साहित्यिक कृतियों में जिन समस्याओं, मुद्दों को उठाया जाता है वे वह मुद्दे होते हैं हैं जो समाज के किसी बड़े वर्ग यथा किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, आदिवासी, थर्ड जेंडर, बच्चों आदि-आदि के जीवन को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं ।
यह वह मगध नहीं...
‘साहित्य समाज का दर्पण है ’ यह एक ऐसा कथन है जिसे साहित्य को थोड़ा-बहुत जानने-पढ़ने वाले लोग सामान्यतः व्यवहार में लाते हैं और अनेकानेक कवियों, रचनाकारों की कृतियों को उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत कर देते हैं । साहित्यिक कृतियों में जिन समस्याओं, मुद्दों को उठाया जाता है वे वह मुद्दे होते हैं हैं जो समाज के किसी बड़े वर्ग यथा किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, आदिवासी, थर्ड जेंडर, बच्चों आदि-आदि के जीवन को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं । इन मुद्दों में से किसी एक के साथ जुड़ जाना, किसी एक वर्ग की समस्याओं को सामने लाने वाला ‘पहला महान व्यक्ति’ बन जाने की होड़ भी आज आम हो गई है । हिन्दी साहित्य के अनेक ऐसे सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार हैं जिन्होंने जीवन और समाज के विविध पहलुओं पर कथा-कहानियाँ, कविताएँ लिखी हैं । इन रचनाकारों की प्रसिद्धि का कारण है उनकी वह दृष्टि, उनका वह कौशल जो उनकी कृतियों को चिरजीवी बनाता है । उन अनेकानेक रचनाकारों में से एक हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवि हैं ‘श्रीकान्त वर्मा’ । 18 सितम्बर 1931 में बिलासपुर में जन्मे श्रीकान्त वर्मा को कवि के रूप में ख्याति प्राप्त है । भटका मेघ’, ‘दिनारम्भ’, ‘मायादर्पण’, ‘जलसाघर’ और ‘मगध’ इनके काव्य संग्रह हैं । इनमें ‘मगध’ के लिए सन् 1987 में उन्हें मरणोपरांत ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी दिया गया था ।
25 मई 1986 को श्रीकान्त वर्मा का निधन हुआ था । उन्होंने ‘मगध’ के रूप में एक ऐसी कृति दी जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है । आज यह काव्य-संग्रह अधिक प्रासंगिक है । उनकी मृत्यु के 30 वर्ष पूर्ण होने के
श्रीकान्त वर्मा |
“कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शान्ति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाये रखना है, तो,
मगध में शान्ति
रहनी ही चाहिए ।”
श्रीकान्त वर्मा के ‘मगध’ में संग्रहीत कविताएँ राजनीतिक विद्रूपताओं को ध्यान में रखकर लिखी गई कविताएँ हैं । यह आपातकाल का समय था जब देश के सभी बड़े नेताओं, कार्यकर्ताओं को बिना पूछे, बताए जेल में डाला जा रहा था । यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो आपातकाल फिर आ गया है । ‘सामाजिक आपातकाल’ जो और भयावह है । जहाँ ‘टोकने’, ‘चीखने’ की बात तो दूर ‘न’ कहने की भी आज़ादी नहीं है । क्योंकि :-
“यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो ।”
मैं सन्न हूँ । मेरे सामने समाचार पात्र है जिसके मुख्य पृष्ठ पर ख़बर छपी है ‘ई-रिक्शा चालक की बर्बर हत्या’ की ।
भावना |
“कोई भी जगह नहीं रही
रहने के लायक
न मैं आत्महत्या कर सकता हूँ
न औरों का खून ।”
यानी, विवशता का चरम । समस्याओं के पहाड़ । जहाँ कुछ समझ नहीं आता । रूह काँप उठती है – अख़बार के पन्ने पलटने में डर लगता है । क्योंकि फ़र्क पड़ता है । तकलीफ़ होती है । खून उबलता है । आँसुओं की धारा बह निकलती है । किन्तु समाधान का कोई सिरा नहीं दीखता । स्थितियाँ उलझी हुई हैं, भयावह हैं क्योंकि हम स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचने का सामर्थ्य कहीं खो आए हैं । ‘सही’ को ‘सही’ और ‘ग़लत’ को ‘ग़लत’ कहने के परिणाम कल्पना से परे हो सकते हैं । समस्या यह है कि स्थितियों से सीधे साक्षात्कार करने का सामर्थ्य नहीं बचा है । यह प्रश्न जहाँ लगभग 30 वर्ष पहले श्रीकान्त वर्मा के सामने था वहाँ आज और भी भयावह होकर हमारे सामने खड़ा है । श्रीकान्त की कविता का एक अंश है :-
“मेरे सामने समस्या है
किसको किस नाम से
पुकारूँ
आईने को आईना कहूँ
या
इतिहास ?”
आज समाज में बढ़ती क्रूरता, हिंसा, अमानवीयता कहीं कोई ‘स्पेस’ नहीं छोडती कि ‘जो है’ उसे वही कहा जा सके ; उसे उसी नाम से पुकारा जा सके । यदि ऐसा किया तो परिणाम किसी भी रूप में भुगतने पड़ सकते हैं । हाथ धोना पड़ सकता है – शांतिपूर्वक जीवन से, पेट भरने से, नौकरी से, साँस लेने से, जीने से । निश्चित ही हम इतने भी संवेदनहीन नहीं हुए कि ‘स्व’ के लिए संवेदनाएँ न रह गई हों और हम मरने को तैयार हों । इसलिए हम जी रहे हैं – ‘मुर्दा जीवन’ । जहाँ हम संवेदनशून्य हो रहे हैं ‘पर’ के लिए । जहाँ हमें अब कुछ उत्साहित नहीं करता बस, यूँ ही निकल जाता है । बची खुची संवेदनाओं की खुरचन यह भाव उत्पन्न करती है कि :-
“मैं एक अदृश्य दुनिया में, न जाने क्या कुछ कर रहा हूँ ।”
जहाँ श्रीकान्त वर्मा की ही मनः स्थिति में हम स्वयं को पाते हैं :-
“मैं अनुभव कर रहा हूँ
सब कुछ
बस छूकर
चला जाता है ।”
अब ? प्रश्न कौंध रहा है । मस्तिष्क में खलबली मची है । असहाय महसूस हो रहा है । लेकिन यह कोई उपाय तो नहीं । उपाय तो ढूँढना ही होगा । आवाज़ उठानी ही होगी । “अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे गढ़ और मठ” । गढ़ और मठ उन क्रूर ताकतों के जो हिंसा के बल पर मुँह बंद कर देना चाहते हैं । जो केवल अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं । निकालना होगा कोई मार्ग जो यह सिखा सके कि ‘मुँह बंद कर देना’ मात्र ही उपाय नहीं । जो सिखा सके कि स्वार्थ से बढ़कर भी कुछ है । जो रंचमात्र संवेदना जगा सके । जो मनुष्यता का पाठ पढ़ा सके । जो जानवर होने से बचा सके । जो दिखा सके वह ‘तीसरा रास्ता’ जो आज के ‘मगध’ से होकर नहीं जाता । जो ले जा सके हमें वहाँ जहाँ हम ‘रामदास’ होने को विवश न हों । जहाँ एक दूसरे के सुख-दुःख के हम भागी हो सकें । जहाँ प्रेम, सौहार्द्र, अपनापा हो । जहाँ हम कोशिश करें ‘हरेक का होने की’ । जहाँ ‘विचारों की कमी’ न हो । जहाँ ‘हस्तक्षेप’ कर सके हर जाति, वर्ग आदि से जुड़ा वह व्यक्ति जिसे ‘मुर्दा’ मान लिया गया है । ताकि, कोसल सिर्फ ‘कल्पना में गणराज्य’ न रह जाए ।
भावना
शोधार्थी (हिंदी)
भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
दिल्ली
वाह , क्या लिखा है ! बदलाव लाने की दिशा में एक और कोशिश । शुभकामनाएं :)
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया |
हटाएं