हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञान मौलिक रुप में न होकर अनुदित रुप में ज्यादा मिलता है। आज हमारे बड़े बड़े वैज्ञानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में विज्ञान की शिक्षा और शोध का माध्यम अपनी भारतीय भाषाएं नहीं हैं।
भारत में मातृभाषाओं में हो विज्ञान का प्रसार
आज विज्ञान की निरंतर बढ़ रही उपलब्धियों और उसकी आमजनों को दी गई सौगातों ने विज्ञान के प्रति लोगों की रुचि को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। एक समय था जब लोग कहते थे कि विज्ञान एक बहुत ही कठिन विषय
विज्ञान |
विषय कोई भी हो, लेकिन उसे आम लोगों तक पहुँचाने के लिए जनसामान्य की भाषा ही सबसे अच्छा माध्यम होती है, क्योंकि भाषा लोक व्यवहार का सशक्त साधन है। इसी तरह विज्ञान को भली भांति जानने, पहचानने और समझने के लिए मातृभाषा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। भारत संवैधानिक मान्यताप्राप्त 23 मातृभाषाओं वाला बहुभाषी देश है। भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है। भारत में मुख्यरुप से चार भाषाई परिवारों यथा इंडो-यूरोपीय, द्रविण, आस्ट्रिक और चीनी-तिब्बती के अन्तर्गत आने वाली विभिन्न भाषाएं जैसे मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, असमी, उड़िया, कश्मीरी, उर्दू, मैथिली, संस्कृत, कन्नड़, तमिल, मलयालम, तुलु, कोडागू, तोड़ा,कोया, संथाली, मुंदरी सहित अन्य अनेक आदिवासी भाषाएं भी प्रचलन में हैं।
इन सभी भारतीय भाषाओं से स्पष्ट है कि भारत में भाषाओं की विविधता के बावजूद भी विज्ञान विषय को लोग अंग्रेजी तक सीमित मानने के लिए बाध्य हैं। लेकिन शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों का कहना है कि इतने व्यापक भारतीय भाषाई परिवेश में विज्ञान को आखिर किस मातृभाषा में पढ़ाया जाए या प्रसार किया जाए? एक और तर्क दिया जाता है कि यदि बच्चे विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी में लेते हैं तो वे राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अपने ज्ञान का प्रस्तुतिकरण भली प्रकार कर पाएंगे। क्योंकि मातृभाषा में लिए गए विज्ञान के ज्ञान को वे सीमित रुप में ही समझ या प्रसारित कर पाएंगे। वे अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन सबसे पहली बात तो यह है कि किसी भी बात को प्रस्तुत करने या प्रसारित करने से पहले उस विषय की संकल्पनाओं और अवधारणाओं व सिद्धांतों को भलीभांति समझ पाना ज्यादा जरुरी है। यदि विज्ञान समझ ही नहीं आ रहा है, तो उसे प्रस्तुत करना तो बहुत दूर की बात है। आज हमारे यहां हो भी वही रहा है, ज्यादातर विद्यार्थी पाठ्यक्रमों की विज्ञान किताबों में लिखी बातों को कण्ठस्थ कर लेते हैं और समझते हैं कि विज्ञान पढ़ लिया। बरसों से वहीं किताबें चलती आ रही हैं, अद्यतन विज्ञान कहां से कहां पहुंच रहा है, हमारे विद्यार्थी वहीं कहीं उन्हीं सिद्धांतों में अटके पड़े हैं, सम्भवतः जिनको उनके अभिभावकों नहीं तो बड़े भाई बहनों ने पढ़ा था।
दो बातें सामने आती हैं, एक तो विज्ञान की पढ़ाई में पाठ्यक्रमों में संशोधन समय के साथ साथ होते रहना बहुत आवश्यक है और साथ में इसका अपनी मातृभाषा में पढ़ाना भी उतना ही महत्व रखता है। विषय को अपनी भाषा में समझना ज्यादा सरल और सहज होता है, क्योंकि ऐसा होने पर पूरी ऊर्जा का उपयोग सिर्फ विज्ञान को समझने में किया जाता है, जबकि अंग्रेजी में विज्ञान को समझने में ऊर्जा को विज्ञान के साथ साथ भाषा को समझने में भी अतिरिक्त रुप से व्यय करना पड़ता है। 1947 में ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के बावजूद भी भारत में जो भाषिक परतंत्रता आज भी बनी हुई है, उसने विज्ञान ही क्या हर विषय की समझ को हमारे बच्चों से छीना है। भारत ने विज्ञान की ऐसी कोई विधा नहीं होगी जिसमें सफलताओं के परचम न लहराए हों। विश्वपटल पर वैज्ञानिक शोधों में भारत का अपना स्थान बन गया है, प्रतिष्ठा है, इससे तनिक भी इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन फिर भी विज्ञान और वैज्ञानिक सोच भारत के आमजनों तक नहीं पहुंच पाती है, क्यों, इसका कारण सिर्फ वो विदेशी भाषा है, जिसे आड़े लाया जाता रहा है।
हमारे यहां हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञान मौलिक रुप में न होकर अनुदित रुप में ज्यादा मिलता है। आज हमारे बड़े बड़े वैज्ञानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में विज्ञान की शिक्षा और शोध का माध्यम अपनी भारतीय भाषाएं नहीं हैं। विज्ञान का ऐसा अँग्रेजीनुमा शैक्षिक स्तर देश का आधार मजबूत तो कदापि नहीं कर पा रहा है। क्या हमारे देश के परमाण्विक अनुसंधानों से लेकर चंद्रयान और मंगलयान तक की सैर कर रहे विज्ञान को आम भारतीय तक पहुंचने का अधिकार नहीं है? क्या आवश्यक नहीं है कि डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर रहा भारत का आम व्यक्ति भी उतने ही अधिकार से भारतीय वैज्ञानिक उपलब्धियों को जाने, जितना एक अँग्रेजी समझ सकने वाला तथाकथित विद्वान समझ पाता है। भारत में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी वैज्ञानिक शब्दों के लिए मानक तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावलियां बनाई गई हैं और बनती जा रही हैं। लेकिन इनका प्रयोग मात्र पुस्तकों में और अनुदित दस्तावेजों में ही पाया जाता है। आम बोलचाल में उनका प्रचलन आज तक भी नहीं हो पाया है। हल यही है कि जो समय व्यर्थ गवां दिया, उसे भूलें और कम से कम अब तो जागें। हमारी केंद्रीय व क्षेत्रीय शिक्षा संस्थाएं और बहुत हद तक अभिभावक भी अन्य विषयों के अलावा विज्ञान को भी सशक्तरुप में अपनी मातृभाषाओं में बच्चों को समझाने के लिए प्रतिबद्ध बनें।
वैज्ञानिक शिक्षण के बाद दूसरी दो बातें विज्ञान के सृजन और उसके प्रसार की आती हैं। देश की मौलिक प्रगति के लिए इन दोनों का भी मातृभाषा में होना अत्यावश्यक है। चाहे बात प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की रही हो या फिर अन्य वैज्ञानिक सुविधाओं की लोगों तक पहुंचने की, इनके लोकप्रियकरण में जनभाषा की महती भूमिका रही है। विश्व में वही देश विकसित हैं, जिन्होंने अपनी भाषा के माध्यम से विज्ञान और तकनीक का निर्माण व प्रसार किया है। रूस, फ्रांस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फीजी, यूरोपीय और कैरिबियाई देश, ब्राजील, वेनेजुएला, फ्रेंच गयाना, अर्जेंटीना, चिली आदि इन सभी देशों की अपनी राष्ट्रभाषा है, जिसका प्रयोग बिना किसी हिचकिचाहट के वहां का वैज्ञानिक, नेता और आम आदमी करता है। उनकी भाषा हमेशा हर जगह सम्मान के साथ उनके साथ रहती है। तभी इन देशों में विज्ञान आम लोगों के साथ है और इसलिए ये देश अपनी जनता सहित प्रगतिशील भी हैं।
एक समय था जब हमारा देश भी अपनी भाषाओं के साथ ससम्मान जीता था, वो समय था 19वीं सदी के उत्तरार्ध का, जब भारत में विज्ञान के प्रसार के प्रयास से किए जाने लगे थे। उस समय के भाग्यवादी व अंधविश्वासी परम्पराओं में जकड़े ब्रिटिशशासित भारतीय समाज को तर्क और वैज्ञानिकता पर आधारित वैज्ञानिक सोच व
डॉ. शुभ्रता मिश्रा |
सन् 1900 में गुरुकुल कांगडी, हरिद्वार ने विज्ञान सहित सभी विषयों की शिक्षा के लिए हिंदी को माध्यम बनाया था। भारतेंदु और द्विवेदी युगीन लेखकों और संपादकों ने हिंदी में पर्याप्त वैज्ञानिक लेखन भी किया था। पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' और पं. रामचंद्र शुक्ल जैसे साहित्यकारों ने वैज्ञानिक विषयों पर भी अत्यंत सहज ढंग से लिखा और इस क्रम में इलाहाबाद में 1913 में स्थापित विज्ञान परिषद ने 1914 में 'विज्ञान पत्रिका' आरंभ की थी और वैज्ञानिक लेखन के लिए नए आयाम खोले थे। हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की संभावनाओं को एक नवीन दृष्टि प्रदान करने वाले डॉ. रघुवीर ने 1943-46 के दौरान लाहौर से हिंदी, तमिल, बंगला और कन्नड - इन चार लिपियों में तकनीकी शब्दकोश प्रकाशित किया था। इसके बाद सन् 1950 में उनकी कंसोलिडेटड डिक्शनरी प्रकाशित हुई। ये वो समय था जब भारत विज्ञान और मातृभाषाओं के संबंधों की महत्ता को पहचान गया था। लेकिन दुर्भाग्य कि इतने प्रयासों के बाद भी अंग्रेजी वर्चस्व ने स्वतंत्रता के बाद भारत की शिक्षा प्रणाली में भाषाई दीमक लगा दी, जो सम्भवतः आज भी नहीं जा पाती। फिर भी समय समय पर प्रचार प्रसार के प्रयास चलते ही रहते हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद आज तक भी विज्ञान के प्रसार में और उसे लोकप्रिय बनाने में प्रसिद्ध भारतीय भौतिकीय वैज्ञानिक मराठी भाषी जयन्त विष्णु नार्लीकर, जाने माने विज्ञान लेखक गुणाकर मुले जी और भारत के खिलौना अन्वेषक एवं विज्ञान प्रसारक अरविन्द गुप्ता जी जैसे अनेक मूर्धन्य विद्वानों का योगदान हमारी आगामी पीढ़ी के लिए एक बहुत बड़ा प्रेरणास्त्रोत रहेगा।
विश्व स्तर पर जैसे-जैसे समाज विकसित और वैज्ञानिक हो रहा है, आधुनिक बन रहा है, उतना ही भाषा के मामले में तेज़ी से विपन्न होता जा रहा है। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि पूरे विश्व में 6000 भाषाओं में से 50 प्रतिशत विलुप्त होने की कगार पर हैं। विश्व के लोग महज दस भाषाओं के इस्तेमाल पर सिमटकर रह गए हैं। वैश्वीकरण के जिस दौर में हम आज आ पहुंचे हैं, वहां एक ही तरह का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, एक ही तरह की ज़िन्दगी और एक ही तरह की भाषा का ज़ोर है। यही सब कुछ हमारे देश पर भी लागू हो रहा है। समाज को बदलने में और कृषि व्यापार, उद्योग धंधे सहित जीवन के किसी भी क्षेत्र में आज सतत विकास के लिए वैज्ञानिक सोच का अत्यधिक महत्व है। यह वैज्ञानिक सोच सिर्फ विज्ञान संचार के द्वारा विज्ञान के लोकप्रियकरण के माध्यम से पैदा की जा सकती है। इसके लिए वर्तमान वैज्ञानिक-संदर्भ मे भारतीय भाषाओं को उच्चतर प्रौद्योगिकी, राजनयिक संबंध, वाणिज्य-व्यापार, सामुद्रिक यातायात एवं आधुनिक मानव-जीवन के अन्य अनेक प्रभागों में एक प्रयोजकपरक भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। भारतीय मातृभाषाओं में सर्वसुलभ वैज्ञानिक उपलब्धियां देश के आर्थिक, सामाजिक सहित सभी प्रकार के लाभों की सिद्धि बन सकेंगी। ऐसी समग्र प्रगति के लिए आज भारत में भी विज्ञान से जुड़ी बातों को आम लोगों तक पहुँचाने और विज्ञान की शिक्षा में भी सुधार के लिए सार्थक प्रयासों की आवश्यकता है।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
,very useful article.It is reality that because of language barrier science is not reaching to the common man of india
जवाब देंहटाएंमातृभाषा मे ही सब कार्य हो हमारा मानना है आपका प्रयास सराहनिय है ।हिन्दी भारत मे बोलने समझने की भाषा रहा है ।
जवाब देंहटाएंकिन्तु कुछ जटिल और कुटिल लोग अपना जनाधार को बनाये रखना चाहते है ।इसलिए हिन्दी भाषा पर ध्यान नही दिया जा रहा है ।
आपको पुनः बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामना ।
हिन्दी हमारी मातृ भाषा है हिन्दी से ही हिन्दुस्तान का उन्नति संभव सै ।
मातृभाषा मे ही सब कार्य हो हमारा मानना है आपका प्रयास सराहनिय है ।हिन्दी भारत मे बोलने समझने की भाषा रहा है ।
जवाब देंहटाएंकिन्तु कुछ जटिल और कुटिल लोग अपना जनाधार को बनाये रखना चाहते है ।इसलिए हिन्दी भाषा पर ध्यान नही दिया जा रहा है ।
आपको पुनः बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामना ।
हिन्दी हमारी मातृ भाषा है हिन्दी से ही हिन्दुस्तान का उन्नति संभव सै ।