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मेरी प्रथम रेल यात्रा
Essay on My First Train Trip in Hindi
यह बात सन २००५ की है।लखनऊ से सुल्तानपुर जाना था।मैं पिताजी के साथ था।मुझे याद है कि मैं पाँचवीं कक्षा
रेल यात्रा |
स्टेशन का दृश्य -
हमारे टिकट पहले ही ख़रीदे जा चुके थे।उस दिन मेरे जल्दी मचने के कारण हम ११ बजे ही लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए।साफ़ सुथरा चहल पहल से भरा रेलवे स्टेशन था।कोई कुली को आगे किये बैग लिए आ रहा था ,कोई अपना झोला संभाले गाड़ियों की ओर लपका आ रहा था। ११. ५ पर हमें अपनी जगह मिल गयी। मुझे खिड़की के पास बैठने का मौका मिला ,इसीलिए मैं खुश था। गाड़ी पर बैठकर मुझे अच्छा लग रहा था।
गाड़ी का दृश्य -
ठीक पर गाड़ी चली।लगभग सभी सीटें यात्रिओं से भर गयी थी। लोग अपने अपने सगे सम्बन्धियों से साथ किसी न किसी क्रिया में व्यस्त थे।अधिकांश लोग पत्र पत्रिकाओं ,समाचार पत्र या पुस्तक आदि पढ़ रहे थे। एकाध जगह ताश का खेल चल रहा था।बुजुर्ग लगने वाली यात्री देश विदेश की चर्चा में व्यस्त थे। कहीं से हँसी के फवारे और मज़ाक आदि के स्वर आ रहे थे।शायद यह किसी कॉलेज के छात्र छात्राओं का समूह था जो मीठी मीठी बातों में आनंद ले रहा था।
गाड़ी से बाहर का दृश्य -
गाडी के चलते ही मेरे ध्यान बहार के दृश्यों की रतफ गया।मेरे लिए यह किसी सिनेमा से कम नहीं था। मैं लखनऊ से सुल्तानपुर से सारे दृश्यों को देखना चाहता था।मैं समझ नहीं पा रहा रहा था कि गाडी कैसे अपनी पटरियाँ बदल लेती हैं। यह मैं समझ पाऊँ की गाडी रुक गयी।यह रायबरेली स्टेशन था।यात्रियों का हुजूम स्टेशन पर खड़ा था। मैंने अपनी सीट संभाल ली। रायबरेली स्टेशन पर इतने अधिक यात्री चढ़े की कि बीसियों यात्रियाँ को खड़ा रहना पड़ा. कई यात्री को दो की सीट पर तीन तीन करके बैठे जा रहे थे।
चहल पहल -
रायबरेली स्टेशन से गाड़ी चली तो एक भक्ति स्वर सुनाई दिया।यह कोई सूरदास जी थे ,जो यात्रिओं को गीत सुना सुना कर अपने पेट पालते थे। यात्रियों ने उसका मीठा मीठा गीत सुना और बदले में उसे पैसे दिए। अब खिड़की से बाहर हरे भरे खेतों, पुलों ,नदियों ,मकानों रेलवे फाटकों छोटे छोटे स्टेशनों की श्रंखला शुरू हो गए ,जिन्हे मैं रूचि पूर्वक देखता था ,मुझे सब कुछ भा रहा था। यह सब मेरे लिए नया था।आगे के स्टेशन पर सैकड़ों यात्री उतर गए। इससे गाड़ी में फिर पर्याप्त जगह बन गयी।
गाड़ी में खाने पीने का सामान बेचने वाले ,जूता पोलिश करने वाले ,भीख माँगने वाले ,खिलौने बेचने वाले आ जा रहे थे। जहाँ जिस टशन पर गाडी रुकते ,वहां चहल पहल हो जाती थी।चाय ,बॉटल ,पुस्तकें ,पकौड़े आदि बेचने वाले अधीर हो उठते थे।इस सारी चहल पहल पर हैदरगढ़ ,निहालगढ़ ,मुसाफिरखाना आकर चला गया, मुझे पता ही नहीं चला।मेरा ध्यान तब टूटा ,जब पिता जी ने कहा - बेटा ! चलो जूता पहनों ,स्टेशन आ गया है। मेरी वह प्रथम रेल यात्रा आज भी स्मरण है। यह यात्रा अत्यंत सुखद थी।
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