्ड अर्थात् विश्व के अनेक देशों में हिन्दी की आधिकारिक स्थिति के साथ उसकी विषयक प्रायोगिकता पर हिन्दी अभी उतनी खरी नहीं उतर पाई है कि उसे भाषाविज्ञान की परिभाषा के आधार पर विश्वभाषा कहा जा सके। इसके लिए सबसे पहला मार्ग यह है कि हिन्दी को शीघ्र ही संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रुप में स्थान मिलना चाहिए। यह बहुत ही कठिन काम है, वैसे भी बरसों से हिन्दीसेवी इस दिशा में सतत लगे हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रुप में शामिल होने के लिए हिन्दी को अभी भी दुनिया के 129 देशों के समर्थन की आवश्यकता है। जिस दिन हिन्दी अपने विश्वभाषा के इस अंतिम मानदण्ड को हासिल कर लेगी, उस दिन भाषा सिद्धांत के समस्त मानदण्डों पर स्वयं को साबित करती हिन्दी विश्वभाषा के रुप में स्वयं प्रतिष्ठामान हो जाएगी।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
संपर्क सूत्र - डॉ. शुभ्रता मिश्रा ,स्वतंत्र लेखिका, वास्को-द-गामा, गोवा, मोबाइलः :08975245042,
ईमेलः shubhrataravi@gmail.com
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