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भारतीय स्त्रियों के सशक्तिकरण का वास्तविक विश्लेषण
नारी सशक्तिकरण जैसी योजनाओं को मूर्तरुप देना अपने आप में यह साबित करता है कि स्त्रियों को सशक्त नहीं समझा जाता है। भारतीय समाज में सदियों से स्त्रियों को अक्सर अबला, निर्बला, धर्मभीरु आदि आदि ऐसे
महिला सशक्तिकरण |
वर्तमान में नारी निर्बलता का मुद्दा हास्यास्पद लग सकता है, उन आधुनिक स्त्रियों को दृष्टिगत रखते हुए जो आज राष्ट्रमण्डल खेलों में मैडलों की वर्षा कर रही हैं या कि जो हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं। लेकिन क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि इनकी संख्या आनुपातिक रुप से कई सालों से बहुत कम या कहें कि लगभग उतनी ही या उसी अनुपात में रही आती है, उसमें बहुत ज्यादा फर्क दिखाई नहीं देता। इतने बड़े करोड़ों की आबादी वाले देश में उंगलियों पर गिनी जाने वाली संख्या में स्त्रियां सशक्त होकर महज आत्मश्लाघा के लिए हम खुश हो लें, यह कितना न्यायोचित होगा, उस देश के लिए जहां शेष स्त्री समाज सदियों की सामान्य स्थितियों में थोड़ा सा परिष्कृत होकर आज सिर्फ सांसे ले रहा है, पर सही मायनों में जीवित नहीं है।
अधिकांश भारतीय स्त्रियां वास्तविक तौर पर सशक्त नहीं कही जा सकती हैं। बिल्कुल ईमानदारी से यदि विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि आज भी निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से लेकर संभ्रांत उच्च वर्गों तक के परिवारों में स्त्रियां खुलकर किसी भी पारिवारिक निर्णय को नहीं ले पातीं। वे कितनी ही शिक्षित विदुषी क्यों न हों, आधुनिकता से परिपूर्ण क्यों न हों, बड़े प्रतिष्ठित पदों पर क्यों न हों, लेकिन जहां कहीं भी निर्णय लेने की बात आती है चाहे वह स्वयं के लिए हो, अपने बच्चों के लिए हो या अपने परिवार के लिए हो, वे इस बात को टाल जाती हैं। इस सोच के पीछे वे छिपे हुए अप्रभावी कारक हैं, जो धीरे धीरे भारतीय स्त्रियों के आनुवांशिक जीनों से होते हुए प्रभावी-अप्रभावी रुप में स्त्री-पीढियों में स्थानांतरित होते रहते हैं।
स्त्री को किसी भी तरह के उत्तरदायित्व को निष्ठापूर्वक निर्वहन करने की प्राकृतिक प्रवृत्ति मिली हुई है, इसलिए वह सहजरुप में विश्वास की पात्र बन जाया करती है। सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी विषय सकारात्मक हों, स्त्रियों को उनकी इसी निष्ठा और ईमानदारी ने संघर्षों के मध्य कठिन अध्यवसायों के बावजूद सम्मानित होने के लिए पुरुष सत्तात्मकता को विवश किया है। या फिर आतंकवाद जैसी आज की ज्वलंत वैश्विक समस्या हो अथवा आपराधिक मामले हों, ऐसे संगीन विषयों में भी लिप्त स्त्रियों में उनकी इसी प्राकृतिक विश्वसनीयता का दुरुपयोग किया जाता है। दोनों ही परिस्थितियों में अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए पुरुष सत्ता स्त्री की निष्ठा से एक तरफ काम पूरा करवा लेती है, उसे सम्मान देने और आदर देकर सभी को आश्वस्त भी कर लेती है, लेकिन फिर भी संबंधित संदर्भ में यदि किसी निर्णय को लेने की बारी आती है, तो गोलमेज का तीरबिन्दु कभी भी स्त्री निष्ठा पर जाकर नहीं ठहरता अपितु वह हमेशा किसी पुरुष की सोच की अनुमति की प्रतीक्षा करता है। यह भी सच है कि इसमें स्वयं स्त्रियां भी उतनी ही हिस्सेदार होती हैं, क्योंकि उनके अंदर किसी निर्णय तक पहुंचने की चाहत या आवश्यकता की अनुभूति नहीं होती है। जैसा है ठीक है कि मानसिकता और सदैव शांति बनी रहने की चेष्टा ने स्त्रियों में इस नीरवता को ओढ़ने का माध्यम दे दिया है।
हमारे समाज में बेटियां कितने ही लाड़ दुलार में पली बढ़ी हों, लेकिन जब वे स्त्री स्वरुप में आकर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बंधन में बंधती हैं, तो स्वतः उनमें वे निर्बल कारक आकार लेने लगते हैं। तब या तो मुंह खोलने से और अपनी बात को रखने से घर टूट जाते हैं या मौन होकर शांति को बनाए रखने की मुहिम के तहत कुछ परिष्कृत रुप में भारतीय परिवार आगे बढ़ जाते हैं, अगली किसी स्त्री पीढ़ी को जन्म देने के लिए। भारतीय समाज में वे परिवार अधिक सुखी और समृद्ध माने जाते हैं जहां घरों में स्त्रियां बहुत अधिक हस्तक्षेप नहीं करतीं। ये सिर्फ कहने की बातें होती हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं रह गया है। ऐसा कहना एक आधुनिक फैशन के अलावा और कुछ नहीं है। यह यथार्थ से मुंह चुराने का सबसे सरल जुमला है। इस लेख को पढ़ रहे पुरुषों और स्त्रियों को बात बिल्कुल सही लगेगी, लेकिन वे स्वीकार करना नहीं चाहेंगे, क्योंकि ऐसा करने से उनकी तथाकथित आधुनिक होने की प्रतिष्ठा के धूमिल होने का डर रहता है।
ये सभी तथ्य एक भारतीय ऐतिहासिक विश्लेषण की अपेक्षा रखते हैं, कि क्यों, कब और कैसे वैदिककालीन भारतीय विदुषियां निर्बलता का प्रतीक बनती चली गईं। भारतीय संस्कृति में चारों वेदों अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में स्त्रियों की स्थिति के वर्णन मिलते हैं। मण्डल, सूक्त और ऋचाओं से अलंकृत सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में सृष्टि के अद्भुत रहस्यों के रुप में तथा यजुर्वेद में यज्ञ कर्म और सामवेद में उपासना की प्रधानता के आधार पर स्त्री को उद्घाटित किया गया है। अथर्ववेद भी गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषयों से संबंधित ज्ञान में स्त्रियों की विद्वता का परिचय करवाने का सबसे बड़ा साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इस तरह चारों वेदों में सृष्टि के प्रमुख जीव माने जाने वाले मनुष्य के स्त्री और पुरुष से संबंधित अनेक तथ्यों का वर्णन मिलता है।
वेदों में स्त्रियों और पुरुषों को असमानता की दृष्टि से नहीं देखा गया है। अब यह अलग बात है कि विद्वजन वेदों की व्याख्या अपने अनुसार करने के लिए स्वतंत्र रहे हैं, इस दृष्टि से कुछ लोग वेदों में भी स्त्रियों को पुरुषों से कम आंके जाने की अपनी प्रमाणिकता अपने तरीके से व्याख्यायित करते रहते हैं। लेकिन बिल्कुल सहज और सरल ढंग से वेदों के अध्ययन स्पष्ट प्रदर्शित करते हैं कि वैदिक काल में भारतीय स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की कदापि नहीं थी, अपितु उतनी ही श्रेष्ठ और सम्मानित थी, जितना पुरुषों को स्थान मिला हुआ था। साररुप में कहें तो वैदिक काल में स्त्री और पुरुष बराबरी से समस्त धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते थे।
वेदों में स्त्री को अनेक उपमाओं से जैसे पृथ्वी, ऋक, वीणा तन्त्री, नदी का दूसरा तट, रात्रि, उषा, विद्युत, ज्वाला, प्रभा, लता, पंखुड़ी, धीरता, श्रृद्धा, विद्या, सेवा, क्षमा के रुप में अलंकृत किया गया है। ठीक इसी तरह पुरुषों के
शुभ्रता मिश्रा |
इसी समानता के कारण वैदिक काल में स्त्रियों की सुदृढ़ सम्मानजनक स्थिति, धार्मिक व सामाजिक कार्यों में स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, सम्पत्ति में समानता का अधिकार, यज्ञ और सार्वजनिक आयोजनों में अपने विचार रखने की पूर्ण स्वतंत्रता आदि तथ्य उनको अपने ढंग से जीवन के संचालन की मिली पूर्ण स्वतंत्रता के दर्शन कराते हैं। इसके अतिरिक्त उनको अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार गुणशाली वर चुनने का अधिकार भी था। गार्गी, सुलभा, मैत्रयी, कात्यायनी, लोपमुद्रा, अनुसूया, अरुन्धति आदि विदूषियों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि वे कैसे समय समय पर अपनी मेधा से ऋषि- मुनिओं की शंकाओं का समाधान तक किया करती थीं।
भारतीय स्त्रियों की धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक स्थितियों में युगानुरूप परिवर्तन होते रहे हैं। उनकी स्वतंत्रता वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अपने अधिकारों में आए बदलावों के तदनरूप परिवर्तित होती रही है। पहला परिवर्तन तब दिखता है जब वह वैदिक युग के समाप्त होते होते दैवी पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी। इस समय तक भी धार्मिक अनुष्ठानों और याज्ञिक कर्मो में उसकी स्थिति पुरूष के बराबर थी। कोई भी धार्मिक कार्य बिना पत्नी के नहीं किया जाता था। इसके बाद महाभारत काल से नारी अस्मिताओं की असुरक्षा ने स्त्री स्वतंत्रता को लगाम देने की सोच के बीज बोने शुरु कर दिए। स्त्री असुरक्षा की भावना के चलते देश में अराजकता और मनमानी के बढ़ावे से स्त्रियों का सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण होने लगा। स्त्रियां स्वयं की सुरक्षा के लिए गृहीय परिसीमाओं में संकुचित होने लगीं और पुरुष उनके व्यक्तित्व और मनीषा पर भावी होने लगे, स्त्रियां निर्बल होने लगीं।
संस्थानिक रूप से कहें तो मध्यकाल से स्त्रियों की वैदिक और उत्तरवैदिक स्वतंत्रता अवनति की ओर बढ़ती दिखने लगती है। सम्भवतः यहीं से पुरुष अहं को पहुंचने वाली चोट के दर्शन होने लगते हैं और अपनी पुरुष सत्तात्मकता को प्रतिष्ठित कर पाने की चेष्टा पुरुष समाज करने लगता है। इसके लिए स्त्री स्वतंत्रता पर सबसे पहला प्रहार दिखाई देने लगता है, जब पुरुश समाज स्त्रियों पर विभिन्न तरह से निर्योग्यताओं का आरोपण करते दिखता है। यहां से स्त्री की धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता पर लगाम लगने लगी थी। पुरुष के साथ चलने वाली स्त्री मध्य काल में पुरुष की सम्पत्ति की तरह समझी जाने लगी। इसी सोच ने स्त्री स्वतंत्रता को सामाजिक स्तर पर समाप्त कर दिया परन्तु धार्मिक दृष्टि से सोचें तो तब भी पत्नी और पुत्री की धार्मिक मर्यादा का पतन उतना भी नहीं हुआ था। क्योंकि उनकी वैदिक अनिवार्यता हमेशा बनी रही। हां यह अवश्य है कि मध्य काल में नए नए जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और शोषण करना शुरू किया।
धर्म और समाज के बनाए अपने झूठे नियमों ने स्त्री स्वतंत्रता का गला घोंटते हुए प्रेम, ममता, करुणा, सृजनात्मकता में ईश्वरत्व के सबसे निकट मानी जाने वाली स्त्रियों को पुरुषों के उपभोग और मनोरंजन की वस्तु बनाकर रख दिया। वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी। मध्यकालीन पुरुर्षों ने स्वयं के ऊपर निर्भर बनाने के लिए स्त्री के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया। यही वह दौर था जब से आज तक स्त्रियां आसानी से विद्याहीन और शक्तिहीन बनाई जाती जा रही हैं। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर धार्मिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री स्वतंत्रता की परिभाषा बुरी तरह छिन्न भिन्न हो गई। एक समय आया जब पर्दाप्रथा, बाल विवाह प्रथा और नारियों को शिक्षा से दूर रखने का चलन जैसी कुरीतियों ने स्त्री निर्बलता को बल दिया।
11 वीं शताब्दी से 19 वीं शताब्दी के बीच भारत में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय दिखाई देती है। यह समय स्त्रियों की स्वतंत्रता, सम्मान, विकास और सशक्तिकरण के अंधकार का युग कहा जा सकता है। मुगल शासन, सामन्ती व्यवस्था, केन्द्रीय सत्ता का विनष्ट होना, विदेशी आक्रमणों और शासकों की विलासितापूर्ण प्रवृत्ति ने भारतीय स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रहार करके उसे लहूलुहान कर दिया। इससे अप्रत्यक्ष रुप से भारत का निजी व सामाजिक जीवन भी कहीं न कहीं कलुषित हुआ। उन्नीसवीं सदीं के पूर्वाध में भारत के कुछ समाजसेवियों ने अत्याचारी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठायी। इन्होंने तत्कालीन अंग्रेजी शासकों के समक्ष स्त्री पुरूष समानता, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा तथा बहु विवाह पर रोक की आवाज उठायी।
इसी का परिणाम था सती प्रथा निषेध अधिनियम, हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, एज आफ कन्सटेन्ट बिल, बहु विवाह रोकने के लिये वेटिव मैरिज एक्ट आदि पर कुछ सार्थक काम हुए जो यह दर्शाते हैं कि एक बार फिर स्त्रियां अपनी निर्बलता से उबरने की ओर बढ़ने लगीं। तब से लगातार स्त्री जागरूकता और नारी संगठनों के सूत्रपातों के माध्यम से स्त्री अशिक्षा, दहेज, बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर रोक, महिला अधिकार, महिला शिक्षा का माँग जैसे मुद्दों को उठाते हुए स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में कदम बढ़ाकर स्त्रियों के पुनरोत्थान का शंखनाद होता आ रहा है। इस विजय संगीत से निःसंदेह भारतीय समाज के सामाजिक व आर्थिक परिवेश में स्त्री दृष्टिकोण को लेकर अनेक परिवर्तन हुए हैं। औद्योगीकरण, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक आन्दोलन व महिला संगठनों का उदय व सामाजिक विधानों ने स्त्रियों की दशा में बड़ी सीमा तक सुधार किए हैं।
इस बात से जरा भी इंकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियों ने अपनी तथाकथित निर्बलता को असत्य साबित करने के लिए जिस तरह अथक परिश्रम किया, उसी का सुफल है कि आज वे अपनी नगण्य संख्या के साथ ही सही सभी क्षेत्रों में नए नए कीर्तिमान गढ़ने में सफल हो रही हैं। जीवन की सर्जक, राष्ट्र की मार्गदर्शक, समाज का विकास करनेवाली और परिवार को सँभालनेवाली, इन सब के अनूठे मेल की प्रतिमा स्त्री की समग्र स्वतंत्रता की स्थिति में इक्कीसवीं सदी तक आते-आते बहुत अधिक सुधार हुआ है। कड़वा सच सिर्फ यह है कि आज भी आधी से अधिक स्त्रियों को पारिवारिक, शैक्षिक, राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक, खेलकूद आदि विविध क्षेत्रों में स्वनिर्णय लेने की चुनौतीपूर्ण स्वतंत्रता के लिए अपनी योग्यता प्रमाणित करने की चुनौती को पूरा करना है। तभी सही मायनों में वे वैदिककालीन स्त्रियों की भांति वे पुनः आत्मनिर्भर, स्वनिर्मित, आत्मविश्वासी बन पाएंगी।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
बेहद सटीक लिखा है आपने
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