दो वर्ष पूर्व जब वह इस कार्यलय में आई थी तब तो सभी का बहुत सहयोग था। ऐसे सहकर्मी पाकर वह अपने को धन्य समझने लगी थी।
पग–पग कृष्णा
हैलो हन्नीं–बन्नीं… मालिनी के पर्स में रखा मोबाइल घनघनाया। मोबाइल स्क्रीन पर महत्वपूर्ण नंबर देखते ही वह कमरे से बाहर निकल गई। उस समय कमरे में वरिष्ठ व कनिष्ठ अधिकारियों के मध्य कुछ बातें हो रहीं थीं।दो मिनट के बाद मालिनी के लौटते ही कमरे का माहौल गर्म हो गया।
कुछ समझ नहीं आता आपको…! हर समय अपनी ही मनमानी…! बड़ों का लिहाज ही नहीं…! कब
डॉ दीपा गुप्ता |
भावनाएं बवंडर सी घूमती रहीं।तकीये पर सिर पड़ते ही आँखों के कोर रिसने लगे। धार सी फूट पड़ी। कभी–कभी धड़कनें भी सिसक उठती। यह पहली बार तो नहीं था। बचपन से ऐसा ही तो होता रहा है फिर इतना दुख क्यों? मालिनी खुद को समझाने लगती है।
दो वर्ष पूर्व जब वह इस कार्यलय में आई थी तब तो सभी का बहुत सहयोग था। ऐसे सहकर्मी पाकर वह अपने को धन्य समझने लगी थी। अब वह यह नहीं समझ पा रही है कि क्या हुआ इन दो वर्षों में जो कुछ लोग इसके इतने खिलाफ हो गये। कभी किसी से मतभेद भी नहीं हुआ। जो कुछ दिन पहले तक हमदर्द थे वे अब तल्ख मुस्कान बिखेरने लगे हैं।पिछले साल तक तो सब कुछ ठीक ही था। जब से एम।डी।साहब ने नये वर्ष की पार्टी में पूरे कर्मचारियों के समक्ष मालिनी की तारीफ करते हुए कहा था कि हमारी कंपनी को ऐसे ही होनहार की आवश्यकता है। तभी कुछ के चेहरे के रंग उड़ गये थे और मालिनी पर व्यंग तीर छूटना शुरु हो गया था ।
कल ही की तो बात है कितनी खुश थी ऑफिस से घर लौटकर। चहक–चहक कर अपने ऑफिस की पार्टी की बातें अपने पति को बता रही थी कि किस तरह वह पूरी पार्टी की केंद्र बिंदू बन गई थी। उसने शेरों–शायरी और चुटकुलों से समा बाँध दिया था। पार्टी में बड़ी–बड़ी हस्तियों के समक्ष एम।डी। साहब ने उसकी खुल कर तारीफ की।कुछ लोगों का चेहरा तो उस समय भी उतर गया था पर वे तो बनावटी हँसते चेहरे से ही एम। डी। की हाँ–में–हाँ मिला रहे थे।
कितना अंतर है कल की शाम और आज की शाम में। जहाँ कल खिली–खिली हँसती आँखें व चहकते कदम दहलिज के अंदर आए थे वहीं आज सब कुंठित मुरझाए …। अब तो वरिष्ठ अधिकारी मालिनी की छोटी–छोटी बातों को भी ऊपर तक ले जाते हैं और गंभीर मसला बनाकर पेश करते हैं।उसका परिणाम यह होता कि चंचल व सरल मन की करनी आँसू बन निकल पड़ती। रोती आँसू पोंछती फिर वैसी की वैसी। अपनी प्रवृत्ति से मजबूर। अपनी ही धुन व कामों में रमीं रहती। सहकर्मियों संग बैठ घंटो गप्पे नहीं मारती। छह घंटे की नौकरी में खाना के अलावा दो बार चाय पीने कैंटिन नहीं जाती।
आज आँसू की धार से कृष्णा याद आ रहा है क्योंकि पहली बार कृष्णा के ही कारण उसकी आँखों में आँसू आये थे। उस समय वह प्राइमरी में पढ़ रही थी। कक्षा में मास्टर साहब ने उसकी कॉपी उठाकर सभी को दिखाते हुए कहा था कि ऐसी ही लिखावट में लिखा करो।कितनी सुंदर लिखावट है. साफ–साफ अक्षर व रंगीन शीर्षक शाबास मालिनी। मालिनी पुलकित हो उठी थी। बाल–मन चहक–चहक इतराने लगा था। जब मालिनी खेल पिरीएड के बाद वापस आयी तब देखा कि उसकी कॉपी के पन्ने टुकड़े–टुकड़े होकर जमीन पर बिखरे पड़े थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे? बस वहीं फफक–फफक कर रोने लगी। बाद में तहकीकात कर मास्टर जी ने कृष्णा की हथेली लाल कर दी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कृष्णा ने ऐसा क्यों किया? उस दिन वह उससे कट्टी हो गयी थी।
फिर याद आती है स्वाति जिसने मालिनी की पिंक कलर की परी रानी वाली फ्रॉक पहने देखकर उसमें च्युंगम चिपका दिया था। उस दिन भी तो वह रोई ही थी। कॉलेज की रंगीन यादों के बीच वह नेहा को भी कैसै भूल सकती है जिसने मनोज के साथ उसका नाम जोड़कर हंगामा खड़ा कर दिया था।मनोज का मालिनी से बात करना उसे चुभता था।जिसका खामियाजा मालिनी को आँसू से चुकाना पडा. था।
मालिनी ससुराल में अपनी बड़ी ननद की पसंद से नहीं आई थी।इसका भान उसे ससुराल में कदम रखते ही लग गया। उसकी मनपसंद लाल चुनरी को देखते ही उसने कहा था कि इतने हल्के किस्म की चुनरी क्यूं ली? घुंघट की ओट में छिपा मुस्काता चेहरा जहाँ मन सावन की फुहार सा सराबोर था वहीं ननद की ये बातें जेठ की झुलसाती लू सी लगी थी। वह हर समय मालिनी का पहनावा उसके बनाये खाने के बारे में कुछ–न–कुछ नुख्श निकालती ही रहती। मालिनी को लगता कि काश ये जल्दी ससुराल चली जाती तो बला टलती पर उसका अंतकण कहने लगा था कि कृष्णा कभी नहीं मर सकता वह जीवन में सदैव किसी–न–किसी रूप में रहेगा ही।
मालिनी के पति रेलवे के अधिकारी हैं। वे लोग रेलवे कॉलोनी में ही रहते हैं। वहाँ सुबह पति व बच्चों के जाने के बाद सभी औरतों की अलग ही दुनिया बन जाती है।शॉपिंग किट्टी पार्टी लेडिज क्लब बस यही सब चलता रहता है। मालिनी को वो दुनिया रास नहीं आई और उसने एक दफ्तर में काम करना शुरु कर दिया। कुछ लोग उसके कठिन परिश्रम की भरपूर प्रशंसा करते मालिनी को अच्छा लगता। वहीं किसी के मुख से यह भी सुनने मिला कि कैसी है? कैसे बच्चों को छोड़कर काम पर चली जाती है? मुझसे तो बिलकुल ही छोड़ा नहीं जाता! मेरे लिए तो मेरा परिवार ही जीवन है। ऐसी वातें मालिनी को शूल सी चुभती फिर कृष्णा को याद कर शांत हो जाती। मालिनी अपने जीवन में कृष्णा को धीरे–धीरे आत्मसात करते हुए उच्च मुकाम हासिल कर रही है। लोगों की सराहना बच्चों का प्यार व पति का साथ सदा उसे प्रेरित करता रहता है। जब तालियों की गड़गड़ाहट उसे रोमांचित करती तब उसकी नज़र कृष्णा को भी खोजती जो मिल ही जाताा। जिसकी करतल ध्वनि अंदर से नहीं निकलती।कृष्णा के कई रूप सामने आते रहे। मालिनी कभी अनदेखा कभी सामना करती हुई आगे बढ़ती रही है।जैसे कुत्ता भौंके हजार हाथी चले बाज़ार।
सभी कृष्णा एक–एक कर मानस पटल पर आते रहे। सभी को परे ढ़केलती हुई मालिनी उठ खड़ी हुई। कृष्णा के दिये आँसू आँखों के कोरों से बहकर सूख गये हैं। वास बेसिन के पास जाकर नल खोल ठंडे पानी के छींटे चेहरे पर मारने लगी। हाथ फेरकर आँसू धो डाले। सिर ऊपर करते ही अंडाकार आइने में चेहरा दिखा। आँखें निरीह होठ बेजान।उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। नज़रों से नज़रें मिला ज़बरन मुस्काई। आशा की झिलमिल आभा फिर चमकी।बरामदे में रखे फूलों के गमले आइने में दिखे। मुरझाए से लगे। गमलों के पास पहुंच गई। पौधों में पानी डालते हुए पत्तियों को सहलाने लगी। पत्तियों को खिला–खिला हरा–भरा देख मुस्काने लगी।
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रचनाकार परिचय -डॉ दीपा गुप्ता
शिक्षा– एम.ए. ,एल.एल.बी,बी एड,पीएचडी।
संप्रति– हिंदी प्राध्यापिका एम।वी।आर। डिग्री कॉलेज विशाखपट्टणम–26
प्रकाशित– १.पवन… एक झोंका काव्य-संग्रह 2014, २.मृगतृष्णा कहानी संग्रह2016
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