खालीपन जो सभी सुखसुविधाएं, ऐशो आराम की चीज़ें और अपने प्रियजनों से घिरे होने के बावजूद भी हमारे भीतर कहीं पल रहा होता है एक उस अजन्में बच्चे की तरह जो गर्भ में मां से सांसें लेकर सृजनित होता है एक कलाकृति के रूप में, आकर्षण और परिपक्वता से पूर्ण।
ख़ालीपन
कई महीने हो गये इस बार आपको गावं गये हुये! अब आये हो आप? सब ठीक तो है न? मेरी दुकानदार महिला ने मुझे उसकी दुकान में आते हुए देखकर पूछा था। मैं इन्हीं महिला की दुकान से अपने घर की जरूरतों का सामान लाया करती थी। इन महिला का नाम था सुधा और मैं उनको सुधा जी कहकर संबोधित किया करती थी। मेरा व्यवहार सुधा जी से ऐक दोस्त के जैसे हो गया था! वह मेरे विचारों से बहुत प्रभावित भी होती थीं। वह मुझसे ख़ुद का जुड़ाव सा अनुभव करती थीं। सुधा जी कोई 40 वर्ष की महिला होंगी जिनकी सोच सुलझी हुई और व्यवहार एकदम सरल था। सुधा जी की यह दुकान उनके खाली दिमाग़ के शैतानी आतंकों से बचने के लिए खोली गई थी जिससे उनका दिमाग़ कोई शैतानी हमले न कर सके, व्यस्त रहा करे। दरअसल सुधा जी ने कितनी ही बार अपनी जीवन लीला समाप्त करने की तमाम कोशिशें कर रखी थी मतलब उनके शैतानी दिमाग़ ने अपने आतंक का शिकार खुद को ही बनाया था औरों को नहीं।
उस दिन उन्हें देखकर ऐसा लगा था जैसे उनको मेरी ही प्रतीक्षा थी जाने कितने जन्मों से। शाम का समय था, बढ़ते अंधेरे में गर्मी ने मानो अंधेरे से कोई प्रतियोगिता की शर्त लगाई हो कि ‛देखो तुम जितनी तेज़ी से अंधेरा
बढ़ाओगे तो मैं भी तुमसे कम थोड़े न हूँ! मैं अभी अपनी गर्मी से धरती को तापता रहूंगा।’ दोनों की प्रतियोगितायें जारी रहीं किन्तु उनकी प्रतियोगिता का असर उन पर तो कम हम बेचारे देह लिये हुये घूमते प्राणियों पर ज्यादा ही हो रहा था। मैंने उनका हाल चाल करते हुए ही अपने सामान की लिस्ट की पर्ची उनको दे दी और खुद दुकान में पड़ी हुई कुर्सी जा बैठी जहां ठीक कुर्सी के ऊपर लगे पंखे ने मुझपर अपनी कृपा दृष्टि बरसाई। मैंने एक लंबी सांस भरी औऱ पानी की एक घूंट ली जो वहीं काउंटर पर बॉटल में रखी हुई थी। मेरा सारा सामान एक थैले में रखते हुए सुधा जी ने मुझसे चाय पीने के लिए आग्रह किया और मैंने भी ज़्यादा नु नकर किये बिना ही हां में सर हिला दिया। उन्होंने फ़ोन करके अपने घर से चाय बनाकर ले आने का आदेश दिया और फ़ौरन फ़ोन रखकर मेरे बगल वाले कुर्सी पे आ बैठी। असल में सुधा जी के दुकान के ठीक ऊपर वाले मंज़िले पर ही उनका घर था। उन्होंने मेरे बग़ल में बैठते ही ख़ुद को मानो सरेंडर कर दिया हो और कह रही हों कि गिरफ़्तार करलो मुझे। बहुत समय न लगाते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि क्या हुआ आपके गावं में? सब ठीक है ना? मैंने उनकी ओर देखा, जवाब देना चाहा परंतु उनको देखते ही मेरे मुख से सिर्फ़ हां! ही निकला कि सब ठीक है, क्योंकि मैंने देखा कि उनके अधर कुछ चाल चल रहे थे और उनकी निगाहें कुछ और। दोनों का तालमेल उस वक़्त बिल्कुल बेमेल सा लगा मुझे। उनके अधरों ने मुझसे ये सवाल किये जबकि उनकी आँखों को इस सवाल से कुछ खास लगाव नहीं था मुझसे। थोड़ी ही देर में ऊपर से नीचे चाय हमतक पहुंचाई गयी। हम दोनों ने अपनी अपनी चाय उठायी और चाय की चुस्की लेते रहे तब तक जब तक प्याले से चाय की एक एक बूँद ने प्याले का साथ छोड़ कर अपना दूसरा घर बसा न लिया।
कुछ देर तक सन्नाटा पसरा रहा और फिर सुधा जी ने मेरी तरफ एक हारे हुए भाव में देखकर बोला - आपकी वो बात जो अपने उस रोज़ कही थी, कितनी ठीक लगी थी मुझे। ऐसे लगा था कि अब तक मैं उसको अनुभव तो करती थी परन्तु समझ न सकी थी कि वह क्या है। अपने अंतर के मन के अंतरद्वंद के भाव को क्या नाम दूँ नहीं मालूम था, क्या कह के पुकारूँ इस भिन्नता के भाव को। लेकिन उस रोज़ अपने उसको नाम दे दिया। मेरे उस अनुभूति को जो मेरे मन में अब तक एक कोना पकड़ के बैठी है, मैंने उनसे झट पूछा की क्या कहा था मैंने सुधा जी? उन्होंने एक फीकी हंसी के साथ जवाब दिया - 'खालीपन'। वह खालीपन जो सबकुछ होने के बावजूद होता है, वह खालीपन जिसने मेरे भीतर अपना बसेरा जमाये हुए है। आपने अपने बातों के बीच जब ये शब्द कहा था। हाँ ! सच! मुझमें है वह खालीपन जो सबको नहीं दिखता। सब मुझे यही कहते हैं की क्या नहीं है मेरे पास। अच्छा कमाने वाला पति, बेटा और बढ़िया घर, सारे ऐशो आराम और अब ये एक कमाऊ दुकान जो मुझे अब कमा कर देता है। अचानक मुझे कुछ याद आया और मैंने सुधा जी की भावनाओं की चढ़ाई चढ़ते देख मानो उन्हें थोड़ा विश्राम करने को कह रही हूँ की अब आप थक गए हो भावनाओं के पहाड़ पर चढ़ाई चढ़ते चढ़ते, तनिक रुको और विश्राम कर लो। बेटी कहाँ है आपकी जो यहाँ पढ़ाई के बाद दुकान में आकर बैठती थी ? मैंने पूछा ! नहीं तो, कोई बेटी नहीं है मेरी सिर्फ़ एक बेटा है, वो तो पड़ोस की एक बच्ची है जो आकर यहाँ बैठ जाया करती है, सुधा जी ने जवाब में मुझे कहा। मैंने कहा ओह ! मुझे लगा था की वो आपकी बेटी है। सुधा जी फिर से भावनाओं की चढ़ाई करने को तैयार मनो हाँथ में अपनी छड़ी उठायी और पूरे जोश में तैयार चढ़ाई पर जाने को - मैंने चाहा था की मेरी एक बेटी हो पर ऊपर वाला वो कहाँ चाहता है जो हम चाहते हैं। सुधा जी की चढ़ाई आरम्भ हो गयी और इस बार मैं उन्हें स्वयं भी रोकना नहीं चाहती थी सो उनको मैंने उनकी चढ़ाई चढ़ने दी। इस बार उनके चढ़ाई वाले रास्तें आंसुओं के झरने बहने थे सो मैंने उनको भींगने से बचाना उचित न समझा इसीलिए जाने दिया। मैंने उनकी चढ़ाई और मुश्किल बना दी यह पूछकर कि अच्छा आपकी कोई बेटी नहीं है? उन्होंने कहा नहीं! मेरा एक लड़का ही है और इतना बोलते ही उनके आशुओं ने जैसा की मैंने कल्पना की थी उनके आंसुओं ने झरने को वहीँ बहाना शुरू कर दिया था जहाँ से मैं उन्हें बचने के जद्दोजद में थी परन्तु तब तक मैं यह समझ चुकी थी की अब कितनी भी कोशिश करुँगी ये उससे बचने नहीं वाली। फिर मैंने सोचा की अब सुधा जी को उन झरनों के बीच से ही निकल कर अपनी चढ़ाई पूरी करनी होगी । मैंने उनसे कहा - तब तो आपका बेटा आपसे बहुत नज़दीक होगा क्यूंकि लड़के मां के ज़्यादा करीब होते हैं। फिर क्या था मेरी इस बात ने उनके आँखों की मिट्टी को गीला करके बचे हुए पानीको आँखों के बाहर पलट दिया।
सभी भावनाओं ने दर्द के बाँध तोड़ दिए जब सुधा जी के अधरों ने चल रहे उनके भीतर के जलन का कारण बताना प्रारम्भ किया। बहते हुए भावना का रहस्य जो मेरे उस कहे शब्द ने उनके अंतरंग में ही पल रहे अलगाव को भान लिया था कि कैसे खालीपन ने उनके पास सबकुछ होते हुए भी अपनी जगह को भरना जरूरी और महत्वपूर्ण नहीं समझा था।
आभा सिंह |
सुधा जी की शादी बचपन में ही उनके जन्मदाताओं के द्वारा कर दी गयी थी। शादी के बाद उनके पति में वो इंसान उन्हें नहीं मिला था जो उनके मन के उस स्तर तह पहुंचे जो उनकी आत्मा को छू सके। सतही विचारों वाले उनके पति जो सामाजिक रूढ़िवादिता से सराबोर होकर औरत को सिर्फ एक देह समझते थे। ऐसे समाज में जहाँ खोखले संस्कारों में एक औरत के अस्तित्व, विचारों, इच्छाओं और भावनाओं का खून कर दिया जाता है। पति के हांथों अपने शरीर को रौंदवाना, उसकी मर्जी के बिना उसका बलात्कार ही होता है। औरत न देश की आज़ादी से पहलेआज़ाद थी और न ही देश की आज़ादी के बाद आज़ाद हुयी। उसको उसकी जाति औरत होना जो कि उसकी पहचान है, छिना गया। औरत का औरत होना ही उसकी पहचान है किन्तु हर घड़ी उसको बांटा गया वह भी पुरुषों में और पुरुँषों के हांथों ही - 'कभी किसी पुरुष की बेटी के रूप में, कभी किसी पुरुष के पत्नी के रूप में और कभी किसी पुरुष के ही माँ के रूप में।'
सुधा जी के जीवन में इतना खालीपन था कि उन्होंने मुझसे कहा कि अब जीना नहीं चाहती। मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था ये सोचकर कि क्या उनके ज़हन ने इतनी बड़ी बात सोचने से पहले अपने आप से लड़ाई नहीं लड़ी होगी। कितने द्वन्द अड़े होंगे यह कदम उठाने की कोशिश से पहले। वे अपने जीवन से बिल्कुल हार मान बैठी थी, कोई इच्छा नहीं बची थी उनके जीने की ऐसा उनको लगत था। मैंने उनकी सभी बातों का एक गट्ठर बनाया, आवक सी मूक बन उनकी बातों को सुनती रही कि जिस औरत को मैंने खुशमिज़ाज देखा था उनके भीतर पल रहे इस तूफ़ान की भनक तक नहीं लगी थी मुझे कभी।
दरअसल सुधा जी ने मुझे बताया कि शादी के बाद उनके पति ने उनके साथ कई बार बलात्कार किया (मैं यंहा एक बात साफ़ कर देना चाहती हूँ कि किसी भी औरत के साथ अगर उसकी मर्जी के ख़िलाफ़ जबरजस्ती होती है चाहे वह पति अपने पत्नी के साथ भी करता हो तो उसे बलात्कार की कहा जायेगा) और कितनी ही बार उनपर उनके पति ने छोटी छोटी बातों पर हाँथ भी उठाया था। फिर बिना किसी प्यार के उनकी गोद भी भरी जिसका परिणाम एक लड़का था। लड़के को भी पति ने मां से दूर रखा. फिर भी सुधा जी अपने बेटे से आस लगाए हुए थीं कि उनका बेटा ही अब उनकी भावनाओं की क़द्र करेगा, उनके जीवन में उन्हें जितने भी दुःख देखे उसको वो सुख से बेच देगा। लेकिन सुधा जी का जीवन यहाँ भी कहाँ आसान होने वाला था। उनके लड़के ने धीरे धीरे अपने बाप की जगह ले ली और अब वह अपने पिता के स्थान पर अपने मां को भला बुरा कहने लगा था। सुधा जी के बेटे की उम्र २४ वर्ष है और अब वह अपने पिता के ही नक़्शे क़दम पर चलकर अपनी मां को प्रतारणा देने लग गया है, मां की बातों का मज़ाक बनाना, उन्हें बात बात पर नीचा दिखाना, बात बात पर ताने कसना और उन्हें यह अहसास दिलाना कि तुम औरत हो, पांव की जूती जिसे पैरों में पहनते हैं सर का ताज नहीं बनाते। सुधा जी के इकलौते उम्मीद ने उनके सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। मैं सुधा जी की बातों को सुनकर उनके आसुओं को रोकना नहीं चाहती थी। मैं एकदम ख़ामोशी से उनकी तरफ देखे जा रही थी कि ये वही सुधा जी हैं जिनसे मैं पहली बार मिली थी और ये वही सुधा जी हैं जिसने मुझे अपने जीवन से जुडी इतनी बड़ी बात सहजता से मेरे सामने व्यक्त कर दिया था।
मैं सोचती रही की क्या बचता है उन औरतों के पास जिनके जीवन की डोर ऐसे पति और बच्चें के हाँथ में होती है जिसमें ढीलापन तो दूर एक पैरामीटर का दायरा होता है जिसे न तो औरत ज़ोर लगा कर पर कर सकती है न ही उससे निकलने की कोशिश कर सकती है क्यूंकि अगर ज़ोर लगाया तो उसका दम घुट जाएग। ऐसी औरतों के पास क्या कोई राह नहीं बचती ? कोई पगडंडी जो उनतक आये जिससे वो अपने औरत होने का वज़ूद तलाश कर सके। मैंने सुधा जी को थोड़ी हिम्मत देनी चाही परन्तु वह तो बिल्कुल निराश और आशाहीन हो गयी थी। मैंने कुछ कहना चाहा तभी उन्होंने कहा कि रब उन्हें उठा ले बस उन्हें इस दुनिया से, पति से तो उम्मीद न थी न है लेकिन बेटे के ऐसे बर्ताव ने अंदर ही कहीं उनके अंतडिओं को मनो तोड़ मरोड़ दिया हो। सुधा जी ने अपने जीवन को बिदाई देने की कितनी ही बार कोशिशें कर रखी थी। फिर मैंने सोचा की कुछ न ही बोलना ठीक रहेगा। फिर भी मैंने उन्हें कुछ ऐसे ऐसे औरतों के बारे में बताया जिन्होंने अपने जीवन में कैसे हज़ार मुश्किलों के बावजूद अपने जीवन को दिशा दी और अपनी पहचान भी बनायीं। मैंने उन्हें कुछ किताबें पढ़ने की भी सलाह दी। मुझे बहुत देर हो गयी थी उनकी दूकान में गए हुए। रात के ९ बज गए थे सो मैंने उनसे विदा ली और घर आ गयी।
मैं घर तो आ गयी थी लेकिन मेरा ज़हन अभी भी सुधा जी के उन अनकहे आंसुओं के पास था जिसमें मेरे कहे एक शब्द ने उनके भीतर पल रहे अलगाव को एक नाम दे दिया था - "खालीपन"। जो सभी सुखसुविधाएं, ऐशो आराम की चीज़ें और अपने प्रियजनों से घिरे होने के बावजूद भी हमारे भीतर कहीं पल रहा होता है एक उस अजन्में बच्चे की तरह जो गर्भ में मां से सांसें लेकर सृजनित होता है एक कलाकृति के रूप में, आकर्षण और परिपक्वता से पूर्ण।
- आभा सिंह
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