आधुनिक हिन्दी कविता उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है जो आधुनिकता के सारे शोर शराबे के बीच हिन्दी भाषा और हिन्दी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप-बह रही है। असल नई कविता ऐसी जानी पहचानी समकालीन कविता है जो सत्य को कसौटी पर कसने की मांग भी करती है।
आधुनिक कविता के गुण दोष
आधुनिक कविता परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण करने वाली कविता है ।प्रत्येक भाषा की अपनी निजस्व छन्दोयोजनाएँ और शैलियाँ हैं। पुरातन हो या नूतन, यदि काव्यगुण सुरुचिपूर्ण, उपादेय, साहित्यिक मूल्यबोध-संपन्न और मनोहारी हो तो कविता कालजयी और चिरन्तन बन सकती है । कविकुलगुरु कालिदास ने ' मालविकाग्निमित्र '- नाटक में यथार्थ रूप से कहा है :-
“ पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते
मूढ़ः पर-प्रत्यय-नेय-बुद्धिः ॥
कालिदास का कहना है : पुरातन होने के नाते सारे काव्य उत्कृष्ट हैं - ऐसी कोई बात नहीं और नूतन होने के नाते सब कुछ निकृष्ट है - ऐसी बात भी नहीं । विवेकी विज्ञ लोग पुरातन और नूतन वस्तुओं का अच्छी तरह अनुशीलन करके अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण करते हैं । परन्तु मूढ़ व्यक्ति स्वयं यथार्थ रूप से परख नहीं पाता और दूसरों की बुद्धि से परिचालित होता है।
हिन्दी के कतिपय साहित्यसेवियों का यह भी विचार है कि आधुनिक कविता सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती।विचार यह है कि 'मधुर कोमलकांत पदावली' जिस कविता में न हो वह भी कोई कविता है! कविता तो
वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो 'मधुर अथच कान्तपदावली द्वारा अलंकृत हो। आधुनिक कविता में अधिकतर ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जो शुद्ध हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते हैं। और यही कारण है कि आधुनिक कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य और प्रसाद उसमें नहीं पाया जाता।
अगर हम विषय वस्तु की बात करें तो केवल आधुनिक विषयवस्तुओं को अपनाने से आधुनिकता नहीं बनती । समय था, संस्कृत-ओड़िआ आदि भाषाओं के साहित्यों में आलंकारिक युग मुख्य रूप से विदग्ध काव्य-पिपासु जनों का आमोद-दायक लगता था । तत्कालीन कवि-लेखकों की कृतियाँ समय के विचार से उसी काल में "आधुनिक" कही जाती थीं । उसी समय का युग पाण्डित्य-प्रदर्शन का युग था । समयानुसार साहित्य-रुचि भी बदलती रहती । आजकल की आधुनिक और अत्याधुनिक काव्य-कविताओं में दुर्बोधता, भाव-पक्ष की जटिलता, रस-न्यूनता आदि सांप्रतिक-रुचि-सम्मत हो गई हैं । युग-रुचि के अनुसार साहित्य की सर्जना चलती रहती है । कवि-लेखक चाहें तो अपनी नवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा से नयी दृष्टिभंगी लेकर एक नये युग का सूत्रपात कर सकते हैं । संस्कृत साहित्य में कालिदास के बाद 'किरातार्जुनीय'-महाकाव्य के रचयिता भारवि अपनी काव्य-रचना-शैली की स्वतन्त्र पहचान दिखाकर एक नव्य युग के प्रवर्त्तक बने ।किसी पदावली की कोमलता, कान्तता, 'मधुरता का बहुत कुछ सम्बन्ध, संस्कार और हृदय से है। इस अवसर पर यह कहा जा सकता है कि कोमलता, कान्तता इत्यादि का सम्बन्ध हृदय या संस्कार से नहीं है, वास्तव में उसका सम्बन्ध पदावली से ही है। हाँ, उसके आदृत या अनादृत होने का सम्बन्ध निस्सन्देह संस्कार और हृदय से है।
आधुनिक कविता की विशेषताएं -
कविता उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह एक तो प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है। अर्थात् प्रयोग-द्वारा कवि अपने सत्य को अधिक अच्छी तरह जान सकता है और अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकता है।आधुनिक कविता की निम्न विशेषताएं इंगित की गईं हैं।
1. आधुनिक कविता वाद-मुक्ति की कविता है।किसी भी सिद्धांत, मतवाद, संप्रदाय या दृष्टि के आग्रह की कट्टरता में फँसने को तैयार नहीं है।
2. आधुनिक कविता मध्यवर्गीय व्यक्ति-मन की कुंठा-निराशा को, औद्योगिक नगरों की असंगति- भरी सभ्यता को उसकी तीव्रता में पकड़ती हैं, तो दूसरी ओर उन्मुक्त प्रकृति या ग्राम-जीवन की किसी छवि, विषमता या व्यथा को व्यंजित भी करती है या प्रकृति और ग्राम्य-जीवन के बिम्ब लेकर अनुभूति या सौंदर्य का कोई स्वर उभारती है।
3. कथ्य के प्रति नयी कविता में स्वानुभूति का आग्रह है। नया कवि अपने कथ्य को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जिस रूप में उसे वह अनुभूत करता है।
4. आधुनिक कविता में समाज की मृत मान्यताओं और रूढि़यों से घिरा यह व्यक्ति अपने को दीन-हीन अकेला, कुंठित, पीड़ित और उपेक्षित समझता था की आशाओं, निराशाओं, आस्थाओं, अनास्थाओं की अभिव्यक्ति हुई है।
5. आधुनिक कविता में दो तत्व प्रमुख हैं- अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि। वह अनुभूति क्षण की हो या एक समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो या निराशा की, अपनी सच्चाई में कविता के लिए और जीवन के लिए भी अमूल्य है।
6. आधुनिक कविता का आत्मबोध व्यक्ति सत्य और व्यापक सत्य के बीच एक नया संबंध बनाता है।
7. आधुनिक कविता जीवन और मनुष्यता के बीच की कड़ी है। नई कविता की यथार्थवादी दृष्टि काल्पनिक या आदर्शवादी मानववाद से संतृष्ट न होकर जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है।
8. आधुनिक कविता की भाषा किसी एक पद्धति में बँधकर नहीं चलती। सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग इसमें अधिक हुआ है।
वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है। आधुनिक कविता छन्द के नियम से मुक्त होने के कारण बनावटी एवं दुरूह भाषा से मुक्त है छंद बद्ध कविताओं में प्रायः ऐसी अवस्था प्राय: उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमें शब्दों को तोड़-मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसे शब्द सुविधा के लिए रख देने पड़ते हैं, जो आधुनिक कविता में व्यवहृत नहीं होते। इसलिए कवि उन शब्दों को कविता में रखने के लिए बाध्य होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि उन शब्दों के पर्य्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं, और यदि वे शब्द उन शब्दों के स्थान पर रख दिये जावें, तो किसी शब्द को विकलांग बनाकर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है; परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है।
कवि नये तथ्यों को उन के साथ नये रागात्मक संबंध जोड़ कर नये सत्यों का रूप दे, उन नये सत्यों को प्रेष्य बना कर उन का साधारणीकरण करे, यही नयी रचना है। इसे नयी कविता का कवि नहीं भूलता। साधारणीकरण का आग्रह भी उस का काम नहीं है; बल्कि यह देख कर कि आज साधारणीकरण अधिक कठिन है वह अपने कर्तव्य के प्रति अधिक सजग है और उस की पूर्ति के लिए अधिक बड़ा जोखिम उठाने को तैयार है।आलोचक में पूर्वग्रह हो सकता है; पर कम से कम तर्क-पद्धति का ज्ञान उसे होगा, और उसे वह विकृत नहीं करेगा ऐसी आशा उस से अवश्य की जाती है। श्री नन्ददुलारे बाजपेयी का ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ शीर्षक निबंध तर्क-विकृति का आश्चर्यजनक उदाहरण है। इस प्रकार के आक्षेपों का उत्तर देना एक निष्फल प्रयोग होगा; और हम कह चुके कि निष्फल प्रयोगों का कोई सार्वजनिक महत्त्व नहीं है।
आधुनिक कविता की आलोचना
1. आलोचकों के अनुसार आधुनिक कविता कृत्रिम भावनात्मक सत्य के बरक्स अपने को ही बार-बार तोड़ती नकारती और लांघती जा रही है एवं उसके चलने के क्रम में प्राप्त मानवीय वास्तविकता कहीं खो गई है।
2. आधुनिक कविताओं में ‘आत्मीयता’ का स्पर्श नहीं मिलता है और ये महज ‘रक्तचापहीन पीली पत्रकारिता’ की कविता जान पड़ती हैं । ये कवितायेँ ज्ञात मानवीय सत्य की जगह सपाटबयानी लगती हैं । ऐसी सपाटबयानी ‘‘कल्पित दर्द के रिहटोरिक को तोड़ने का सबसे नाटकीय और तात्कालिक माध्यम बन जाती है।
3. आधुनिक कविता के नए प्रतिमान’ में जो सबसे बड़ा दोष है, वह परिप्रेक्ष्य के खो जाने का नहीं है, बल्कि इतिहास के अदृश्य रह जाने का है।
4. आधुनिक कवितायेँ बिंब, ध्वनियां, रंग ऐंद्रियबोध को गहरा करती हैं, मगर ये नकारात्मक पृष्टभूमि को ज्यादा तरजीह देतीं हैं इन कविताओं पर विचारधाराओ की आंतरिकता को तथ्यबद्ध दायरे से निकालकर अगोचर भावभूमि पर ले जाने का भी आरोप है।
5. नई कविता की रचनाशीलता के केंद्र में व्यतीत होती व्यवस्था और चरित्रों के प्रति एक व्यथा भरा मोह है जो परिवार-समाज के अंतर्विभाजन के कारण पैदा हुआ है लेकिन ये उस समस्या का निदान करने में सर्वथा असक्त हैं । ‘
6. आधुनिक कविता में शिल्प के स्तर पर नए प्रयोगों, नए मूल्यों और मानवीय सम्बन्धों के नए समीकरणों की चिंता अधिक थी जिसका परिणाम - कविता में संकीर्णता, दुरूहता और दुर्बोधता अधिक पाई जाती है ।
7. आधुनिक कविता का विद्रोही स्वभाव उसे सार्वभौमिक न बना कर व्यष्टिकारक बनाता है।
8. शिल्प ,कथ्य ,विषयवस्तु एवं उपादेयता के सन्दर्भ में आधुनिक कविता सरस प्रवाहित नदी की तरह व्यवहार न करके किसी उदण्ड पहाड़ी नाले जैसा व्यवहार करती जान पड़ती है।
कवि-कर्म नितान्त दुरूह है। अलौकिक प्रतिभाशाली कालिदास जैसे जगन्मान्य कवि भी इस दुरूहता-वारिधि-सन्तरण में कभी-कभी क्षम्य नहीं होते। जिनका पदानुसरण करके लोग साहित्य-पथ में पाँव रखना सीखते हैं, उन हमारे संस्कृत और हिन्दी के धुरन्धर और मान्य साहित्याचार्यों की मति भी इस संकीर्ण स्थल पर कभी-कभी कुण्ठित होती है।
आज की आधुनिक हिन्दी कविता उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है जो आधुनिकता के सारे शोर शराबे के बीच हिन्दी भाषा और हिन्दी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप-बह रही है। असल नई कविता ऐसी जानी पहचानी समकालीन कविता है जो सत्य को कसौटी पर कसने की मांग भी करती है। हमें उसका मूल्यांकन करते समय प्रचलित मान मूल्यों को लागू करने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। आधुनिक कवितायें पाठक से और उससे ज़्यादा आलोचक से एक सीधे और मुक्त संबंध की अपेक्षा रखती है। क्योंकि इसका मूल्य कहीं बाहर नहीं भीतर है जैसे लोहे की धार लोहे के भीतर होती है।
- सुशील शर्मा
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