हिंदी तथा अंग्रेजी के बीच स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की जंग जारी थी। मैं चाह रही थी कि कम-से- हिन्दी अंग्रेजी संवाद हिन्दी अंग्रेजी संवाद कम इस बार तो हिंदी जीत जाए, पर नहीं, हर बार की तरह इस बार भी अंग्रेजी का पलड़ा ही भारी दिखाई दे रहा था। और हो भी क्यों न, अंतरराष्ट्रीय भाषा के आगे राष्ट्रीय भाषा की कोई औकात है
हिंदी अंग्रेजी संवाद
आज फिर हिंदी तथा अंग्रेजी के बीच स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की जंग जारी थी। मैं चाह रही थी कि कम-से-
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मेरी इस दशा की जिम्मेदार तू है तू, तुझे मैंने यहां से नहीं भगाया तो मेरा नाम भी हिंदी नहीं। अरे, तू भी कोई भाषा है, वैज्ञानिकता का तो नामोनिशान नहीं है तुझमें। कहीं बट है, तो कहीं पुट है, तो कहीं कट है। अरे, मैं तो जैसी लिखी जाती हूं, वैसी ही पढ़ी जाती हूं - कलम तो कलम और कमल तो कमल। और सचमुच हिंदी के इस जवाब ने अंग्रेजी का मुंह बंद कर दिया। वह बिल्कुल शांत हो गई। अंग्रेजी की चुप्पी देख हिंदी की गर्दन गर्व से तन गई और वह अकड़ कर खड़ी हो गई। परंतु, यहीं हिंदी मात खा गई, अंग्रेजी चुप नहीं थी बल्कि हिंदी को मात देने के लिए उसकी कमजोरियों के मद्देनजर सोच-विचार कर रही थी। थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात अंग्रेजी ने जो बोलना शुरू किया, उसे सुन हिंदी के तो होश ही ठिकाने आ गए। अंग्रेजी ने कहा कि मेरे शब्दकोश में विदेशी शब्द हैं तो क्या हुआ पर मैं तो किसी विदेशी भाषा की दास नहीं, बल्कि मैंने तो तुझ जैसी समर्थ और वैज्ञानिक भाषा को अपना दास बना कर रखा हुआ है। लाख कोशिशों के बाद भी तू अपना राष्ट्रीय स्वरूप आज तक प्राप्त नहीं कर पाई है। तू अब तक संपूर्ण भारतवर्ष की संपर्क भाषा भी नहीं बन सकी है जबकि मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना वर्चस्व कायम किया है। अरे मेरी बदौलत ही तेरे देशवासी सूचना तकनीक के क्षेत्र में इतना आगे आ पाए हैं, जबकि तुझे जानने का दम भरनेवाले तो अच्छी नौकरियों के लिए अपने ही देश में दर-दर भटकते हैं। तेरा-मेरा क्या मुकाबला? हिंदी क्या बोलती बेचारी टुकुर-टुकुर बस अंग्रेजी का मुंह ताक रही थी। जो गर्दन थोड़ी देर पहले ही गर्व से तनी थी अब धीरे-धीरे नीचे की तरफ झुकने लगी थी। अंग्रेजी ने आगे बोलना शुरू किया, सुन, तू मुझे यहां से क्या भगाएगी। पहले अपनों के दिल में तो अपनी जगह पक्की कर, फिर मुझे भगाने के सपने देखना। तेरे अपने ही जब भरी बाजार में तुझ पर कीचड़ उछालने से नहीं चूकते तो इसमें भला मेरा क्या दोष? याद कर, तेरे ही देश के एक प्रतिनिधि ने भरी सभा में कहा थी कि हिंदी के पास अंग्रेजी की तरह रैट तथा माउस जैसे उपयुक्त शब्द नहीं है, और उन्होंनें भी मुझे तुझसे ज्यादा श्रेष्ठ्र साबित किया था। जरा अपनी भाषा के पत्रकारों को देख, हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद उन्हें अंग्रेजी के पत्रकारों के मुकाबले कम वेतन और सुविधाएं दी जाती हैं। तेरे यहां की भाषाई अकादमी में भी कब तुझे जानने-समझने वालों का वर्चस्व रहता है? अब बोल, तेरी बोलती क्यों बंद हो गई? इतने सारे आरोपों के बाद तो हिंदी के पास सचमुच कुछ बोलने को नहीं बचा था। अपनों के चीरहरण से नंगी हुई हिंदी ने सोचा जब अपना ही सिक्का खोटा है तो दूसरों को दोष देने से क्या फायदा? और यही सोच वह अंग्रेजी से नजरें चुराती हुई झट हिंदी दिवस की फाइल में जा घुसी। मैंने भी सोचा चलो साल में कम-से-कम एक बार ही सही, हमारी इस भाषा के बारे विचार तो किया जाता है।
- तरु श्रीवास्तव
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