नन्ही-सी शबाना मेरे पड़ोस वाले फ़्लैट में अपने रिश्तेदारों के साथ रहती है। उसके माता-पिता की तो खबर न थी, पर यह ज़रूर समझ रहा था कि उसके भाई-बहन आधा-दर्जन से भी ऊपर थे।
विरासत में मिली ख़ुशबू और रोशनी
लेखक: ग़ुलाम नबी मुग़ल
अनुवाद: देवी नागरानी
नन्ही-सी शबाना मेरे पड़ोस वाले फ़्लैट में अपने रिश्तेदारों के साथ रहती है। उसके माता-पिता की तो खबर न थी, पर यह ज़रूर समझ रहा था कि उसके भाई-बहन आधा-दर्जन से भी ऊपर थे। शबाना की आँखों में गज़ब की
ग़ुलाम नबी मुग़ल |
एक दिन मैंने उसे इसी हालत में खड़े देखकर पूछ लिया-
‘बेबी, तुम क्या देख रही हो?’
‘मैं बेबी नहीं हूँ। मेरा नाम शबाना है।’
‘मुझे तो मालूम नहीं हैं।’
‘आप रोज़ आते हो, जाते हो। आपने कभी पूछा ही नहीं?’
‘यह मेरी ग़लती है। अब बताओ, मुझे रोज़ क्यों देखती रहती हो?’
‘ऐसी तो कोई ख़ास बात नहीं। आप इस प्लाज़ा में रहते हो, उस हिसाब से आप अंकिल हो। क्या अंकिल को देखना नहीं चाहिए?’
‘नहीं यार, तुम ज़रूर देखो।’
‘आपने बहुत सुंदर अँगूठी पहन रखी है।’
मैंने अँगूठी को देखा-‘हाँ मेरी शादी की है।’
‘आपने शादी भी कर ली?’
‘अरे यार, मैंने एक नहीं दो शादियाँ की हैं।’
‘वेरी गुड।‘ वह पहली बार मुस्कुराई।
‘दो शादियाँ, दो पत्नियाँ।’
‘फिर अँगूठी एक क्यों है? दो पहनो ना!’
मैं हँस दिया।
‘तुम्हारी बात ठीक है। कोशिश करूँगा कि दो पहनूँ।’
‘अंकिल, मैं हमेशा सही बात करती हूँ।’
यह हमारी पहली विस्तारपूरक मुलाक़ात थी।
एक दिन प्लाज़ा का ट्रांसफ़ार्मर ख़राब हो गया। बहुत सारे लोग अपने-अपने फ़्लैट्स से बाहर निकल आए। शबाना भी कुछ बच्चों के साथ कंपाउंड में खड़ी थी। कारीगर वहाँ मरम्मत कर रहे थे। शबाना ने मुझे देखा तो धीरे-धीरे आकर मेरे पास खड़ी हो गई। वह मुझे कुछ ज़्यादा याद न थी, पर उसे देखा तो उसकी आँखों में तैरते सवालों की याद आ गई।
‘आप अँधेरे में क्यों खड़े हैं, अंकिल?’
‘तुम क्यों खड़ी हो?’ मैंने सवाल किया।
‘आपके पास तो जेनरेटर है। चलाइए और भीतर जाकर आराम कीजिए।’
‘जेनरेटर की बिजली, पंखों से गरम हवा देती है।
‘आपका मतलब है, ए॰सी॰ नहीं चलता।’
‘बिल्कुल सही!’
‘फिर पंखे के नीचे बर्फ़ रखिए या बर्फ़ के परों वाले पंखे लगाइए। आप तो अमीर हैं, सब-कुछ कर सकते हैं।’
‘शबाना, बर्फ़ के परों वाले पंखें कहाँ मिलते हैं, बताओ तो ले आऊँ?’
‘मिल जाएँगे। न मिलें तो बनवा लें। पर हमारे घर में लगे पंखे भी तो गरम हवा देते हैं, हमें तो गरमी नहीं लगती।’
मेरे पास उसकी बातों का कोई जवाब न था; बस मैं हँसने लगा। फिर
वह बच्चों के साथ होते हुए मुझसे दूर हो गई। फ़्लैट्स में रहनेवाले कितने ही मर्द कंपाउंड में खड़े थे। सभी की नज़रें ट्रांसफ़ार्मर और उन पर काम करने वाले कारीगरों पर टिकी हुई थीं।
अभी तक हमारे प्लाज़ा में अँधेरा था। मैं भी नीचे ही खड़ा था। मुझे महसूस हुआ जैसे शबाना अपने हमउम्र बच्चों के साथ हमारे पीछे ही खड़ी थी। उसकी आवाज़ कुछ अलग थी। उसमें कुछ ख़ास बात न थी, पर वह जल्दी-जल्दी बात करती थी।
‘आओ तो अल्लाह साईं से दुआ माँगे कि वे बारिश बरसाएँ, बारिश की बूँदों में छोटे-छोटे बल्ब लगे हों। चारों ओर रोशनी फैल जाए। गरमी भी ख़त्म हो जाए और बदन से भी यह चिपचिपाहट गुम हो जाए।’
‘ऐसी बारिश नहीं बरस सकती।’ एक लड़के ने कहा।
मेरी माँ कहती हैं कि अल्लाह साईं बहुत ताकतवर हैं। वे बारिश बरसाए बिना भी आसमान में रोशनी कर सकते हैं। अल्ला मियाँ की रोशनी को ट्रांसफ़ार्मर और उसे ठीक करनेवाले कारीगरों की भी ज़रूरत नहीं है।’
मैंने गर्दन मोड़कर शबाना की ओर देखा, जो सभी बच्चों को अल्लाह की ताक़त और रोशनी के बारे में विस्तार से सुना रही थी।
देवी नागरानी |
थोड़ी देर में बिजली लौट आई और हर किसी की चिंता समाप्त हो गई और जो भी लोग अपने-अपने फ़्लैट्स से बाहर निकल आए थे, वे भीतर जाने लगे।
दो-तीन दिन के बाद सीढ़ियों में शबाना मिली। मैं एयरपोर्ट की तरफ़ जा रहा था। शाम के पाँच बजे थे। शबाना ने मुझे देखा तो मुस्कुराकर बोली, ‘सलाम अंकिल’, उसके हाथों में रसा (शुर्वा) से भरा हुआ प्याला था और उसके तले एक प्लेट में कुछ रोटियाँ थीं। वह जब मेरे क़रीब से गुज़री तो रुक गई।
‘अंकिल, आपने इत्र लगाया है?’ उसने लंबी साँस ली और मैं अपनी साफ़ कमीज़ को देखने लगा।
‘हाँ! तुम्हें इत्र पसंद है?’
‘मुझे तो बहुत अच्छा लगता है।’
‘मुझे भी अच्छा लगता है।’ मैंने कहा-‘पर तुम नीचे देखो, रसा गिर रहा है।’
शबाना ने अपने हाथों में थामे बर्तन को देखा और फिर तुरंत बर्तन को सँभाला और चलते हुए कहने लगी, ‘परवाह नहीं है, ऐसे बर्तनों में तो चीषें गिरती रहती हैं।’
बाद में कई दिन वह मुझे नज़र नहीं आई। पूछताछ करने पर पता चला कि शबाना को मुद्दे का बुखार हो गया है। तब शाम मैं उसे देखने गया। उसके छः सात भाई-बहन मौजूद थे। शबाना की माँ भी खड़ी थी, जिसके चेहरे पर ख़ून के नाम पर कुछ भी न था और बदन भी उसकी उम्र के लिहाज से कुछ छरहरा लग रहा था, पर उसकी आँखें शबाना जैसी थीं।
मैंने शबाना की पेशानी को चूमा और तब छोटी इत्र की शीशी उसे दी। शबाना की आँखों में चमक लौट आई और उसने धीरे से कहा-‘अंकिल, थैंक्यू!’
‘भाई साब, अजीब लड़की है। इसके जहन और आँखों में ख़ुशबू और रोशनी भरी हुई है।’ शबाना की माँ ने कहा-‘पगली है, जाने कैसी बातें करती है। बड़ी ज़हीन लड़की है, बड़ी होकर न जाने क्या करेगी?’
‘यह बहुत अच्छी लड़की है।’ मैंने कहा-‘इससे ख़ुशबू और रोशनी मत छीनना। ख़ुशबू और रोशनी के साथ ही यह जी पाएगी।’
शबाना की माँ ने मेरी ओर देखा और आँखें नीची कर लीं। मैं भी उसी वक़्त वापस लौट आया, पर महसूस किया कि उसकी आँखों में भी शबाना जैसी तमन्ना थी और वही प्रतीक्षा। रोशनी धीमी और ख़ुशबू शायद उड़ गई थी।
लेखक परिचय:ग़ुलाम नबी मुग़ल - जन्म: 12 मार्च 1944 हैदराबाद में। पेशे से शिक्षा के साथ जुड़े हुए रहे, जहां से वे 1992 में सेवानिवृत्त हुए। लारकाणा, सिंध में एक शायर की हैसियत से मुकाम हासिल किया। उनकी पहली कहानी ‘तिल’ के नाम से 1965 में छपी, और उनका पहल कहानी संग्रह ‘नया शहर’ 1964 में में प्रकाशित हुआ। उनके शायरी व कहानियों के 18 संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके कुछ संग्रह हैं- नया शहर (1964), रात के नैन (1969), रात मेरी रूह में (1979), साठ, सत्तर, अस्सी (1988), दुआ के पैर (2002), मैं कौन हूँ (2004); उनका पहला उपन्यास 'ओराह' (1995) सिन्धी के बेहतरीन नॉवेल के तौर पर पुरुसकृत है। दूसरा उपन्यास 'कोहरे भरी रातें और रोलाक’ (1997), मुझे सांस लेने दो (2002-पुरुसकृत), वतन व वेला (2008-पुरुसकृत) और हुम्माह मंसूर हज़ार (2012) में प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त फ्रेंच भाषा और पंजाबी भाषा के कुछ उपन्यासों का सिन्धी में अनुवाद भी किया है। उन्हें अपने संग्रह ‘रात मेरी रूह’ में पर इंस्टीट्यूट ऑफ़ सिंधोलॉजी जामशोरो की ओर से बेहतरीन कहानीकार का अवार्ड मिला। पता-ए-45, मस्जिद रोड, गुलिस्तान-ए-साजिद, हैदराबाद सिंध (पाकिस्तान)
behtreen, bahot sundar
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