हिन्दी भारत का परिवार है विश्व मे भाषाओं की , जब लगी थी मेला । दूर -दूर देशों से आकर , बैठे थे, गुरु संग चेला । अपने -अपने धर्म गंर्थ की । हिन्दी कर रहे थे खेला । तभि हिन्दी ! हिन्दू के लाला । पहूँचे बीर अकेला । बंद्धञ्जिली कर , करि विनय । तो मिली पल - भर की ! उन्हें समय । माँ की ममता ! पिता का गौरव ! दिखाने का , अवसर मिल गया । हर ह्रदय ! हर्षित हुआ ! मन पावन - पावन खिल गया ।
हिन्दी भारत का परिवार है
विश्व मे भाषाओं की ,जब लगी थी मेला ।
दूर -दूर देशों से आकर ,
बैठे थे, गुरु संग चेला ।
अपने -अपने धर्म गंर्थ की ।
कर रहे थे खेला ।
तभि हिन्दी ! हिन्दू के लाला ।
पहूँचे बीर अकेला ।
बंद्धञ्जिली कर , करि विनय ।
तो मिली पल - भर की ! उन्हें समय ।
माँ की ममता ! पिता का गौरव !
दिखाने का , अवसर मिल गया ।
हर ह्रदय ! हर्षित हुआ !
मन पावन - पावन खिल गया ।
नाज किये , कर रहे है लोग ।
भारत की , इस गरिमा पर ।
लाखों भाषाएं ! झुकी हुई है ।
हिन्दी की इस , महीमा पर ।
हिन्दी हमे , आदर्श सिखाती ।
हिन्दी ! ममता बरसाती है ।
हिन्दी छोटी सी, गुङीया बनकर ।
फूलों सी , मुस्काती है ।
हिन्दी ह्रदय का , अंग है ।
मानवता का , उमंग है ।
प्यार प्रेरणा ! मिलती जिससे ।
हिन्दी उसका , पावन रंग है ।
हिन्दी हमारी , सांसों मे ।
आने - जाने वाले , एक तार है ।
हम भरत वंशी कहते ।
हमे ! हिन्दी से इतना प्यार है ।
चांद - तारों से , चमकने वाले ।
हिन्दी के हर , अलंकार है ।
दुनियाँ जिसे , श्रृंगार कहती है ।
ये भारत का , परिवार है ।
हिन्दी ! भारत का परिवार है ।
मै ! कौन हूँ ?
मै ! कौन हूँ ?मम्मी से , मैंने पूछा ।
पापा से , मैंने पूछा ।
दादी से , मैंने पूछा ।
दादा से , मैंने पूछा ।
दीदी से , मैंने पूछा ।
भैया से , मैंने पूछा ।
गाँव - नगर , टोला के ।
मैया से , मैंने पूछा ।
मै ! कौन हूँ ?
मम्मी बोली , तू लाल मेरा ।
शैलेश कुमार |
दादा - दादी , मिलकर बोले ।
तू है , प्यारा पोता ।
भैया बोले , अनूज मेरा ।
दिदी बोली , तु भाई ।
गाँव नगर के , मैया बोली ।
तू है मेरा , परछाई ।
अंततः से , अबाज आया ।
ये सब मेरी , समझ न आया ।
मुझे पता नहीं , कौन हूँ मै ?
क्यूं इतना ? अब-तक ,मौन हूँ मै ।
मै ,मै जब , मै से पूछा । मै कौन हूँ ?
ये दुनियाँ - जमाना मे ! मै मौन क्यूं हूँ ?
मै ! मै को , जब दिया जबाब ।
खिलने लगा , बनकर गुलाब ।
अंधेरे मे , जलने वाले ।
दिया - बाती , प्रकाश हो तुम ।
दुःख को सुखमय , करने वाले ।
प्रगति , उन्नतिशील , उल्लास हो तुम ।
दुर्गंध दूर , करने वाले ।
सौरभ और , सुगंध हो तुम ।
अन्याई से , लङने वाले ।
प्रखर और , प्रचंड हो तुम ।
सरिता के शीतल , जल हो तुम ।
वनों के पावन , फल हो तुम ।
बृद्ध ! मात - पिता की आंखें ।
ज्योति , लकड़ी , सम्बल हो तुम ।
धरती के , संतान हो तुम ।
बहनों के , अरमान हो तुम ।
सरहद पे , लङने वाले ।
बीर पुरुष , जबान हो तुम ।
प्यारो के प्यारे , आंखों मे ।
बहने वाले , नीर हो तुम ।
खट्टी - मिठ्ठी , कुछ यादों मे ।
तङपाने वाले , पीर हो तुम ।
सजनी की , माथे की बिन्दीया ।
और सोलह , श्रृंगार हो तुम ।
पतझङ की , ऋतु वसंत ।
और मौसम , बहार हो तुम ।
वेरंगी , इस चादर का ।
अनमोल - अनोखी , रंग हो तुम ।
बंजर - बिहङ , मेरे मन का ।
उभरता हुआ , उमंग हो तुम ।
ज्वाला के , तरंग हो तुम ।
नदी - धारा के , संग हो तुम ।
आशा - निराशा ! मजबूरी ,
हर किरण की नई , एक अंग हो तुम ।
रचनाकार परिचय
आचार्य - शिष्य शैलेश कुमार (कुशवाहा )
पिता - प्रकाश माहतो (कुशवाहा )
ग्राम - सौर - वारिसलीगंज -नवादा - बिहार
मोo - 8384006927
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